कविता
गुनगुनाहट
क्या तुम्हारी रगों में अपने भारत की मिट्टी से सुगंधित रक्त नहीं बहता ,
क्या यहां के खेतों में उगा सोना तुम्हारे सौंदर्य में व्रद्धि नहीं करता ,
क्या यहां की नदियां , झरने और दूर - दूर तक फैले हरे - भरे मैदान तुम्हारे अन्दर के संगीत का कारण नहीं बनते ,
क्या उंचे - उंचे पेड़ों से सज्जित हिमालय के गगनचुम्बी पहाड़ तुम्हें आकर्षित नहीं करते ,
क्या हिन्द के सागर की गगन छूती हिलोरें तुममें उंचीं उड़ानों की हसरतें नहीं बनातीं ,
क्या हर दिन की एक नई त्योहारी रंगत तुम्हारी दिनचर्या में एक नया इन्द्रधनुष नहीं रचती ,
क्या इस देश की गलियां , मोहल्ले और दूर तक फैले छोटे - बड़े रास्ते तुम्हारी जिन्दगी की हर मंजिल को छूने का साधन नहीं बनते ,
क्या अम्मा - बाबा और उनसे जुड़े - अनजुड़े सारे रिश्ते तुम्हें जीने का मकसद नहीं देते ,
हाँ ! ये सब कुछ मिलता तो है मुझे इस माटी की भीनी - भीनी सुगंध में !
तो फिर तुम इसे जलाने की बात क्यों करते हो ?
क्यों बनते हो मोहरा उन नकाबपोश हैवानों का ,
जो करते हैं रश्क तुम्हारी मेहनतकश खुशनसीबी से ,
जो जोंक की तरह तुम्हारे हकों को अपनी सहूलियतों की जागिरों में सिमटाते आएं हैं ,
बोलो ! क्या न पूछूं मैं ये सारे सवाल तुम्हारी मासूमियत से ?
मत पूछो ! मत करो और अधिक शर्मिंदा मुझे ,
मैं खुद ही निपट लूँगा उन खुदगर्ज सफेद्पोश मक्कार रक्तखोरों की जिस्मफरोश हैवनीयत से ,
जिन्हें खून की खेती खूब रास आयी है ।
जिन्होनें मेरे सारे हक़ निचोड़ लिये हैं मेरे पसीने से ,
मुझे अजीज है मेरी इस नर्म मिट्टी की महकती महक ,
इसे ऐसे ही महकाने से महकता है मेरा वजूद ,
महकना और महकाना ,
यौवन सा सजना , वसंत सा गुनगुनाना ,
मुझे है बनाना जिन्दगी का आशियाना ।
सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
डी - 184 , श्याम पार्क एक्सटेंशन , साहिबाबाद ।
पिन : 201005 (ऊ.प्र.)