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कोई कभी नहीं जगा सकता

11 नवम्बर 2016

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ये जो प्रदूषण की बात करके

हम चिंतित होते हैं

तो क्या वाकई हम

बढ़ते प्रदूषण के कारण चिंतित होते हैं


ये जो महँगाई की बात करके

हम चिंतित होते हैं

तो क्या वाकई हम

कीमतों की मार से चिंतित होते हैं


और ऐसी चिंताएं हम तभी क्यों करते हैं

जब सबके साथ होते हैं

तब ऐसी ही चिंताएं संवाद बनती हैं

तब ऐसी चिंताएं पक्ष-विपक्ष तैयार करती हैं

तब थोडा सा वाक्-युद्ध भी होता है

तब पिछली सरकारों की कारगुजारियों का हिसाब होता है

और अंत में ये साबित हो ही जाता है

कि इन चिंताओं के अलावा कोई विकल्प नहीं है

इन सबसे बड़ा देश होता है

और देश जो भी कुर्बानी मांगे

सभी को हंस के कुरबान करना चाहिए...


जब खांटी अपनों के साथ होते हैं हम

जब अपनों के बीच होते हैं

तब चिंताएं विषय बदल कर आती हैं

और हम जातीय संकट पर बात करने लगते हैं

हम धार्मिक हस्तक्षेप से परेशान दीखते हैं

हम ऐतिहासिक भूलों को याद करते हैं

अपनी जातीय श्रेष्ठता और अपनों का वर्चस्व ही तो

हमारी मौलिक चिंताएं हैं भाई


और खुद पर हमला होने पर ही

एकजुट हो सकते हैं हम

लेकिन इतने रूप बदलते-बदलते

प्रतिरोध के शीघ्रपतन के रोगी क्या नहीं हो चुके हम

गुपचुप स्तंभक औषधि खाकर

किसी काल्पनिक क्रान्ति के स्वप्न-दृष्टा समाज को

कोई कवि नहीं जगा सकता

कोई कभी नही जगा सकता...

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हिसाब

27 अप्रैल 2016
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होशियार हुआ जाये कि बढ़ रही है अब इनमें आँखें तरेरने की हिम्मत सर उठाने की जुर्रत छनछनाकर झुंझलाने की हिमाकत या पैर पटककर चल देने की प्रयास नहीं है ये कोई छोटा-मोटा अपराध समय रहते किया जाए इलाज कि इतनी ढील का तो है ये नतीजा वरना कहाँ थी मजाल इन नमक-हरामों कीहमारे टुकड़ो

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हज़रत बाबाजी

29 अप्रैल 2016
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कम्पनी के काम से मुझे बिलासपुर जाना था। मेरे फोरमेन खेलावन ने बताया कि यदि आप बाई-रोड जा रहे हैं तो कटघोरा के पास एक स्थान है वहां ज़रूर जाएं। स्थान माने हाइवे से एक किलोमीटर पहले बाई तरफ जो सड़क निकली है, उस पर बस मुश्किल से दो किलोमीटर पर एक मज़ार है। मज़ार से ताल्लुक मुसलमानों की जियारत-गाह होती ह

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ये कौन है...

24 मई 2016
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ये है कौन जो बोल रहा हमारी बात और हम हैं कि खुश हो रहे तोड़ते नहीं मौन जबकि हमें बोलना चाहिए अपनी बात कि हम अपने प्रवक्ता खुद हैं फिर भी रहकर खामोश जोह रहे बाट कि कोई तो बोले हमारी बात कोई तो रक्खे हमारा पक्षये है कौनजिसकी बात सुन रहे हम होकर मौनबिना पलकें झपकाए टकटकी बांधे ताक रहे उसेजैसे हो कोई मसी

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अभी तो मुझे

5 जून 2016
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अभी तो मुझे दौड कर पार करनी है दूरियां अभी तो मुझे कूद कर फलांगना है पहाड़ अभी तो मुझे लपक कर तोडना है आम अभी तो मुझे जाग-जाग कर लिखना है महाकाव्य अभी तो मुझे दुखती लाल हुई आँख से पढनी है सैकड़ों किताबें अभी तो मुझे सूखे पत्तों की तरह लरज़ते दिल से करना है खूब-खूब प्या....र तुम निश्चिन्त रहो मेरे दोस्त

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कोई कभी नहीं जगा सकता

11 नवम्बर 2016
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ये जो प्रदूषण की बात करके हम चिंतित होते हैं तो क्या वाकई हम बढ़ते प्रदूषण के कारण चिंतित होते हैं ये जो महँगाई की बात करके हम चिंतित होते हैं तो क्या वाकई हम कीमतों की मार से चिंतित होते हैं और ऐसी चिंताएं हम तभी क्यों करते हैं जब सबके साथ होते हैं तब ऐसी ही च

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शाकिर उर्फ....

11 नवम्बर 2016
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एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर ही वह जनरल-बोगी के अंदर घुस पाया। थोड़ी भी कमी रहती तो बोगी से निकलते यात्री उसे वापस प्लेटफार्म पर ठेल देते। पूरी ईमानदारी से दम लगाने में वह हांफने लगा, लेकिन अभी जंग अधूरी ही है, जब तक बैठने का ठीहा न मिल जाए। बोगी ठसाठस भरी थी। साईड वाली दो सी

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सनूबर : एक

15 नवम्बर 2016
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(धारावाहिक उपन्यास : पहली किश्त)लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं कि फिर सनूबर का क्या हुआ... आपने उपन्यास लिखा और उसमें यूनुस को तो भरपूर जीवन दिया. यूनुस के अलावा सारे पात्रों के साथ भी कमोबेश न्याय किया. उनके जीवन संघर्ष को बखूबी दिखाया लेकिन उस खूबसूरत प्यारी सी किशोरी सनूबर के किस्से को अधबीच ही छोड़ दि

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मेरे दुःख की दवा करे कोई : एक अंश

15 दिसम्बर 2016
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''लड़के बड़े-बड़े रिस्क लेने लग जाते हैं। अकेले कहीं भी, किसी भी समय आ-जा सकते हैं। लेकिन जाने कैसे सलीमा ने जान लिया था कि लड़कों की श्रेष्ठता के पीछे कोई आसमानी-वजह नहीं है, क्योंकि जन्म से ही लड़कों को लड़कियों की तुलना में ज़्यादा प्यार-दुलार, पोषण शिक्षा, उचित देख-भाल, सहू

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कुछ नहीं बदला : सूरजप्रकाश राठौर

6 जनवरी 2017
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हाल ही मेंबोधि प्रकाशन से अनवर सुहैल का कविता संग्रह "कुछ भी नहीं बदला"प्रकाशित हुआ. यह पुस्तक विश्वास के दो दशक श्रृंखला की पांचवी कृति है. इस संग्रह में 86 कविताएं है .सुहैल जी ने इस संग्रह को फेसबुक के कविता प्रेमी मित्रों को समर्पित किया है.इसका मूल्य 120 रूपये है. यह

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अंतिम आदमी की पीड़ा : गणेश गनी

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पृथ्वी में छह सौ फुट भीतर बन रही कविता रोज ... कुछ भी नहीं बदला कविता संग्रह अनवर सुहैल का है और बोधि प्रकाशन ने इसे कुल्लू में मुझ तक पहुँचाया जिसके लिए मैं आभारी हूँ । यह किताब अनवर जी ने अपने फेसबुक मित्रों को समर्पित की है । कवितायेँ आमजन से जुड़ी होने के साथ साथ वर्तमान की विसंगतियों को भी बेबाक

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