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हज़रत बाबाजी

29 अप्रैल 2016

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कम्पनी के काम से मुझे बिलासपुर जाना था। मेरे फोरमेन खेलावन ने बताया कि यदि आप बाई-रोड जा रहे हैं तो कटघोरा के पास एक स्थान है वहां ज़रूर जाएं। स्थान माने हाइवे से एक किलोमीटर पहले बाई तरफ जो सड़क निकली है, उस पर बस मुश्किल से दो किलोमीटर पर एक मज़ार है। मज़ार से ताल्लुक मुसलमानों की जियारत-गाह होती है, लेकिन खेलावन के कहे अनुसार उस मज़ार का मुख्य कर्ता-धर्ता एक हिन्दू अहीर है. उसे लोग हज़रत बाबाजी कहते हैं..कहते हैं कि उस अहीर यानी हज़रत बाबाजी पर पीर बाबा की सवारी आती है। ये सवारी आती है शुक्रवार को, इसलिए प्रत्येक शुक्रवार वहां दोपहर से रात तक मेला सा लगता है। अहीर पर पीर बाबा सवार होते हैं और लोगों की जिज्ञासाओं का जवाब देते हैं। हजरत बाबाजी के दर्शन और मज़ार पूजने के लिए सभी कौम, धर्म के आस्थावान लोग श्रद्धा से आते हैं और उनकी मुरादें पूरी भी होती हैं. हर साल वहां बड़ा भारी उर्स भी भरता है…छः दिनों का कार्यक्रम होता है. हज़ारों लोग डेरा डाले पड़े रहते हैं और हज़रत बाबाजी की दुआओं से बरकत पाते हैं… मेरा माथा ठनका. इस पिछड़े क्षेत्र में वैसे भी कई जागृत देवी-देवता मौजूद हैं. जादू-टोना, भूत-प्रेत और तंत्र-मन्त्र आदि से सरल निर्धन समाज प्रभावित रहता है. ऐसे में एक और नई आफत…हजरत बाबाजी और पीर-बाबा की मज़ार… मुझे भोले-भले लोगों की आस्था से खिलवाड़ करने वाले बाबाओं के बारे में खेलावन को एक भाषण देने का मन किया, लेकिन उस बेचारे की आस्था और विश्वास के कारण मैंने खेलावन फोरमेन से इतना ही कहा-‘‘अपने देश की यही तो विशेषता है भाई, नेता परेता, जात-पात के नाम पर लोगों को भड़काते हैं और इधर जनता है कि देखो कितनी घुली-मिली है। मुस्लिम मजार और हिन्दू पुरोहित…वाह…! खेलावन फोरमेन मेरी बात सुन कर खुश हुआ, बोला—‘‘साहब, पिछली दफा मैं वहां गया तो जानते हैं बड़ा चमत्कार हुआ। जैसे ही मैं वहां पहुंचा, हजरत बाबाजी पर पीर बाबा की सवारी आई हुई थी। भीड़ बहुत थी। मैंने सोचा कि इतनी भीड़ में दर्शन न हो पाएगा। लेकिन तभी पीर बाबा की सवारी बोली कि देखो तो कोतमा से कौन आया है? लोगों ने एक-दूसरे की तरफ देखना शुरू किया तब मैंने बाबा को बताया कि बाबा मैं हूं खेलावन, कोतमा से आया हूं। तब पीर बाबा ने मुझे अपने पास बुलाया और धूप-अगरबत्ती की भभूति मेरे गालों पर मल दी। मज़ार के बाहर जो अगरबत्तियां जलती हैं उनकी राख की भभूति ही बाबा का प्रसाद होता है साहब। हजरत बाबाजी सर्वग्य हैं…बताईए न उन्हें कैसे मालुम हुआ कि मैं कोतमा से आया हुआ हूँ? है न स्थान की महिमा! मैंने उसे बताया कि सम्भव हुआ तो ज़रूर वहां जाऊंगा।

मुझे वैसे भी मज़ारों में बड़ी रूचि है। इसलिए नहीं कि मुझे मज़ारों में श्रद्धा है, बल्कि इसलिए कि वहां आस्था, बाज़ार और अंधविश्वास के नए-नए रूप देखने को मिलते हैं। ये मज़ार न होते तो न होतीं इलायची दाना,रेवड़ी

की दुकानें। ये मज़ार न होते तो चादरों, फूलों और तस्बीह-मालाओं का कारोबार न चलता। ये मज़ार न होते तो कैसेट, इत्र, अगरबत्तियों के उद्योगों का क्या होता? ये मज़ार न होते तो क़व्वालिये बेकार हो गए होते?

ये मज़ार न होते तो श्रद्धालु इतनी गै़र-ज़रूरी यात्राएं न करते और बस-रेल में भीड़ न होती। ये मज़ार न होते तो लड़का पैदा करने की इच्छाएं दम तोड़ जातीं। ये मज़ार न होते तो जादू-टोने जैसे छुपे दुश्मनों से आदमी कैसे लड़ता? ये मज़ार न होते तो खिदमतगारों, भिखारियों, चोरों और बटमारों को अड्डा न मिलता? जाने कितने फरारी काटते अपराधी चोला बदल कर इन आस्था की दुकानों में जीवन गुजारते हैं. कटघोरा वाली मज़ार के बारे में जानकर लगा कि चलो देखा जाए क्योंकि कटघोरा में मेरा बचपन गुज़रा है। इसी बहाने पुरानी यादें ताज़ा हो जाएंगी। खेलावन फोरमेन ने मुझे रास्ते की बारीकियां समझाईं कि कहां तक पक्की रोड

है और कितनी दूर तक कच्ची सड़क है। मैंने सभी विवरण डायरी में नोट कर लिया।

मेरे अब्बू कटघोरा के हायर सेकण्डरी स्कूल में पढ़ाते थे। मैंने वहां मिडिल स्कूल तक की शिक्षा पाई थी। फिर अब्बू का तबादला खरसिया हो गया। मैंने रायपुर इंजीनियरिंग काॅलेज से मेकेनिकल इंजीनियरिंग की और कोयला खदान में इंजीनियर बन गया। प्रमोशन पाते-पाते सुपरिटेण्डेंट इंजीनियर हो गया हूं। कटघोरा में चूंकि हम सरकारी आवास में रहते थे, इसलिए वहां फिर जाना हो नहीं पाया था। अब्बू ने रिटायरमेंट के बाद रायपुर में मकान बना लिया सो कटघोरा से उनका भी कोई लिंक न रहा। अपनी कार चलाकर जब मैं कटघोरा के पास पहुंचा तो खेलावन फोरमैन की बात याद हो आई। मैंने सोचा कि पहले कटघोरा बस स्टेंड पहुंच कर चाय पी जाए फिर आगे की सोची जाएगी। वैसे भी बस-स्टेंड ही कटघोरा का हृदय-स्थल है। वहां की चहल-पहल से पुरानी यादें ताज़ा होंगी। बचपन में दोस्तों के साथ हम बस-स्टेंड आते थे। मैं बस-स्टेंड की किताबों की दुकान से पराग और नंदन जैसी बाल-पत्रिकाएं खरीदा करता था। इब्ने-सफी बीए की जासूसी-दुनिया, राजन-इकबाल सीरीज की एस सी बेदी के जासूसी उपन्यास मैं शिद्दत से पढ़ता था. अब कहाँ बच्चे किताबों के पीछे भागते हैं. कोर्स की किताबें ही उन्हें भारी लगती हैं. मेरी बिटिया ने कोर्स में लगी नोबेल साल भर में ख़तम की वो भी एग्जाम से एक दिन पहले…किश्तों में उसे साल भर पढ़ती रही और कोसती रही सिलेबस बनाने वालों को…कहती कि हेलेन केलर की आत्मकथा के स्थान पर हैरी पॉटर की किताब रहती तो कितना मज़ा आता…पढ़ते भी और मनोरंजन भी हो जाता… सरकारी आवास भी आगे सड़क के दोनों ओर थे। हमारा क्वार्टर सबसे आखिरी में था। अम्मी को बागवानी का शौक था इसलिए क्वार्टर के बगल में और पीछे नाले तक अब्बू ने तार से घेरा बनवा दिया था। स्कूल का चपरासी अम्मी की बागवानी में मदद किया करता था। अम्मी उस छोटे से किचन-गार्डन में लहसुन, हल्दी, पपीता, अमरूद और केला लगवाया करती थीं। साग, धनिया और पुदीना भी होता। गुलाब, लिली और सेवंती की क्यारियां देखने लायक हुआ करती थीं। सर्दियों के दिन थे।

कटघोरा बस-स्टेंड में काफी भीड़-भाड़ थी। लोग धूप तापते हुए बस का इंतज़ार कर रहे थे। कुछ बस आ रही थीं, कुछ जा रही थीं। कोने की चाय गुमटी के पास मैंने कार रोकी और एक कड़क चाय कम चीनी की बनाने का आर्डर दिया। पता नहीं क्यों मुझे अच्छे होटलों में बैठ कर चाय पीने में मज़ा क्यों नहीं आता? मुझे इसी तरह गुमटियों में चाय पीना बहुत अच्छा लगता है। दुकानदार ने ख़ास तवज्जो दी और तत्परता से एक कड़क चाय बनाकर पेश की। चाय की चुस्कियों के बीच मैं माहौल का जायज़ा लेने लगा। बस-स्टेंड पहले से काफी भरा-पूरा हो गया है। इतनी दुकानें पहले कहां थीं? रिक्शे की जगह ऑटो ने ले ली है। कई जगह मोबाइल कम्पनियों के ऊंचे-ऊंचे टॉवर दिखलाई पड़ रहे हैं। कच्चे मकानों की जगह पक्के भवनों ने ले ली है. डिश-एंटीना की छतरियां किसी सजावटी सामान सी घर की छतों में नज़र आ रही हैं. दुकानों की सजावट से लगता है कि इस जगह में भरपूर खरीददारी होती है. चाय पीकर मैंने सिगरेट सुलगाई और किताब की दुकान जा पहुंचा. इस किताब दुकान में एक काना मोटा आदमी हुआ करता था….श्रीवास्तव जी, जिन्हें हम ‘कनटेरा कहा करते थे. वो मेरे अब्बू को जानता था. अब्बू भी उसकी दुकान से गुलशन नंदा, अमृता प्रीतम, शिवानी की किताबें पढ़ने को ले जाते थे. अब दुकान का कायाकल्प हो चूका था…किताबों के अलावा वहां मोबाइल के सेट्स और अन्य असेसरी भी थी. ‘कनटेरा की जगह दुकान में एक लड़का बैठा हुआ मिला। पत्रिकाओं पर एक निगाह डालते हुए मैंने पूछा-‘‘हंस है क्या?

लड़का मोबाईल का ईयरफोन कान में ठूंसे कोई गीत सुन रहा था। मेरा प्रश्न सुनकर ज़ोर से बोला-‘‘नहीं, बिकता नहीं। इंडिया-टुडे ले लीजिए।

मैंने देखा कि वहां ‘वयस्कों के लिए शीर्षक लिए कई रंग-बिरंगी पत्रिकाएं प्रदर्शित थीं। एक तरफ बाबा रामदेव की किताबें और हनुमान चालीसा, गीता आदि अन्य धार्मिक किताबें थीं। मैंने सिगरेट खत्म की और कार स्टार्ट कर अपने उस क्वार्टर की तरफ कार मोड़ दी जहां मेरे बचपन के दिन गुज़रे थे। मेन रोड के किनारे हमारा आवास अब खण्डहर में तब्दील हो चुका था। लगता है कि अब सरकार ने नई जगह कॉलोनी बना ली है। आवास से लगा नाला अब दिखलाई नहीं देता। वहां कई अवैध मकानों की पौध उग आई है। तेजी से फैलते शहरीकरण का नमूना देख मेरा दिल भर आया। मैंने कार वापस बिलासपुर जाने वाली सड़क की तरफ मोड़ दी। मुझे मज़ार भी जाना था।

तिगड्डे पर आकर बिलासपुर जाने वाली सड़क पर कार दौड़ रही थी। खेलावन फोरमैन ने बताया था कि तिगड्डे से लगभग एक किलोमीटर बाद बाई तरफ एक सड़क कटती है। उस पर एक किलोमीटर जाना है और वहीं मज़ार है। मैंने इत्मीनान से कार चलाते हुए मज़ार तक का सफ़र तय किया। देखा कि एक गुम्बदनुमा इमारत तैयार हो रही है। हरे रंग का गुम्बद दूर से दिखता है। दिन के बारह बज रहे थे। मज़ार के आस-पास आठ-दस दुकानें थीं, जिनमें चादर, फूल और शीरनी बेची जाती है। मैंने कार एक किनारे खड़ी की, जेब से रूमाल निकाल कर सिर पर बांध लिया और एक दुकान के सामने जा खड़ा हुआ। इस बीच कई दुकानदारों ने मुझे अपनी ओर आवाज़ देकर बुलाना चाहा। मैंने कहा-‘‘कोई एक जगह ही जा पाऊंगा भाई!

दुकानदार एक दुबला-पतला वृद्ध था, जिसने हरे रंग का कुर्ता और सिर पर हरे रंग की टोपी पहन रखी थी।

उसने मुझे सलाम किया और कहा-‘‘जूते उतार कर अंदर चले जाइए, वज़ू बना लीजिए। मैंने जूते उतारे और अंदर चला गया। वहां एक कोने में नल लगा था और बैठकर वज़ू बनाने की व्यवस्था थी। वज़ू बनाकर मैंने दुकानदार से कहा-‘‘इक्यावन रुपए की चादर और शीरनी का जुगाड़ बना दें। दुकानदार ने प्लास्टिक की डलिया में एक हरे और लाल रंग की चादर रखी, इत्र, अगरबत्ती और रेवड़ी का पैकेट रखा। डलिया मैंने बड़ी श्रद्धा से सिर पर उठाई और मज़ार की तरफ चल पड़ा। कई भिखारी मेरी ओर लपके। उनसे बचते-बचाते गुम्बदनुमा मज़ार के अंदर मैं प्रवेश कर गया। इससे पहले मैं जिस मज़ार शरीफ़ में गया तो एक आध्यात्मिक शांति का

अनुभूति पाया था लेकिन उस मज़ार में मुझे ऐसा एकदम नहीं लगा कि किसी रूहानी जगह में दाखिल हो रहा हूं। हरा गुम्बद सिर पर सजाए वह एक बड़ा सा चैकोर कमरा था। सुनहरे रंग के बार्डर वाला एक खुशनुमा दरवाज़ा, जिसके बाहर दोनों तरफ लोग बैठे हुए थे। सुनहरे दरवाज़े पर अरबी में कलमा लिखा हुआ था।

‘लाइलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह’ मैंने बड़े अदब से दरवाज़े की चैखट का एक हाथ से बोसा लिया और डलिया सम्भाले मज़ार के अंदर दाखिल हुआ। मैंने मन ही मन मज़ार को सलाम किया-‘‘अस्सलामो अलैकुम या अहले कुबूर! फिर मैंने अंदर का जायज़ा लिया। वहां मैंने देखा कि हरा चोगा पहने एक आदमी मज़ार की तरफ मुंह किए कुछ बुदबुदा रहा है। उसकी पीठ मेरी तरफ थी। शायद वह फ़ातिहा पढ़ रहा था। मैं हरे चोगे वाले आदमी के सामने जा पहुंचा और बिना उसके चेहरे की तरफ देखे डलिया बढ़ाई, ताकि पहले मज़ार शरीफ़ का बोसा ले लूं। डलिया पकड़ाकर मैंने हरे चोगे वाले आदमी के चेहरे की तरफ देखा, मुझे शक्ल कुछ पहचानी सी लगी। अचानक मेरे ज़ेहन में अपने साथ मिडिल तक के पढ़े कल्लू उर्फ कलीम मुहम्मद की तस्वीर उभर आई। मैंने देखा कि हरे चोगे वाला आदमी भी मुझे इस नज़र से देख रहा है जैसे वह अतीत के चलचित्र में कुछ खोज रहा हो। मैं मुस्कुराया। हरे चोग़े वाला आदमी का चेहरा मेरी मुस्कान देख अचानक भावहीन हो गया। उसने चुपचाप डलिया ली। यंत्रवत डलिया में से हरी चादर निकाली और चादर मज़ार पर चढ़ाने लगा। मैंने भी चादर का एक कोना पकड़ कर चादर-पोशी में हिस्सा लिया। फिर उसने डलिया में से शीरनी का पैकेट निकाला, एक कोना फाड़ा और मज़ार के किनारे उसे रखा। इत्र की शीशी खोल इत्र को चादर पर छींट दिया और आंख बंद कर फ़ातिहा पढ़ने लगा। मैंने भी फ़ातिहा ख़्वानी के लिए हाथ उठा लिए। हरे चोगे वाला आदमी अब मुझे अच्छी तरह पहचान में आ गया। वह कल्लू ही था। मैंने चेहरे पर हाथ फेरते हुए मज़ार की परिक्रमा की और दान-पेटी में एक सौ रुपए का नोट डाला तो देखा कि हरे चोगे वाला आदमी मुझे देख रहा है। मैंने मज़ार की क़दमबोसी की और हरे चोगे वाले के पास पहुंचा। उसने मोरपंख के झाड़ू मेरी पीठ पर फेरी और मेरे कान के पास मुंह लाकर बुदबुदाया-‘‘जाइएगा नहीं, कुछ बात करनी है। मैंने हामी भरी और शीरनी लेकर मज़ार से बाहर निकल आया। तब तक जाने कहां से कुछ क़व्वाल आ गए थे। मैं क़व्वालों के पास बैठ गया और क़व्वाली का लुत्फ़ उठाने लगा।

‘भर दे झोली मेरी या मुहम्मद

लौट कर मैं न जाउंगा ख़ाली’

मैं क़व्वाली के बोल सुनते हुए हरे चोगे वाले मुजाबर यानी कल्लू उर्फ कलीम मोहम्मद वल्द मोहम्मद सलीम आतिशबाज़ की याद में खो गया।

इतवार का दिन था। सुबह के आठ बजे होंगे। तालाब सुनसान ही था। गांव के लोग और पशुओं के आने का अभी समय नहीं हुआ था। बारह वर्षीय नन्हा कल्लू निडर होकर उकड़ू बैठा खुरपी से मिट्टी खोद रहा था। वह काम के धुन में मगन था। वहीं छपाक् छपाक् मेंढक पानी और किनारे वाला कोई खेल खेलने में मशगूल थे, रहें अपनी बला से, नन्हे कल्लू की तन्द्रा इन छपाक् से भंग होने वाली नहीं है। उसने उस मिट्टी का ठिकाना जान लिया है जिससे वह कैसे भी आकार बना सकता था। जब कल्लू नन्हा सा बच्चा था तब वह अपनी अम्मी को रसोई में परेशान किया करता था। वह ज़माना गैस का नहीं था। लकड़ी से जलने वाला मिट्टी का दोमुंहा चूल्हा जलता और उसकी लाल आंच में खाना पकाती अम्मी की आकृति कल्लू को किसी परी सी लगती थी। लकड़ी की धीमी आंच में दाल पकती और रोटियां सिंकतीं। कल्लू दोनों तरफ कड़क सिंकी रोटी खाया करता था। तीन बहनों के बाद उसकी आमद हुई थी सो कल्लू का घर में बड़ा मान था। बहनें भी उसे प्यार किया करती थीं। अम्मी आटा गूंधना शुरू करतीं कि कल्लू उनके पास जा पहुंचता और बोलता-‘लोई से चिड़िया बना दो न अम्मी! या कि ‘चूहा बना दो न अम्मी! अम्मी बच्चे की जि़द को पूरा करती और थोड़े सा आटा लेकर कल्लू के लिए चिड़िया या चूहा बना देती। उसके बाद कल्लू उस आटे के खिलौने से खेलता।

कुछ देर बाद कल्लू आटे के खिलौनों को पुनः लोंदे की शक्ल दे देता और अपनी कल्पना-शक्ति से आम, केला या आदमी का मुंह बनाता। धीरे-धीरे वह हाथी बनाना सीख गया। हाथी बनाकर वह उसे चूल्हे के अंगार में पकाता और फिर स्याही से रंग कर देता। फिर दोस्तों को दिखाता-‘‘देखो देखो, नीला हाथी! वह जब भी अपने ननिहाल जाता तो नानी के घर के पास रहने वाले कुम्हारों के काम को घण्टों निहारा करता था। वह कुम्हार को मिट्टी बनाने की तैयारी करते देखता। वाकई बेदाग मुलायम चिकनी मिट्टी को घड़ा आदि बनाने के लिए तैयार करना काफी श्रमसाध्य कार्य था। जब गूंथी हुई मिट्टी का लोंदा घूमते चाक पर चढ़ता और कुम्हार के जादुई स्पर्श से घड़े की शक्ल में, या सुराही में बदलता तो नन्हा कल्लू अचंभित खड़ा देखता रहता। उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहता।

वह थोड़ा बड़ा हुआ तो काली मंदिर के पास बसे बंगाली कलाकारों के पास जाने लगा। वहां गणेश भगवान, दुर्गा मां, काली मां, सरस्वती, राक्षस और शेर आदि की मूर्तियां बनते देखा करता। किस तरह कलाकार खपच्चियों का ढांचा खड़ा करते हैं। फिर पुआल और सुतली की सहायता से विभिन्न आकार बनाते हैं कि ऐसा

आभास होता जैसे आदमी या जानवरों के कंकाल खड़े हों। कंकाल में मिट्टी का लेप चढ़ता तो बिना सिर की मूर्तियां बन जातीं। स्त्री शरीर, पुरूष शरीर और जानवरों के बिना सिर के जिस्म। कलाकारों के पास मुंह के अलग-अलग सांचे हुआ करते। किसी सांचे में देवी दुर्गा का मुंह बन जाता, किसी सांचे से भगवान राम की मुखाकृति। किसी सांचे से गणेश भगवान का चेहरा बनता और किसी सांचे से राक्षस के भयानक मुंह। शेर, मोर, चूहा, सांड़ के मुंह के सांचे भी यथावसर उपयोग किए जाते। कल्लू के इस मूर्ति प्रेम ने उसके जीवन में हलचल मचाई थी। वह बहुत बाद की बात है।

पाठशाला में हस्तशिल्प की परीक्षा के समय मिट्टी के खिलौने बना कर जमा करना होता था। कल्लू के खिलौने सभी खिलौनों से अलग होते। वह मिट्टी से सीताफल ऐसा बनाता कि असल का भ्रम होता। हां, उसके पास रंग न होते और वह स्याही से उसे रंगता। हरा की जगह नीला सीताफल। शिक्षक उसे हस्तशिल्प में पूरे नम्बर दिया करते। मिट्टी के केले बनाता तो उसमें पिसी हल्दी घोलकर रंग भरता। फिर कहता कि ये पके केले हैं। कल्लू स्कूल में होने वाले गणेशोत्सव के लिए इस बार स्वयं गणपति की मूर्ति बनाने के लिए परेशान था। स्कूल के तिवारी मास्साब उसे प्रोत्साहित कर रहे थे कि इस बार मूर्ति वही बनाए। बारह वर्षीय कल्लू उर्फ कलीम मोहम्मद आत्मज मोहम्मद सलीम आतिशबाज ने बड़ी लगन से गणपति बप्पा की दो बित्ते की मूर्ति बनाई। इसीलिए कल्लू सुबह-सुबह तालाब के किनारे बैठा मिट्टी इकट्ठा कर रहा था। वह मिट्टी स्कूल ले जाता। वहां ग्राउण्ड के किनारे प्राचार्य के आॅफिस के पीछे उसने अपना कार्यशाला बनाई थी। कल्लू ने सोचा कि दो दिन के अंदर मूर्ति तैयार करेगा। तिवारी मास्साब ने कल्लू की मदद के लिए शंकर चपरासी के लगाया था। शंकर ने कल्लू के लिए खच्चियां, पुआल और सुतली की व्यवस्था कर दी थी। हां, गणपति बप्पा के मुंह के लिए सांचा तो था नहीं। नन्हे कल्लू ने बिना सांचे के गणेश भगवान का चेहरा बनाने का निर्णय लिया था।

शंकर ने एक कैलेण्डर ला दिया था जिसमें गणपति की मनमोहक मुद्रा थी। कल्लू ने बड़ी तन्मयता से मूर्ति निर्माण का कार्य अंजाम दिया। शंकर के कहने पर कल्लू प्रतिदिन नहा कर आता ताकि मूर्ति निर्माण में पवित्रता बरकरार रहे। उसने खपच्चियों का ढांचा खड़ा किया। फिर पुआल और सुतली की सहायता से गणेश

जी का आकार बनाया। धीरे-धीरे उसने पुआल पर मिट्टी चढ़ाई और बिना सांचे की सहायता से गणेश भगवान की ऐसी प्रतिमा बनाई की देखने वाले देखते रह जाएं। तिवारी मास्साब बोलते-‘अद्भुत प्रतिभा है बालक में। मां सरस्वती का वरदान मिला है इसे। देखो तो कितनी जीवन्त प्रतिमा बना दी है इसने। वाकई हम बच्चों को बड़ा अजीब लगता कि कैसे हमारा एक हमउम्र इतनी सफाई और लगन से मूर्ति निर्माण के कार्य को अंजाम दे रहा है। तिवारी मास्साब ने शंकर से कल्लू के लिए रंगों की पुड़िया मंगवा दी। मूर्ति सूखी तो कल्लू ने रंग का लेप चढ़ाया। तिवारी मास्साब ने मूर्ति का श्रृंगार-आभूषण आदि मंगा दिया, कैलेण्डर को देख-देख कल्लू ने गणेश भगवान की मूर्ति का ऐसा श्रृंगार किया कि जो देखे दंग रह जाए। उसने मूर्ति के पास रखने के लिए एक छोटा सा चूहा भी बनाया, गणपति बप्पा की सवारी मूषक। फिर एक तख्ती पर उसने बड़ी स्टाइल से लिखा-

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभा

निर्विध्नं कुरूमे देव, सर्वकार्येषु सर्वदा

तिवारी मास्साब ने विद्यालय में उसी मूर्ति की स्थापना की और पूजन किया। यह बात उड़ते-उड़ते मुसलमानों की बस्ती में भी पहुंची। हम बच्चों को तो ख़ास मतलब न था, लेकिन सुनते हैं कि कल्लू के इस मूर्ति निर्माण ने उसके जीवन में कई तब्दीलियां लाईं। कल्लू के अब्बू मोहम्मद सलीम आतिशबाज की जमकर मज़म्मत की गई। उनसे कहा गया कि कल्लू को मस्जिद लाकर उससे सामूहिक रूप से माफी मंगवाई जाए और तौबा करवाई जाए। सलीम आतिशबाज बड़े अकड़ू किस्म के इंसान थे। थे भी पूरे सवा छः फुट के क़द के आदमी। कहते थे कि हिन्दुस्तानी मुसलमान तो हैं नहीं, उनके पूर्वज इराक से आए थे। वह स्वयं को इराकी कहा करते थे और नगर के मुसलमानों को नीची नज़र से देखते थे। कहते थे कि हुज़ूर ने कहा है कि हक़-हलाल की कमाई खाओ, मैं मेहनत करता हूं। आतिशबाजी का हुनर मुझे मेरे पूर्वजों से मिला

है, इसलिए इसमें लोगों को एतराज़ क्यों होता है? मैं कोई ब्याज के पैसे खाता नहीं, हरामकारी करता नहीं फिर मुझसे लोग चिढ़ते क्यों हैं? बेटे कल्लू के कारण हुई इस फजीहत से वह बेहद दुखी रहने लगे थे। उन्होंने कह दिया था कि उन्हें चाहे समाज से हटा दिया जाए, लेकिन बच्चे से वह माफी मंगवाने का काम नहीं करेंगे। कल्लू के अब्बू ने कल्लू की पिटाई की और उससे कहा कि वह भगवान या देवी-देवता की मूर्ति बनाना छोड़ दे। कल्लू मार खाता रहा और मन ही मन प्रण करता रहा कि वह मूर्ति बनाने का शौक पूरा करता रहेगा। इस मूर्तिकला के हुनर के कारण ही तो उसकी स्कूल में इज्जत है, शोहरत है और इसी से गुरूजन खुश रहते हैं।

मैंने देखा था कि उस घटना के बाद से कल्लू उदास रहने लगा था। कल्लू के परिवार का सुन्नी मुस्लिम कमेटी ने बहिष्कार कर दिया। अब उन्हें कोई अपने दुख-सुख में बुलाता न था। इसी दरमियान कल्लू के अब्बू मृत्यु हो गई। कल्लू यतीम हो गया। कल्लू की अम्मी ने सुन्नी मुस्लिम कमेटी के सदर, सेक्रेटरी और अन्य

पदाधिकारियों के आगे दुखड़ा रोया तब कहीं जाकर कमेटी ने निर्णय लिया कि चूंकि मरहूम मोहम्मद सलीम आतिशबाज कलमागो मुसलमान था, जुमा और ईद-बकरीद की नमाज़ अदा करता था, मस्जिद के लिए जो भी चंदा मुकर्रर किया जाता, वह अदा किया करता था, इसलिए उसके कफ़न-दफ़न और जनाजे की नमाज़ में कमेटी को शामिल होना चाहिए। और इस तरह मरहूम आतिशबाज मोहम्मद सलीम की मैयत में लोग इकट्ठा हुए और कफ़न-दफ़न हुआ। कुरआन-ख़्वानी हुई। दसवां-चहल्लुम की फ़ातेहा हुई। गरीबी की मार से कल्लू पढ़ाई छूट गई।

कल्लू की अम्मी चूंकि आतिशबाजी के काम में हाथ बंटाती थी,सो उसने कल्लू से कहा कि अब्बू का धंधा जिन्दा रखा जाए। कल्लू को तो मूर्तिकला से लगाव था। उसने बेमन से आतिशबाजी के काम को जारी रखा और साथ ही मूर्तिकला के हुनर में जी जान से जुट गया। हम कभी बिलासपुर जाने वाली सड़क की तरफ जाते तो बंगाली मूर्तिकारों के यहां कल्लू को काम करता पाते। फिर मेरे अब्बू का कटघोरा से स्थानान्तरण हो गया और उस जगह से हमारा सम्पर्क खतम हो गया। क़व्वाल गा रहे थे-

‘ज़माने में कहां टूटी हुई तस्वीर बनती है

तेरे दरबार में बिगड़ी हुई तक़दीर बनती है

सुनने वाले दस-बीस रुपए के नोट क़व्वाल की हारमोनियम पर रखते जाते। क़व्वाल हाथ के इशारे से उन्हें आदाब कहता और फिर रुपए की तरफ देखते हुए तान खींचता। तभी मैंने देखा कि कल्लू उर्फ कलीम हरा चोगे में मज़ार से बाहर आया। उसने मुझे इशारा किया और मैं उठ कर उसके पीछे हो लिया। हम मज़ार के पीछे की तरफ आए। यहां एक तरफ बड़े से चूल्हे में लंगर बन रहा था। चूल्हे की आंच से बचते हम एक कोठरी में घुसे। यहां ज़मीन पर सफेद गद्दा बिछा था और गाव-तकिए करीने से रखे हुए थे। कल्लू बैठ गया और मुझे बैठने का इशारा किया। मैं उसके नज़दीक बैठ गया। मैंने मुस्कुराकर उससे पूछा-‘‘ये कैसा रूप ले लिया भाई?

कल्लू के माथे पर चिंता की लकीरें थीं-‘‘क्या करता। इन कठमुल्लों को सबक़ सिखाने का इसके अलावा मेरे पास कोई रास्ता नहीं था।

‘‘कैसे? मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी।

‘‘अब्बू की मौत के बाद अम्मी भी ज्यादा दिन जिन्दा नहीं रहीं। उनकी मौत पर फिर एक बार कमेटी वालों ने नौटंकी की। मेरे गिड़गिड़ाने पर वे कफ़न-दफ़न को राज़ी हुए।

‘‘तुमने मूर्ति बनाने का काम क्या तब भी जारी रखा?

‘‘हां, बंगाली आर्टिस्टों के साथ मैंने खूब काम किया। बंगाली की बेटी से मुझे मुहब्बत हो गई। बंगाली उससे मेरी शादी के लिए तैयार हो गया। उसने अपनी बेटी के धर्म बदलने के मामले में भी सहमति दे दी। मैं कमेटी वालों के पास गया कि मेरा निकाह हो जाए, कमेटी वालों ने मेरी कोई मदद न की। वे मुझे ‘काफ़िर कहने लगे। कल्लू की आंखें भर आई थीं। मैं चुपचाप उसकी जीवन-गाथा सुन रहा था। आंखें पोंछ कर उसने बताया-‘‘मैंने अल्लाह और रसूल को हाज़िर-नाज़िर मानकर अपना निकाह खुद किया। मैंने अपनी बीवी का नाम सायरा रखा। पहले उसका नाम श्रेया था। उसने मुंह पीछे की तरफ करके आवाज़ दी-‘‘सायरा! चंद लम्हे बाद सलवार-सूट में एक औरत ने परदे के पीछे से झलक दिखलाई। वह एक सांवले चेहरे और बड़ी-बड़ी आंखों वाली स्त्री थी। मैंने कल्लू के पसंद की मन ही मन तारीफ़ की। कल्लू ने स्त्री से कहा-‘‘मेरे बचपन के दोस्त हैं ये!सायरा ने सलाम किया। मैंने जवाब दिया-‘‘वा अलैकुम अस्सलामु!

कल्लू ने कहा-‘‘चाय तो पिलाईए इन्हें!

सायरा चली गई और कल्लू ने अपने बयान को अंजाम तक पहुंचाया-‘‘मैं शादी के बाद घूमने निकल गया। मैंने कई मज़ारों की सैर की। सभी जगह मैंने पाया कि वहां इस्लाम की रौशनी नदारद थी। था सिर्फ और सिर्फ अक़ीदतमंदों की भावनाओं से खेल कर पैसे कमाना। मैं तो सिर्फ मूर्ति बनाया करता था। उसे पूजता तो न था। लेकिन इन जगहों पर मैंने देखा कि एक तरह से मूर्तिपूजा ही तो हो रही है। तभी मेरे दिमाग में ये विचार आया कि मैं भी पाखण्ड करके देखता हूं। लौट कर जब कटघोरा आया तो मैंने नगर के बाहर इस स्थान पर बैठना शुरू किया। हरा चोगा धारण कर लिया। ज़मादारों का मुहल्ला लगा हुआ है। वहां की औरतें मेरे पास आने लगीं और बच्चों की नज़र उतरवाने लगीं। मैं कुछ नहीं करता। बस अगरबत्ती की राख उन बच्चों के गाल पर लगा देता। उन्हें यक़ीन हो जाता और मज़े की बात ये है कि बच्चे ठीक भी हो जाते। उन्हीं

लोगों ने चंदा इकट्ठा करके मेरे लिए एक कोठरी बना दी। सायरा मेरे पास आकर रहने लगी। फिर मैंने जुमा की एक शाम घोषणा कर दी कि मुझे रात ख़्वाब में पीर बाबा आए और बताया कि बच्चा इसी जगह मेरी मज़ार बनाओ। मेरी बात जंगल में आग की तरह फैली और सुन्नी कमेटी वालों ने आनन-फानन चंदा इकट्ठा करना शुरू कर दिया। मैं जहां बैठता था उसी से लगी थी कमेटी के सदर की ज़मीन। उन्होंने सोचा कि मज़ार बनने से उनकी ज़मीन का रेट बढ़ेगा और उनका रोज़गार भी फैलेगा। हुआ वही। जो कमेटी मेरी दुश्मन थी, उसने मुझे मज़ार का मुजाबर बना दिया।

मुझे हंसी आ गई-‘‘और ये हिन्दू अहीर वाली बात!

कल्लू मुस्कुराया-‘‘ये अहीर ससुरा…मोटे दिमाग का आदमी…एकदम बेरोजगार था. अक्सर मेरे पास आकर बैठता। गांजा पीता। फिर कभी कभी झूमने लगता। मैंने कहा कि इस पर पीर बाबा की सवारी आती है। उसका भी रोजगार चल निकला। इस तरह यहां अब हिन्दू और मुसलमान दोनों आकर मन्नतें मांगते हैं और बड़े आराम से हमारी रोजी-रोटी चलती है। गहरी सांस लेकर कल्लू ने अपनी बात पूरी की—आसपास के बनिया-व्यापारी भी खुशहाल हो गए हैं अब…सभी दुआएं देते हैं और चाहते हैं कि मैं और हजरत

बाबाजी इसी तरह आबाद रहें तो यह क्षेत्र धन-धान्य से मालामाल होता रहेगा…!” कल्लू ने ये भी बताया कि राज्य के एक मंत्री भी मनोकामना पूर्ति के लिए इस मज़ार में हर साल आते हैं…मंत्री जी ने ही बाहर हाल और चार कमरे बनवाये, हैण्ड-पंप लगवाया ताकि श्रद्धालुओं को दिक्कत न हो… मैं कल्लू के इस कायांतरण को सलाम करते वहां से विदा हुआ…


अनवर सुहैल 

आलोक सिन्हा

आलोक सिन्हा

आदरणीय सुहेल जी , यही सच्चाई है हर धर्म की | सच बहुत ईमानदारी से सब कुछ लिखा है आपने |

15 मई 2016

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हिसाब

27 अप्रैल 2016
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होशियार हुआ जाये कि बढ़ रही है अब इनमें आँखें तरेरने की हिम्मत सर उठाने की जुर्रत छनछनाकर झुंझलाने की हिमाकत या पैर पटककर चल देने की प्रयास नहीं है ये कोई छोटा-मोटा अपराध समय रहते किया जाए इलाज कि इतनी ढील का तो है ये नतीजा वरना कहाँ थी मजाल इन नमक-हरामों कीहमारे टुकड़ो

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हज़रत बाबाजी

29 अप्रैल 2016
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कम्पनी के काम से मुझे बिलासपुर जाना था। मेरे फोरमेन खेलावन ने बताया कि यदि आप बाई-रोड जा रहे हैं तो कटघोरा के पास एक स्थान है वहां ज़रूर जाएं। स्थान माने हाइवे से एक किलोमीटर पहले बाई तरफ जो सड़क निकली है, उस पर बस मुश्किल से दो किलोमीटर पर एक मज़ार है। मज़ार से ताल्लुक मुसलमानों की जियारत-गाह होती ह

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ये कौन है...

24 मई 2016
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ये है कौन जो बोल रहा हमारी बात और हम हैं कि खुश हो रहे तोड़ते नहीं मौन जबकि हमें बोलना चाहिए अपनी बात कि हम अपने प्रवक्ता खुद हैं फिर भी रहकर खामोश जोह रहे बाट कि कोई तो बोले हमारी बात कोई तो रक्खे हमारा पक्षये है कौनजिसकी बात सुन रहे हम होकर मौनबिना पलकें झपकाए टकटकी बांधे ताक रहे उसेजैसे हो कोई मसी

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अभी तो मुझे

5 जून 2016
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अभी तो मुझे दौड कर पार करनी है दूरियां अभी तो मुझे कूद कर फलांगना है पहाड़ अभी तो मुझे लपक कर तोडना है आम अभी तो मुझे जाग-जाग कर लिखना है महाकाव्य अभी तो मुझे दुखती लाल हुई आँख से पढनी है सैकड़ों किताबें अभी तो मुझे सूखे पत्तों की तरह लरज़ते दिल से करना है खूब-खूब प्या....र तुम निश्चिन्त रहो मेरे दोस्त

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कोई कभी नहीं जगा सकता

11 नवम्बर 2016
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ये जो प्रदूषण की बात करके हम चिंतित होते हैं तो क्या वाकई हम बढ़ते प्रदूषण के कारण चिंतित होते हैं ये जो महँगाई की बात करके हम चिंतित होते हैं तो क्या वाकई हम कीमतों की मार से चिंतित होते हैं और ऐसी चिंताएं हम तभी क्यों करते हैं जब सबके साथ होते हैं तब ऐसी ही च

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शाकिर उर्फ....

11 नवम्बर 2016
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एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर ही वह जनरल-बोगी के अंदर घुस पाया। थोड़ी भी कमी रहती तो बोगी से निकलते यात्री उसे वापस प्लेटफार्म पर ठेल देते। पूरी ईमानदारी से दम लगाने में वह हांफने लगा, लेकिन अभी जंग अधूरी ही है, जब तक बैठने का ठीहा न मिल जाए। बोगी ठसाठस भरी थी। साईड वाली दो सी

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(धारावाहिक उपन्यास : पहली किश्त)लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं कि फिर सनूबर का क्या हुआ... आपने उपन्यास लिखा और उसमें यूनुस को तो भरपूर जीवन दिया. यूनुस के अलावा सारे पात्रों के साथ भी कमोबेश न्याय किया. उनके जीवन संघर्ष को बखूबी दिखाया लेकिन उस खूबसूरत प्यारी सी किशोरी सनूबर के किस्से को अधबीच ही छोड़ दि

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मेरे दुःख की दवा करे कोई : एक अंश

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''लड़के बड़े-बड़े रिस्क लेने लग जाते हैं। अकेले कहीं भी, किसी भी समय आ-जा सकते हैं। लेकिन जाने कैसे सलीमा ने जान लिया था कि लड़कों की श्रेष्ठता के पीछे कोई आसमानी-वजह नहीं है, क्योंकि जन्म से ही लड़कों को लड़कियों की तुलना में ज़्यादा प्यार-दुलार, पोषण शिक्षा, उचित देख-भाल, सहू

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कुछ नहीं बदला : सूरजप्रकाश राठौर

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हाल ही मेंबोधि प्रकाशन से अनवर सुहैल का कविता संग्रह "कुछ भी नहीं बदला"प्रकाशित हुआ. यह पुस्तक विश्वास के दो दशक श्रृंखला की पांचवी कृति है. इस संग्रह में 86 कविताएं है .सुहैल जी ने इस संग्रह को फेसबुक के कविता प्रेमी मित्रों को समर्पित किया है.इसका मूल्य 120 रूपये है. यह

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अंतिम आदमी की पीड़ा : गणेश गनी

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पृथ्वी में छह सौ फुट भीतर बन रही कविता रोज ... कुछ भी नहीं बदला कविता संग्रह अनवर सुहैल का है और बोधि प्रकाशन ने इसे कुल्लू में मुझ तक पहुँचाया जिसके लिए मैं आभारी हूँ । यह किताब अनवर जी ने अपने फेसबुक मित्रों को समर्पित की है । कवितायेँ आमजन से जुड़ी होने के साथ साथ वर्तमान की विसंगतियों को भी बेबाक

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