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कुछ नहीं बदला : सूरजप्रकाश राठौर

6 जनवरी 2017

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हाल ही मेंबोधि प्रकाशन से अनवर सुहैल का कविता संग्रह "कुछ भी नहीं बदला"प्रकाशित हुआ. यह पुस्तक विश्वास के दो दशक श्रृंखला की पांचवी कृति है. इस संग्रह में 86 कविताएं है .सुहैल जी ने इस संग्रह को फेसबुक के कविता प्रेमी मित्रों को समर्पित किया है.इसका मूल्य 120 रूपये है. यहां बाजार में स्त्री, मैं बाबा नागार्जुन को खोज रहा हूं, हम नहीं सुधरेंगे,तो कहां है बसंत, आभामंडल, दुख सहने में अभ्यस्त लोग, कैसे समझाए तुम्हें, मजदूर दिवस जैसी महत्वपूर्ण कविताओं के माध्यम से समय समाज, कवि की दृष्टि ,उनके मनोवि ज्ञान को समझा परखा जा सकता है. श्रम औऱ श्रमिकों के बीच बहुत समय गुजारने के कारण कवि उनके कष्टों से अवगत है.वे ,आमजन की पीड़ा पर सहानुभूति के मरहम लगाकर उन पर राजनीति करने वालों को भी पहचानते है (मजदूर दिवस)उन आफिसरों पर भी प्रकाश डालते है जो मजदूरों को ,अपने अधिनस्थों को आत्मरंजना के घूंट पिला पिला कर शोषण करते है औऱ प्रमोशन लेकर खिसक लेते है.(उसके कहने पर)मुसलमानों के प्रति जल्लादी सोच रखने वालों पर बड़ी सहजता से किंतु झुब्ध होकर लिखते है..ये तो अच्छा हुआ/तुम मियां नहीं हो/वरना ज्यादा देर नहीं लगता/हिसाब चुकता करने में....(भाग्य विधाता)इसी तरह(माफी मांगना होगा)अभिजातीय औऱ विनाशकारी, षणयंत्रकारी सोच रखने वाले कुकर्मियों पर कई कविताएँ लिखी गई है.मौत के सौदागरों पर(वर्दियां हथियार औऱ अमन चैन)(ओ तालिबान)माल्थस का भूत इत्यादि... माल्थस के भूत की निम्न पंक्ति कितनी चिंता पैदा करती है.देखिये एक जनप्रतिनिधि की सोच-..एक जान के पीछे पांचे लाख ना/कौन जेब से निकालकर देना होगा... भविष्य के प्रति आशा ली हुई कुछ कविताएं हैं. परिवर्तित होते विचार रखने वालों पर कुछ कविताएं है (कैसे समझाऐ तुम्हें,जनरेशन गैप,असमानता)कवि को,चिंता है कि आने वाली पीढी मानवीय औऱ नैतिक मूल्यों को कैसे संरक्षित रख पाऐंगीे,रख पाएंगी भी की नहीं... पिता की सीख, अम्मा का चश्मा, औऱ मतदाता जैसी कविताएं मनुष्य के ,कवि के भीतर की पूंजी है. मां के प्रति बहुत कुछ ना कर पाने की पीड़ा, जमाने को जानते हुए भी बच्चों को समझाने का यत्न, सब कुछ जानकर जनता को मत डालने ,देश द्रोहियो को जिताने औऱ खुद हार जाने का अफसोस.. इतनी बड़ी दुनिया में कवि के भीतर के मनुष्य को खोजना होता है ऐसे लोगों को जो हरखू लोहार, अध्ययन अध्यापन मे जी डाल देते शरमा जी को जानते हो ,समझते हो . कवि तथाकथित साहित्यकारों (खाए पीए अघाए)के बीच बाबा नागार्जुन जैसे चरित्रो को तलाशते है.दुखों के पत्ते, इत्यादि, वे लोग, यकीन, आमजन, जैसी कविताएं आम अवाम की जिन्दगी का फलसफा है.रातदिन हाड़मांस पेराने के बाद असल जीवन औऱ जगत से सदा उपेक्षित रह जाता है. हमारी आदत है यह कहने का कि वे सब दुख मे रहने को अभ्यस्त है..दुख में रहना मनुष्य की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है .कोई भी दुख के साथ जीवन निर्वहन नहीं करना चाहता भले ही वह जीवन का कितना ही बड़ा उपादान क्यों ना हो-जिंदगी के दरख्त पर/दुखों के पत्ते कितने ज्यादा/औऱ सुख के फूल कितने कम..(दुक्खों के पत्ते)लड़ भी तो नहीं सकते/भगा दिया गया तो/डूब जाएगी तीन माह की मजूरी..(मजदूर दिवस)औऱ मतदान के बाद/फिर हो जाता है वो/घूरे का घूरा/आधा अधूरा...(आमजन)हम नहीं सुधरेंगे,औऱ यकीन हम पर हजारों सालों से लादी गई ब्यबस्था की परिणति है हमे ं अपने कुएं के भीतर रहने हेतु हठ बना दिया है.हमें अपने कष्टों औऱ शोषणौ के साथ ही यह जीवन सरल लग रहा है रसासिक्त लग रहा है.कुछ भी नहीं बदला काव्य संग्रह का शीर्षक है.कवि इस माध्यम से समाज के सर्वहारा पर सामाजिक दबाव का चित्रण किया है.स्त्री देह स्त्री समाज के मूलभूत पीड़ा को अभिव्यक्ति देती है.स्त्री देह जहाँ सृजन का मूल स्त्रोत है वही स्त्री जीवन का अभिशाप भी. हमारा पुरूष वर्ग कमोबेश देह से आगे सोच नहीं पाता. उन्हें यह काम की मशीन मात्र दिखाई देता है... तुम्हारे साथ रहते हुए/हमें क्यों महसूस होता है/कि तुम मकान मालिक हो/औऱ हम अनुबंधित किरायेदार...(अल्प संख्या या स्त्री)कि वस्तु का कोई मन नहीं होता/कि पसंद का अधिकार/खरीददार की बपौती है/कि दुनिया एक बाजार ही तो है/फिर वस्तु की इच्छा अनिच्छा कैसी....(बाजार में स्त्री)सचमुच स्त्री को घर की मान मर्यादा मान कर उसे चहारदीवारी में कैद कर दिया गया. उसे स्वच्छंद जीवन से बिदार दिया गया. उसकी रक्षा न कर जिंदा जलाया गया. पूजा की सामग्री बना डाला. सभ्य होने के नाम पर बाजार के विग्यापन की वस्तु बना दी.समाज के अन्य पहलुओं में भी बदलाव नहीं आया जैसे अंधविश्वास, गुन्डागर्दी,हवस लालच नफरत.सारी चीजें हमारे भीतर से किंचीत भी कम नहीं हुआ. कवि गहरी सोच को कविता मे ढालते है.विषय केभीतर प्रवेश कर कठिनाइयों का बोध करते है.लोक की समस्या उनकी पीड़ा उन्हें सालती है.कोयला खदान के करमचारियों के बहाने उनके आपसी कार्यभेद को अनुभूत करते है.बेटियों के बहाने नए भविष्य, नए भारत, वर्गहीन समाज धरती पर उतार पाने के प्रति आशान्वित होते है कविता की कहन शैली संवाद की है. पाठक को पूछते औऱ बताते, राय मांगने की शैली है.पहाड़ ,पर्वत, चांद, तारे, समुद्र के बिम्बों का गुम्फन नहीं है.कहानियां गढ़कर विचार रखने का ग्यानवितरण भी नहीं हैं. सरल एवं छोटी छोटी पठनीय कविताएँ है.समाज के हेतु के लिए तपश्चर्या हेतु तहे दिल से कवि को आभार... सूरज प्रकाश

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हिसाब

27 अप्रैल 2016
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होशियार हुआ जाये कि बढ़ रही है अब इनमें आँखें तरेरने की हिम्मत सर उठाने की जुर्रत छनछनाकर झुंझलाने की हिमाकत या पैर पटककर चल देने की प्रयास नहीं है ये कोई छोटा-मोटा अपराध समय रहते किया जाए इलाज कि इतनी ढील का तो है ये नतीजा वरना कहाँ थी मजाल इन नमक-हरामों कीहमारे टुकड़ो

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हज़रत बाबाजी

29 अप्रैल 2016
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कम्पनी के काम से मुझे बिलासपुर जाना था। मेरे फोरमेन खेलावन ने बताया कि यदि आप बाई-रोड जा रहे हैं तो कटघोरा के पास एक स्थान है वहां ज़रूर जाएं। स्थान माने हाइवे से एक किलोमीटर पहले बाई तरफ जो सड़क निकली है, उस पर बस मुश्किल से दो किलोमीटर पर एक मज़ार है। मज़ार से ताल्लुक मुसलमानों की जियारत-गाह होती ह

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ये कौन है...

24 मई 2016
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ये है कौन जो बोल रहा हमारी बात और हम हैं कि खुश हो रहे तोड़ते नहीं मौन जबकि हमें बोलना चाहिए अपनी बात कि हम अपने प्रवक्ता खुद हैं फिर भी रहकर खामोश जोह रहे बाट कि कोई तो बोले हमारी बात कोई तो रक्खे हमारा पक्षये है कौनजिसकी बात सुन रहे हम होकर मौनबिना पलकें झपकाए टकटकी बांधे ताक रहे उसेजैसे हो कोई मसी

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अभी तो मुझे

5 जून 2016
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अभी तो मुझे दौड कर पार करनी है दूरियां अभी तो मुझे कूद कर फलांगना है पहाड़ अभी तो मुझे लपक कर तोडना है आम अभी तो मुझे जाग-जाग कर लिखना है महाकाव्य अभी तो मुझे दुखती लाल हुई आँख से पढनी है सैकड़ों किताबें अभी तो मुझे सूखे पत्तों की तरह लरज़ते दिल से करना है खूब-खूब प्या....र तुम निश्चिन्त रहो मेरे दोस्त

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कोई कभी नहीं जगा सकता

11 नवम्बर 2016
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ये जो प्रदूषण की बात करके हम चिंतित होते हैं तो क्या वाकई हम बढ़ते प्रदूषण के कारण चिंतित होते हैं ये जो महँगाई की बात करके हम चिंतित होते हैं तो क्या वाकई हम कीमतों की मार से चिंतित होते हैं और ऐसी चिंताएं हम तभी क्यों करते हैं जब सबके साथ होते हैं तब ऐसी ही च

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शाकिर उर्फ....

11 नवम्बर 2016
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एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर ही वह जनरल-बोगी के अंदर घुस पाया। थोड़ी भी कमी रहती तो बोगी से निकलते यात्री उसे वापस प्लेटफार्म पर ठेल देते। पूरी ईमानदारी से दम लगाने में वह हांफने लगा, लेकिन अभी जंग अधूरी ही है, जब तक बैठने का ठीहा न मिल जाए। बोगी ठसाठस भरी थी। साईड वाली दो सी

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सनूबर : एक

15 नवम्बर 2016
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(धारावाहिक उपन्यास : पहली किश्त)लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं कि फिर सनूबर का क्या हुआ... आपने उपन्यास लिखा और उसमें यूनुस को तो भरपूर जीवन दिया. यूनुस के अलावा सारे पात्रों के साथ भी कमोबेश न्याय किया. उनके जीवन संघर्ष को बखूबी दिखाया लेकिन उस खूबसूरत प्यारी सी किशोरी सनूबर के किस्से को अधबीच ही छोड़ दि

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मेरे दुःख की दवा करे कोई : एक अंश

15 दिसम्बर 2016
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''लड़के बड़े-बड़े रिस्क लेने लग जाते हैं। अकेले कहीं भी, किसी भी समय आ-जा सकते हैं। लेकिन जाने कैसे सलीमा ने जान लिया था कि लड़कों की श्रेष्ठता के पीछे कोई आसमानी-वजह नहीं है, क्योंकि जन्म से ही लड़कों को लड़कियों की तुलना में ज़्यादा प्यार-दुलार, पोषण शिक्षा, उचित देख-भाल, सहू

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कुछ नहीं बदला : सूरजप्रकाश राठौर

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हाल ही मेंबोधि प्रकाशन से अनवर सुहैल का कविता संग्रह "कुछ भी नहीं बदला"प्रकाशित हुआ. यह पुस्तक विश्वास के दो दशक श्रृंखला की पांचवी कृति है. इस संग्रह में 86 कविताएं है .सुहैल जी ने इस संग्रह को फेसबुक के कविता प्रेमी मित्रों को समर्पित किया है.इसका मूल्य 120 रूपये है. यह

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अंतिम आदमी की पीड़ा : गणेश गनी

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पृथ्वी में छह सौ फुट भीतर बन रही कविता रोज ... कुछ भी नहीं बदला कविता संग्रह अनवर सुहैल का है और बोधि प्रकाशन ने इसे कुल्लू में मुझ तक पहुँचाया जिसके लिए मैं आभारी हूँ । यह किताब अनवर जी ने अपने फेसबुक मित्रों को समर्पित की है । कवितायेँ आमजन से जुड़ी होने के साथ साथ वर्तमान की विसंगतियों को भी बेबाक

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