''लड़के बड़े-बड़े रिस्क लेने लग जाते हैं। अकेले कहीं भी, किसी भी समय आ-जा सकते हैं। लेकिन जाने कैसे सलीमा ने जान लिया था कि लड़कों की श्रेष्ठता के पीछे कोई आसमानी-वजह नहीं है, क्योंकि जन्म से ही लड़कों को लड़कियों की तुलना में ज़्यादा प्यार-दुलार, पोषण शिक्षा, उचित देख-भाल, सहूलियतें और आज़ादी मिलती है। लड़के पूरे परिवार की आँख का तारा होते हैं और लड़कियाँ आँख का कीचड़ या किरकिरी! इसीलिए तो लड़कों में आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा रहता है। बचपन में भकुआए से भोंदू दिखने वाले लड़के बड़े होकर कितनी जल्द परिवार और समाज पर राज करना सीख जाते हैं। जबकि परिवार की ज़िम्मेदारियाँ उठाती वाचाल लड़कियाँ बड़ी होकर काँच के बर्तन की तरह हो जाती हैं, जिन्हें बड़ी होशियारी से इस्तेमाल न किया तो टूट जाने का अंदेशा बना रहता है। डरी-डरी, खामोश, सकुचाई लड़कियों से संसार अटा पड़ा है। बहुत कम लड़कियाँ हैं जो पुरुष-प्रधान समाज में अपने अस्तित्व की लड़ाई स्वयं लड़ती हैं। सलीमा के बस एक बात समझ न आती कि ऐसी कौन-सी चीज़ है इज़्ज़त जिसे खोने का डर लड़कियों में आजन्म बना रहता है और लड़कों के साथ इज़्ज़त जैसी कोई शर्त या बाध्यता नहीं रहती। भले से संविधान और सांसद स्त्रिायांे को अकूत अधिकार दे दे लेकिन स्त्रिायाँ पुरुषों के मार्फत ही उन सुविधाओं का लाभ उठा पाती हैं। सलीमा ने अपने अनुभवों से जान लिया था कि ये संसार एक प्रयोगशाला है, जहाँ इंसान ग़लतियाँ कर-करके सीखता है, क्योंकि जीना एक कला है और वि ज्ञान भी। सलीमा जानती है कि अच्छे-अच्छे तुर्रम ख़ाँ, भूख और ग़रीबी के आगे मात खा जाते हैं। अच्छे-अच्छे विवेकवान, समर्थ और योग्य दिग्गज समय की ठोकरें खा-खाकर धूल-धूसरित हो जाते हैं। किस्मत के मारे ऐसे लोग नैतिक-अनैतिक, हराम-हलाल, पाप- पुण्य और स्वर्ग-नर्क के चक्कर में नहीं फँसते। वे अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए कुछ भी कर गुज़रने का जज़्बा रखते हैं। उनके कार्य को तथाकथित सभ्य समाज चाहे अपराध की संज्ञा दे या पाप की, उन्हें फर्क नहीं पड़ता। ऐसा मुसीबतज़दा इंसान ये नहीं सोचता कि उसके हिस्से में आई रोटी, हराम की कमाई है या हलाल की। ऐसा इंसान ये नहीं सोचता कि वह अच्छा या बुरा जो भी कर रहा है उसे कोई देखे या न देखे, अल्ला देख रहा है। अल्लाह देख के भी तत्काल क्या करेगा, वो तो जो भी करेगा इंसान की मौत के बाद ही। इस पृथ्वी पर अधिकांश लोगों का जीवन इतना कठिन है कि उन्हें ज़िन्दगी पास नहीं बुलाती और मौत दुत्कारती रहती है। ऐसे लोग मारने से नहीं डरते, स्वर्ग की लालच नहीं करते और हर तरह के नरक को ठेंगे पर रखते हैं। वे जानते हैं कि ये जून किसी तरह गुज़र जाए! किसी तरह जीवन का एक-एक दिन काटा जाए... वे ये भी जानते हैं कि ‘फिर क्या होगा, किसको पता अभी ज़िन्दगी का ले लो मज़ा’। वे जानते हैं कि मारने के तत्काल बाद स्वर्ग-नर्क का निर्णय नहीं होता। इस्लामी मान्यता है कि मुर्दा दफ़न होने के बाद क़ब्र में क़यामत आने तक पड़ा रहता है। कुरान- शरीफ़ में अल्लाह ने कहा है कि हमने एक फरिश्ता जिसका नाम हज़रत इस्राफील है, जिसके हाथ में सूर यानी शंख है। इस फरिश्ता हज़रत इस्राफील की ड्यूटी है कि हाथ में शंख लिए खड़े रहें। जब अल्लाह तआला उहें कहेगा कि शंख फूंक दो, तब हज़रत इस्राफील सूर फूंकेंगे और तत्काल सारी कायनात में कयामत आ जाएगी। सूरज धरती के क़रीब आ जाएगा। समुद्र का पानी भाप बन कर उड़ जाएगा। पहाड धूल बन कर उडने लगेंगे। चरिन्द-परिन्द सब नष्ट हो जाएंगे। जब सब कुछ ख़त्म हो जाएगा, तब अल्लाह तआला एक बहुत विशाल मैदान म,ें जिसे हश्र का मैदान कहते हैं, सारे मुर्दों को इकट्ठा होने का हुक्म देगा। वहाँ फरिश्ते लोगों के पाप-पुण्य का हिसाब करेंगे। तभी अल्लाह तआला का हुक्म होगा कि फलां शख़्स जन्नत का हक़दार है या निरा दोज़ख़ी है। वैसे भी हाफिज, मैलाना अपनी तकरीरों में जिस दोज़ख़ यानी नरक का ज़िक्र करते हैं, वो कितना भी यातना देने वाला क्यों न हो, इस संसार की भट्टी में तपते उनके जीवन से तो कम ही भयावह होगा। अभाव, निर्धनता, भुखमरी से जूझता उनका जीवन किसी नरक से कम तो नहीं... ग़रीब का जीवन उस गर्म तवे की तरह होता है जिसमें सुविधाओं की बूंदें पड़ती हैं तो छन्न से भाप बन कर उड़ जाती हैं। इन्हीं घनघोर अभावों से दो-चार होती सलीमा कब सयानी हो गई, वह जान न पाई। उसे हालात ने सयाना कर दिया था। वह अभी दस साल की ही थी कि उसकी अम्मी घर छोड़कर चली गई। अब्बू उस सदमे को झेल न पाए और नीम-पागल हो गए। यदि दारू का सहारा न होता तो कब के मर-बिला गए होते अब्बू। सलीमा अपने अम्मी-अब्बू की पहली संतान थी यानी घर बड़ी लड़की। सलीमा के बाद दो बेटियाँ और इस संसार में आईं, सुरैया और रूकैया। पहलौटी यदि बेटी हो तो गृहस्वामिनी को अगले प्रसव और अगले बच्चे को देखभाल के लिए आॅटोमेटिकली एक आया मिल जाती है। बड़ी बेटी जल्द ही इतनी समझदार हो जाती है कि अपने से छोटे भाई-बहिनों का माँ की तरह ध्यान रखना सीख जाती है। सलीमा ने अपने बिखरे परिवार को समेटने का अद्भुत प्रयास किया।''
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