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मैं "आकाश" में "शब्द" हूॅं

3 नवम्बर 2021

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रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।

प्रणवः   सर्ववेदेषु   शब्दः  स्वे  पौरुषं  नृषु   ।।

हे कौन्तेय! जल में मैं रस हूँ। चन्द्रमा और सूर्य में मैं प्रकाश हूँ। समस्त वेदों में मैं ओंकार हूँ। आकाश में उसका सारभूत शब्द हूँ, अर्थात् उस शब्दरुप मुझ ईश्वर में आकाश पिरोया हुआ है। तथा पुरुषों में मैं पौरुष हूँ।

(श्रीमद्भगवद्गीता ; अध्याय - ७, श्लोक - ८)

एक तथाकथित धर्म-गुरु का कथन है, "हम यह जानते हैं कि हमारा शरीर पाँच तत्त्वों से मिलकर बना है। इन तत्त्वों में से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के हम अनुभव कर सकते हैं, लेकिन आकाश हमारे अनुभव से परे है"।

एक छोटा बच्चा हमसे प्रश्न करता है - आकाश कहाँ है? हम उँगली से ऊपर की ओर इशारा करते हुए उत्तर देते हैं - जो नीले रंग का दिख रहा है वही आकाश है। एक शायर लिखता है - "कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं होता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों". एक मशहूर अभिनेता इस शेर से अत्यंत प्रभावित होता है और मंच पर अपने प्रशंसकों को सुनाता है और ढेर सारी तालियाँ बटोरता है।

आकाश में अवकाश (Vacuum) से वायु, वायु के घर्षण से अग्नि, अग्नि के पसीने से जल और जल के मैल से पृथ्वी की उत्पत्ति है। गंध, रस, रुप, स्पर्श और शब्द क्रमशः पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के गुण हैं। इन पाँचों गुणों को व्यक्त करनेवाली पाँच ज्ञानेन्द्रियों नाक (गंध), जीभ (रस), आँख (रुप), त्वचा (स्पर्श) और कान (शब्द) की हमारे शरीर में उत्पत्ति हुई है।

शास्त्र के अनुसार, "उस पुरुष ने सबसे पहले शब्दगुणविशिष्ट आकाश को रचा, फिर निजगुण स्पर्श और शब्दगुण से युक्त होने के कारण दो गुण वाले वायु को, तदनन्तर स्वकीय गुण रुप और पहले दो गुण शब्द-स्पर्श से युक्त तीन गुणवाले तेज को, तथा अपने असाधारण गुण रस के सहित पूर्वगुणों के अनुप्रवेश से चार गुणवाले जल को और गंधगुण के सहित पूर्वगुणों के अनुप्रवेश से पाँच गुणों वाली पृथ्वी को रचा"।

आकाश के अतिरिक्त वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में भी आकाश के गुण - शब्द का अनुप्रवेश है। बिना आकाश नामवाले तत्त्व की उपस्थिति के उसके गुण - शब्द का अनुप्रवेश संभव नहीं है। अतः आकाश नामवाला तत्त्व सर्वत्र स्थित है। अतः वह ऊपर दिखाई देनेवाला नीला आकाश अभी यहाँ स्थित है! एक पत्थर ऊपर उछाल कर आसमान में सुराख करने के लिए प्रवृत होने की आवश्यकता ही नहीं है। हमारे चलते-फिरते, उठते-बैठते हर क्षण आसमान में असंख्य सुराख तो सहज ही बन रहे हैं।

एक बच्चे के जन्मदिन का उत्सव चल रहा है। केक कट रहा है, तभी बच्चे के पिता के चार्ज में लगे मोबाईल की घंटी बजी। तीन-चार बार घंटी बज गई। केक कटने से लेकर गाने-बजाने, नाचने तक लगभग एक घंटा बीत गया। तभी बच्चे के पिता को याद आया - फोन की घंटी बज रही थी। उसने फोन हाँथ में लिया - बहन के दस मिस्ड काल और एक संदेश। संदेश था "Papa is no more". उसका समूचा शरीर शिथिल पड़ गया। अपने आँसुओं को रोक पाने में असमर्थ - फफक कर रो पड़ा। क्षणभर में उत्सव मातम में बदल गया। मात्र चार शब्दों ने क्षण भर में केवल सिर से पाँव तक पूरे शरीर, मन और भाव को ही परिवर्तित नहीं किया बल्कि समूचे माहौल पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा।

एक मोबाईल फोन से प्रेषित संवाद/संदेश - शब्द, तस्वीर, प्रतीक, इत्यादि आकाश के माध्यम से ही दूसरे मोबाईल फोन पर प्राप्त होता है। किसी भी रूप में - एक अक्षर, कुछ अक्षरों से बना शब्द या कुछ शब्दों से बना एक या एक से अधिक वाक्य हो, सभी आकाश नाम वाले तत्त्व में ही प्रकाशित होते हैं। आकाश - इंटरनेट और वाई-फाई का आश्रय है। ये आकाश नामक तत्त्व के ही माध्यम से सक्रिय हैं। दुनिया का सबसे महान् और मौन समाज सेवक Google इसी तत्त्व आकाश का सदुपयोग करके हम सब की निःस्वार्थ सेवा में तत्पर है।

आकाश और उसका गुण शब्द, हमारे समस्त कर्मों का आरंभ है। विद्यार्थी के कान नामक ज्ञानेन्द्रिय में शिक्षक द्वारा प्रेषित शब्द प्रकाशित होते हैं। उन शब्दों को मन लयबद्ध करके बुद्धि को प्रेषित करता है। बुद्धि द्वारा निश्चय होता है अर्थात् वह विषय ज्ञात हो जाता है। आवश्यकतानुसार, वाणी नामक कर्मेंद्रिय पुनः शब्दों के रुप में (आकाश के माध्यम से) विद्यार्थी द्वारा ज्ञात विषय को अन्य व्यक्ति/व्यक्तियों को प्रेषित करता है। किसी भी विषय का ज्ञान होने के बाद ही हम कर्म करने के लिए प्रवृत होते हैं।

शब्दगुण विशिष्ट आकाश अन्य चारों तत्त्वों पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु की दिशा पलट देने में समर्थ है। भगवान् कह रहे हैं, "मैं आकाश में उसका सारभूत शब्द हूँ, अर्थात् उस शब्दरुप मुझ ईश्वर में आकाश पिरोया हुआ है".

क्या आकाश हमारे अनुभव से परे है ?? स्वयं विचार करें।

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