ये जो प्रदूषण की बात करके
हम चिंतित होते हैं
तो क्या वाकई हम
बढ़ते प्रदूषण के कारण चिंतित होते हैं
ये जो महँगाई की बात करके
हम चिंतित होते हैं
तो क्या वाकई हम
कीमतों की मार से चिंतित होते हैं
और ऐसी चिंताएं हम तभी क्यों करते हैं
जब सबके साथ होते हैं
तब ऐसी ही चिंताएं संवाद बनती हैं
तब ऐसी चिंताएं पक्ष-विपक्ष तैयार करती हैं
तब थोडा सा वाक्-युद्ध भी होता है
तब पिछली सरकारों की कारगुजारियों का हिसाब होता है
और अंत में ये साबित हो ही जाता है
कि इन चिंताओं के अलावा कोई विकल्प नहीं है
इन सबसे बड़ा देश होता है
और देश जो भी कुर्बानी मांगे
सभी को हंस के कुरबान करना चाहिए...
जब खांटी अपनों के साथ होते हैं हम
जब अपनों के बीच होते हैं
तब चिंताएं विषय बदल कर आती हैं
और हम जातीय संकट पर बात करने लगते हैं
हम धार्मिक हस्तक्षेप से परेशान दीखते हैं
हम ऐतिहासिक भूलों को याद करते हैं
अपनी जातीय श्रेष्ठता और अपनों का वर्चस्व ही तो
हमारी मौलिक चिंताएं हैं भाई
और खुद पर हमला होने पर ही
एकजुट हो सकते हैं हम
लेकिन इतने रूप बदलते-बदलते
प्रतिरोध के शीघ्रपतन के रोगी क्या नहीं हो चुके हम
गुपचुप स्तंभक औषधि खाकर
किसी काल्पनिक क्रान्ति के स्वप्न-दृष्टा समाज को
कोई कवि नहीं जगा सकता
कोई कभी नही जगा सकता...