ये मेरी कहानी है। कहानी 32 बरसों की। यूं तो मैं कोई बहुत बड़ा पत्रकार नहीं रहा। मगर मैंने जो भी काम किया शानदार किया। मैं अपने काम से पूरी तरह संतुष्ट हूं। एक्सक्लुसिव खबरें लिखने में यानि सनसनीखेज खबरें ढूंढ कर लाने में हमेशा मैं सबसे आगे रहा। कम से कम मोहाली और चंडीगढ़ की रिपोर्टिंग के दौरान तो ऐसा ही रहा। एक एक बाईलाइन यानि खबर के साथ अपना नाम देखने के लिए की गई मेहनत को कुछ पन्नों में समेट पाना आसान नहीं है। उन दिनों एक बाई लाइन का नशा ऐसा था कि चालीस से पचास किलोमीटर स्कूटर चलाना जैसे कोई मायने ही नहीं रखता था। खाना मिला तो ठीक नहीं मिला तो ठीक। नींद पूरी हुई तो ठीक नहीं सो सके तो ठीक। आजकल के बच्चों के पास तो टैबलेट हैं, मोबाइल हैं, लैपटॉप हैं। रिपोर्टर स्पॉट से ही खबरें बना कर और फोटो खींच कर सीधे डेस्क को मेल कर सकते हैं। हमारे वक्त में तो ऐसा करने का कोई साधन ही नहीं था। कोई जरिया ही नहीं था। स्पॉट रिर्पोटिंग के बाद सीधे डेस्क पर आना ही पड़ता था। दूर दराज के इलाकों से खबरें भेजने वाले रिपोर्टरों के लिए अखबारों की तरफ से एक खास तरह की व्यवस्था की जाती थी। रिपोर्टर अपने इलाके की खबरें बना कर बस ड्राईवर के हाथों चंडीगढ़ भिजवाते थे। चंडीगढ़ बस अड्डे पर हर अखबार के पोस्ट बॉक्स जैसे अपने मेल बॉक्स लगाए जाते थे। ड्राईवर खबरों के पैकेट को इन अखबारों के डिब्बों में डाल देते थे। शाम को अखबार की गाडिय़ां इन डिब्बों से खबरों के पैकेट निकाल कर न्यूज डेस्क तक पहुंचाया करती थी। किसी बड़ी घटना की खबर के लिए रिपोर्टर डेस्क पर फोन के जरिए सारी स्टोरी लिखवाता था। इस खबर को उस रिपोर्टर की बाइलाइन के साथ प्रकाशित कर दिया जाता था। जबकि लोकल रिपोर्टर के लिए सिस्टम कुछ ऐसा था कि स्पॉट रिपोर्टिंग के बाद रिपोर्टर को न्यूज रूम पहुंच कर हाथ से खबरें लिख कर चीफ सब एडिटर के हवाले करनी पड़ती थी। हालांकि सीनियर रिपोर्टर आम तौर पर खबर लिखने के बाद दफ्तर से निकल जाते थे। लेकिन जूनियर रिपोर्टरों को खबर की एडिटिंग होने के बाद ही घर जाने की इजाजत मिलती थी। यूं कहें कि उस जमाने में एडिटिंग रिपोर्टिंग पर भारी थी।
लेकिन आज सब कुछ पूरी तरह बदल गया है। तब हम सोचते थे ऐसा कोई सिस्टम होना चाहिए कि हम फोन पर ही स्पॉट रिपोर्टिंग करके भेज पाते। इससे टाइम भी बच जाता और मेहनत भी।
उस जमाने में तो ले दे कर केवल एक लैंडलाइन ही होता था। वह भी ऊंची सिफारिशों के बाद ही मिलता था। खबर देने के लिए रिपोर्टरों को दफ्तर जाना ही पड़ता था। बाकि और कोई चारा नहीं था। बारिश हो तूफान हो गर्मी हो या सरदी अखबार को तो छपना ही होता है। ऐसे में खबर को कोई कैसे रोक सकता था। यकीन मानिए उस जमाने में रिपोर्टिंग किसी जंग लडऩे से कम नहीं थी। एक रिपोर्टर को एक मुस्तैद सिपाही की तरह काम करना पड़ता था। हमारी पीढ़ी को नाज है कि हमने वो दौर देखा है। मगर उस दौर को बयान करना आसान नहीं है। यूं भी तीस बरसों का सफर चंद पन्नों में बयान हो भी कैसे सकता है। बस इतना ही कह सकते हैं हम भी कभी जवान थे।
इस कहानी के कई पड़ाव हैं। इसमें कई रातों की नींदें भी हैं और दिमागी परेशानियां भी। दिल के जज्बात भी हैं और हसरतें भी। उपलब्धियां भी और नाकामियां भी। डांट फटकार भी और शाबाशी भी। खुद पर फख्र भी और नाराजगी भी। तकदीर की चुभन भी और बदनसीबी का सैलाब भी। खुशियां भी और नेकनीयती भी। कुल मिला कर बयान करने के लिए बहुत कुछ है। बस जरूरत इसे पढऩे, समझने और जीने की है।
आज मैं खुद रिटायरमेंट के कगार पर हूं। हालांकि मुझे नहीं लगता रिटायरमेंट शब्द कोई मायने भी रखता है। लेकिन जमाने के साथ तो चलना ही पड़ेगा। एक अरसे तक खबरें ही जिंदगी बनी रहीं। यानि खबरों को ही जीया है और जी भर कर जीया है। ऐसे में जिंदगी को छोड़ भी कैसे सकते हैं। सो लिखना पढऩा आज भी जारी है और यकीन मानिए यह सिलसिला थमने वाला नहीं है। यह सब कुछ आखिरी दम तक रहने वाला है।
बाकि पीछे नजर डालता हूं तो लगता है काफी आगे निकल आया हूं। पीछे लौट कर जाना तो खैर अब नामुमकिन ही है। सफर ज्यादा अच्छा तो नहीं रहा। मगर बुरा भी नहीं रहा। अपनी कहानी सुनाने का कोई खास मकसद नहीं है। बस अपनी यादें सांझा करने जैसा है। हो सकता है मेरी जमात यानि पत्रकारिता के नई नस्ल के नौजवान पत्रकारों को इस कहानी में अपने लिए शायद कुछ मिल ही जाए। अलग हट कर सोचने वालों को भी कुछ मिल जाए। गरीबों और लावारिस पशुओं का दर्द समझने की कूवत यानि ताकत ही मिल जाए। तय तलाश करने वालों को करना है। बताना इसलिए भी जरूरी है कि इस सफर में जो मैं नहीं पा सका शायद उन्हें ही मिल जाए। अपनी कमियों से मैं तो कोई सबक नहीं सीख सका शायद कोई और ही सीख जाए। बाकि जो भी किया, जब तक भी किया दिल से किया और जी भर कर किया।
पत्रकारिता में प्रेरणा बने मेरे बहनोई स्वर्गीय नीरज बाजपेयी। बड़ी दीदी उन दिनों नेशनल टेक्सटाइल कॉर्पोरेशन एनटीसी कानपुर में मैनेजर थीं। एक बार दीदी के पास जाना हुआ। उन दिनों नीरज यूएनआई यानि युनाईटिड न्यूज ऑफ इंडिया कानपुर के ब्यूरो चीफ थे। बात अस्सी के दशक की है। जब भी कभी कानपुर जाना होता था तो उनके दफ्तर जाना होता ही था। वहां लगे टेलिप्रिंटरों पर आती जाती खबरों से उन्हीं दिनों मेरा परिचय हुआ। इन मशीनों से बड़ा शोर होता था। खटखट करके चलते टेलिप्रिंटर यानि ऑटोमैटिक टाइप राइटर जिसमें खबरें भेजी भी जाती थीं और उसी पर आती भी थी। संसार भर की खबरों के आने जाने का पूरा दारोमदार इन्हीं टीपी यानि टेलिप्रिंटरों पर होता था। नीरज जाने माने पत्रकार थे। इसलिए उनका सामाजिक दायरा भी बड़ा था। बड़े बड़े लोगों से उनकी पहचान थी। मैं उनसे बहुत प्रभावित था। एक दफा देर रात उन्हें दफ्तर जाना पड़ा। साथ में उन्होंने मुझे भी ले लिया। उस जमाने में उनके पास स्कूटर था बजाज प्रिया। उनके दफ्तर से थोड़ा ही पहले ही कानपुर का बहुत बड़ा बाजार है नवीन मार्केट। यह बहुत बड़ी और खूबसूरत मार्केट है। नवीन मार्केट चौराहे पर पुलिस की एक पोस्ट यानि गुमटी थी। उस रात उस चौराहे पर इलाके के एसएचओ विंध्याचल सिंह साहब अपने कुछ जवानों के साथ कुर्सी पर विराजमान थे। उनका नाम जैसा विशाल था वैसा ही उनका शरीर भी था। साढ़े छह फीट लंबे चौड़े कद्दावर जिस्म के मालिक विंध्याचल सिंह का दूसरा नाम था इंस्पेक्टर लोहा सिंह। पूरे उत्तर प्रदेश में उनके नाम की धाक थी। उनकी मंूछें उनके चेहरे को और भयंकर बना देती थी। अपराधी उनके नाम से थरथर कांपते थे।
बाजपेयी जी के साथ एक लडक़े को देख कर विंध्याचल सिंह साहब ने मुस्कुरा कर स्वागत किया.. अरे बाजपेयी जी के साले साहब हैं..। आईए.. आईए। उन्होंने मिलाने के लिए मेरी तरफ हाथ बढ़ाया। उनके हाथ में मेरा हाथ जैसे कहीं खो गया था। उनका हाथ मेरे चार हाथों के बराबर था। बाजपेयी साहब के साले आए थे स्वागत तो बनता ही था। इतनी रात गए गन्ने का जूस लाया गया। इंस्पेक्टर लोहा सिंह से वह मुलाकात मेरे लिए एक यादगार बन गई। अब तो मन ही मन बाजपेयी जैसा पत्रकार बनने का फैसला कर लिया।
एक दिन मकााक में बायपेयी जी ने मेरी मंशा पूछी तो मैंने भी धीरे से पत्रकार बनने की इच्छा जता दी। उन्होंने मुस्कुरा कर जवाब दिया। परीक्षा के तौर पर उन्होंने कुछ लिखने के लिए कहा। अब ठीक से याद नहीं किस विषय पर क्या लिखा शायद कुछ निबंध जैसा था। बाजपेयी जी ने पढ़ा। शाबाशी दी और उस लेख को एक स्थानीय अखबार में छपवा दिया। अखबार में अपना नाम छपा देख कर ऐसा नशा तारी हुआ कि दिलो दिमाग पर छा गया हमेशा हमेशा के लिए। यानि वह लेख मेरे पत्रकारिता के सफर का उदय साबित हुआ।
शिमला घर लौटने पर बीच बीच में आकाशवाणी शिमला और फिर हिमाचल टाइम्ज में प्रकाशन के बाद चंडीगढ़ का रुख किया। यहां बड़े भाई साहब अपनी एक दुकान चला रहे थे। मैं उनके पास दुकान में हाथ बंटाने के लिए आया था। मगर मेरी मंजिल तो कुछ और ही थी। आम तौर पर हर एक पत्रकार में उसकी स्टोरी छपने की प्यास बहुत होती है। मैं भी सबसे अलग कहां था। सो चंडीगढ़ में नई जद्दोजहद शुरू हुई।
यहां अंग्रेजी साप्ताहिक नाइसिटी, हिंदी सांध्य दैनिक समाचार संकलन और साप्ताहिक जागरूकता जैसे छोटे समाचार पत्र पत्रिकाओं में छपी मेरी कहानियों, खबरों और छिटपुट लेखों ने और इस नशे की आंच को और ज्यादा भडक़ा दिया। उस दौर में संतोष गुप्ता एक गाइड के तौर पर मेरे जीवन में आई। नया होने के नाते मैं बहुत कुछ सीखना चाहता था। जोश की कोई कमी नहीं थी। जर्नलिज्म की डिग्री भी नहीं थी। इसलिए जो भी सीखना था फील्ड से ही सीखना था। संतोष पटियाला की रहने वाली थी। उसने जर्नलिज्म में मास्टर किया था और उसने जनसत्ता के लिए कभी नाभा से पत्रकारिता भी की थी। उससे कहां मुलाकात हुई ये तो याद नहीं मगर उसने बहुत कम समय में पत्रकारिता के बारे में बहुत कुछ सिखा दिया। उसका एक डॉयलॉग अक्सर याद आता है.. चेतन परांठे खाना चाहता है तो भूख बढ़ा। दो मिलेंगे। पहले अपना पेट तो बड़ा कर। अगर ये कहूं कि संतोष ने पत्रकारिता में उंगली पकड़ कर चलना सिखाया तो शायद गलत नहीं होगा। वह मेरे लिए एक टीचर साबित हुई।
उन्हीं दिनों चंडीगढ़ के पूर्व सांसद हरमोहन धवन खूब चरचा में थे। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सरकार में वह चंडीगढ़ के एमपी चुने गए थे। चंडीगढ़ प्रशासन में उनका बड़ा रौब था। उस जमाने में इलेक्ट्रॉनिक चैनल टाइप वीडियो मैगजीन की शुरूआत होने लगी थी। इस कड़ी में धवन ने चंडीगढ़ में थर्ड आई नाम से एक वीडियो मैगजीन की शुरूआत की थी। माइक पकड़ कर कैमरे के सामने आना भला किस को पसंद नहीं होता। उनमें अपन भी एक थे। लेकिन धवन का बर्ताव बहुत खराब था। वह बात करते तो ऐसा लगता था जैसे कोई अक्खड़ इंसान बात कर रहा हो। बात कम करते थे धौंस ज्यादा चलाते थे। खुद पर उन्हें कुछ ज्यादा ही अभिमान था। यह बात सभी को खटकती थी। दो चार महीने चलने के बाद यह चैनल बंद हो गया। यह तो होना ही था। सभी रिपोर्टर छोड़ कर चले गए। नतीजा यह हुआ कि जिस थर्ड आई को धवन साहब बहुत घमंड से शिवजी का त्रिनेत्र कहा करते थे वह जैसे खुला वैसे ही बंद भी हो गया। यानि चंडीगढ़ से इलेक्टॉनिक चैनल शुरू होने से पहले ही बंद हो गया।
1991 अगस्त में चंडीगढ़ से विधिवत रूप से पत्रकारिता के इस सफर की मेरी नई शुरूआत हुई। अखबार था इवनिंग डेली अर्थ प्रकाश। उपेंद्र भटनागर साहब उन दिनों अर्थ प्रकाश के सब-एडीटर थे। बहुत ही बढिय़ा इंसान थे। एक दिन सेक्टर-37 की मार्केट में किसी खबर को कवर करने पहुंचे थे। वहीं उनसे भेंट हुई। मिल कर बेहद खुशी हुई। बेहद मिलनसार इंसान लगे। लिखने का शौक मुझे भी था सो उन्होंने रिपोर्टिंग करने की सलाह दी। इसके लिए उन्होंने अर्थ प्रकाश के मालिक महावीर जैन साहब से मिलवाने का भरोसा दिया। बात शायद 13 अगस्त 1991 की है। भटनागर भाई साहब ने अपने वादे के मुताबिक महावीर जैन साहब से मिलवा दिया। जैन साहब पहली ही नजर में दिलो दिमाग पर छा गए। उनके पास काम बहुत था मगर उन्होंने खूब समय दिया। खूब गपशप की। मेरे पिता जी के स्वतंत्रता सेनानी होने की बात सुन कर उन्होंने स्वतंत्रता दिवस पर कुछ लिख कर लाने को कहा। मेरे लिए यह बहुत बड़ा सुनहरी अवसर था। एक नौसिखिए पत्रकार के लिए यह मौका ही बहुत बड़ी उपलब्धि थी। ये लेख 15 अगस्त 1991 के अंक में बाईलाइन छपा। हालांकि वह लेख एक अखबार के लिए एक संपादक के नाम चिठ्ठी जैसा ही था। मगर उसकी खुशी को मैं ही महसूस कर सकता था।
यहां यह भी बताना जरूरी है कि मेरे साथ के चंडीगढ़ के पचास फीसदी हिंदी पत्रकार अर्थप्रकाश की ही देन हैं। दूसरे शब्दों में चंडीगढ़ में अर्थ प्रकाश को हिंदी पत्रकारिता की नर्सरी कहा जा सकता है। यह अखबार उस जमाने में भी नए पत्रकारों को पैदा कर रहा था और आज भी कर रहा है। जैन साहब अर्थ प्रकाश के संपादक भी थे और प्रकाशक भी। रिपोर्टर भी और प्रसार प्रबंधक यानि सर्कुलेशन मैनेजर भी। मशीनमैन भी और अखबारों के बंडल बना कर पैक करने वाले मजदूर भी। कुल मिला कर वह अर्थप्रकाश के सर्वेसर्वा थे।
अर्थ प्रकाश को अगर उस जमाने में चंडीगढ़ का गूगल या वेबपोर्टल कहें तो शायद ठीक रहेगा। शाम को चाय की चुस्की के साथ ताजा खबरें लोगों को तरोताजा कर देती थी। खास तौर पर दुकानदारों को रेडियो के अलावा अर्थ प्रकाश ही पूरी तरह अपडेट रखता था। जैन साहब ने शुरू में क्राइम रिपोर्टर की जिम्मेवारी भी सौंप दी। उस जमाने में क्राइम रिपोर्टर की बीट यानि फील्ड बहुत चैलेंजिंग, थ्रिलिंग और रिस्पेक्टेड यानि चुनौतिपूर्ण, रोमांचकारी और सम्माननीय मानी जाती थी। सच कहूं तो जोश तो बहुत था मगर यह पता नहीं था कि शुरूआत कैसे की जाए। बस जोश के सहारे शुरूआत पुलिस स्टेशन सेक्टर-39 से की। एसएचओ थे इंस्पेक्टर जगवीर सिंह। क्या जांबाज अफसर थे। अपराधियों के जालिम और दोस्तों के लिए जान लुटाने वाला इंसान। नया लडक़ा समझ कर उन्होंने क्राइम की खबरें बताना शुरू कर दिया। बस फिर क्या था। हौंसला बुलंद होता चला गया। जगवीर के बाद उनके खास दोस्त स्वर्गीय विजय कुमार और सतवीर से दोस्ताना शुरू हुआ। इन तीनों की तिकड़ी थी। पंजाब पुलिस के आईपीएस अफसर सुमेध सिंह सैनी के सबसे बैस्ट इन तीनों अफसरों का कोई मुकाबला नहीं था। तीनों का जलवा ही कुछ ऐसा था कि चंडीगढ़ में कहा जाता था कि पत्ता भी हिलेगा तो इस तिकड़ी को पहले पता चल जाएगा। खुद सैनी भी कहां कम थे। उस जमाने में सुमेध सैनी ने चंडीगढ़ के जाने माने दबंग स्वीटी बजाज, विजयपाल सिंह डिंपी और टीटू सेठी जैसे लोगों की बादशाहत खत्म कर दी थी। कैसे खत्म की वो कहानी फिर कभी सही। लेकिन डिंपी के साथ का वाक्या तो भुलाए नहीं भूलता। बड़े भाई साहब की सेक्टर-37 में रेडीमेड कपड़ों की दुकान थी। डिंपी उन दिनों ब्याज पर लोगों को पैसा देता था। ब्याज सौ फीसदी होता था। जो ब्याज नहीं देता था वह उसकी दुकान पर जबरदस्ती कर लेता था। बड़े भाई साहब भरत ठाकुर भी उसके जाल में फंस गए। डिंपी ने मेरी गैर मौजूदगी में भाई साहब को गन प्वाइंट पर उठा कर दुकान अपने नाम लिखवा ली। इसके बाद भाई साहब डर कर चंडीगढ़ से गायब हो गए। मैं उन दिनों सेक्टर-35 में तीन दोस्तों के साथ रह रहा था। इस घटना के दो तीन दिन बाद जब मैं भाई साहब के घर पहुंचा तो भाभी से सारी कहानी सुन कर मैं भी हैरान हो गया। दुकान पर आया देखा दुकान पर ताला लगा था।
मैंने फौरन एक एप्लीकेशन लिखी और सीधे एसएसपी सुमेध सिंह सैनी के दफ्तर पहुंच गया। सैनी का जलवा उन दिनों चरम पर था। चंडीगढ़ पुलिस हेडक्वार्टर में परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। उन्हीं दिनों उन पर आतंकवादी हमला हुआ था। वह हमले में बाल बाल बच गए थे जबकि उनके एक गनमैन की मौत हो गई थी। इस लिहाज से उनकी सुरक्षा लाजिमी भी थी। वैसे भी पंजाब पुलिस के अफसर होने की वजह से वह खाडक़ुओं की हिट लिस्ट में थे।
यह बात 1992 शुरूआत की है। सैनी से मिलने से पहले मैंने जनसत्ता के क्राइम रिपोर्टर मुकेश भारद्वाज साहब से इस खबर को छापने की रिक्वेस्ट की। मुकेश को सारी बात बताई। उन दिनों मुकेश चंडीगढ़ में सबसे धुरंधर पत्रकार के तौर पर जाने जाते थे। अपना जूनियर साथी होने की बात जानकर उन्होंने पूरी बात धैर्य से सुनी और पूरी खबर को छापने का भरोसा दिया। अगले दिन जनसत्ता में खबर छप गई। यह खबर छपने की देर थी। पुलिस एकदम हरकत में आ गई। रही सही कसर मैंने सैनी के पास पहुंच कर पूरी कर दी।
जानते हैं सैनी का जवाब क्या था.. जाओ अखबार वालों के पास जाओ वही तलाश करके देंगे तुम्हारे भाई को..।
यकीन मानिए मेरे पास बोलने के लिए कुछ नहीं बचा था। फिर बोले.. दो दिन बाद आओ.. मगर ये नहीं होना चाहिए कि बिना मिले चले जाओ। मैं नहीं सुनना चाहता मैं था नहीं और तुम चले गए।
दो दिन तक भाई साहब को तलाश करने पर भी कोई पता नहीं चला तो मैं एक बार फिर सैनी के दफ्तर पहुंच गया। वही हुआ। दोपहर का बैठा मैं देर शाम तक वहीं जमा रहा। सैनी को नहीं आना था और वो नहीं आए। उनका स्टाफ जाने को हो गया। उनके रीडर थे इंस्पेक्टर हरीश शर्मा। क्या बेहतरीन इंसान थे। उन्होंने मुझे भी घर जाने की सलाह दी और खुद भी दफ्तर से निकल गए। इस घटना के बाद हरीश से मिलने का मौका एक बार फिर मिला। वो कहानी आगे आएगी। लेकिन इतना बता दूं कि हरीश मेरी जिंदगी में एक बार फिर नई कहानी लेकर आए। ऐसी कहानी जिसने मुझे एक नई पहचान दे दी। इसके लिए मैं हरीश का दिल से शुक्रगुजार हूं। उनसे मिले बरसों हो गए हैं। पता नहीं आजकल कहां होंगे।
खैर बात उस शाम की है। मैं जैसे तैसे घर लौट आया। डरते डरते मैंने जैसे तैसे रात गुजारी। सुबह मुझे पुलिस हेडक्वार्टर जाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। पता चला डिंपी तो सुबह सुबह ही भाई साहब के घर पहुंच गया था। वह बुरी तरह से लंगड़ा कर चल रहा था। चेहरे पर जबरदस्त पिटाई के निशान थे।
मुझे देखते ही गले से चिपक गया.. भाई बचा ले मुझे। सैनी ने बहुत बुरी तरह से मारा है। मेरी टांगें तोड़ दी हैं.. बैठा भी नहीं जाता। जा भाई भरत को ढूंढ कर ला। कहीं से भी ला। मेरी गाड़ी ले जा। ले पकड़ पैसे भी ले जा।
उसकी हालत देख कर मुझे तरस भी आया। मैंने गाड़ी लेकर भाई साहब के हर मुमकिन ठिकाने की तलाश की। लेकिन भाई साहब का कुछ भी पता नहीं चला। आखिर मेरी तलाश सोलन में जाकर खत्म हुई। भाई साहब एक दोस्त के घर पर छिपे बैठे थे। उनको लेकर मैं इंस्पेक्टर जगवीर के पास पहुंचा।
डिंपी के खिलाफ मामला तो पहले ही दर्ज हो चुका था। अब भाई साहब की बरामदगी हो गई थी। इसलिए उसे दोबारा गिरफ्तार नहीं किया गया। इसके बाद मैं और जगवीर बहुत अच्छे दोस्त बन गए। डिंपी के खिलाफ मामला कोर्ट में कई बरसों चला।
इस बीच भाई साहब ने बताया कि डिंपी उनसे मूल से दो गुणा ज्यादा पैसे वसूल कर चुका था। अब उसका कोई भी बकाया भाई साहब पर नहीं था। मेरे पास मेरी ताकत के तौर पर कोई अगर था तो वह था अर्थ प्रकाश। इस अखबार की बदौलत ही डिंपी मुझ पर कोई हमला नहीं कर सका। वरना उस जैसा खूंखार इंसान किसी को भी अपनी चपेट में ले सकता था। उसने यह धमकी बाद में मुझे खुले आम दी भी थी। मगर उसकी हिम्मत ऐसा कुछ करने की आज तक नहीं हुई।
अपने साथ हुई इतनी बड़ी घटना की बात सुन कर महावीर जैन साहब ने खुल कर मेरा समर्थन किया। बोले घबराने की जरूरत नहीं है। तू मेरा पत्रकार है। तेरे उपर कोई आंच नहीं आने देंगे। वही हुआ भी। डिंपी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सका। जैन साहब के बड़े भाई भारतीय जनता पार्टी के लीडर भी थे। ऐसे में मेरे साथ होने वाली कोई भी घटना बड़ा राजनीतिक ड्रामा बन सकती थी। ऐसे में जैन साहब के होने से सब ठीक हो गया। उस वक्त जैन साहब का मेरे साथ होना मेरे लिए एक बड़ी नेमत की तरह था।
इस बात को गुजरे तीस बरस हो गए। सब कुछ बदल गया मगर जैन साहब नहीं बदले। जैसे कल थे वैसे ही आज भी हैं। मिलनसार, दोस्ताना और एक गाइड की तरह। कमाल की बात तो ये है कि उम्र तक उनके चेहरे पर कोई निशान नहीं छोड़ सकी है। कुछ बदला तो अखबार का स्वरूप बदल गया। तब इवनिंग लोकल डेली था और आज मार्निंग नेशनल डेली है। कल एक किराये की इमारत में अखबार छपता था आज अपनी शानदार बिल्डिंग है।
बहरहाल नई जिम्मेवारी मिलने पर खुद को नीरज बाजपेयी के जैसा होने का अहसास होने लगा था। अब चंडीगढ़ के तमाम थानों के एसएचओ और डीएसपी दोस्त बन गए। कन्वेंस के नाम पर जैन साहब ने अपनी एक साईकिल दे ही दी थी। क्राइम के अलावा चंडीगढ़ की सभी रेहड़ी मार्केट भी मेरी फील्ड थी। यानि रेहड़ी मार्केट्स की समस्याएं की कवरेज और मांगों के प्रेस नोट मैं ही लिखता था। अखबार शाम चार बजे छप कर मार्केट में पहुंच जाता था। उन दिनों ट्रेफिक कम था सो मैं सारी खबरें इकठ्ठी करके एक बजे तक दफ्तर पहुंच जाता था। खबरें लिखता और अखबार छपने के बाद अखबार की कॉपी लेकर ही निकलता। उन दिनों अर्थ प्रकाश का दफ्तर चंडीगढ़ के इंडस्ट्रियल एरिया फेज वन में था। मुझे आज भी याद है शाम चार बजे अर्थ प्रकाश दफ्तर के सामने हॉकरों की भीड़ जमा हो जाती थी। अखबार छपने के बाद उनके पैकेट बना कर हॉकरों के हवाले कर दिए जाते थे। कई बार मैं खुद शाम को मनीमाजरा, पंचकूला, चंडीगढ़ और मोहाली की रेहड़ी मार्केटों के अलावा झुग्गी झोंपड़पट्टी कालोनियों का दौरा करता था। इन इलाकों की सार्वजनिक समस्याओं को नोट करता और अगले दिन बड़ी सी खबर लिखता। सच कहूं तो उन दिनों झोंपड़ कालोनियों की जो रिपोर्टिंग मैंने की कोई दूसरा नहीं कर सकता। जूते कीचड़ में सने होते थे। खबरें निकालने के लिए मैं कालोनी नेताओं के साथ बीड़ी तक पीता था। उन दिनों मंै सिगरेट बीड़ी का शौकीन तो था मगर शराब से कोसों दूर था।
अक्सर शाम को कभी ट्रिब्यून तो कभी इंडियन एक्सप्रेस या दैनिक जागरण या फिर राष्ट्रीय सहारा के दफ्तरों में चक्कर लगाने निकल पड़ता था। मुलाकातें होने लगी तो दोस्तों का दायरा भी बढऩे लगा।
बड़े अखबारों के रिपोर्टर बड़े खुले दिल से मिलते थे। बहुत अच्छा लगता था। इज्जत मिलती थी। खबरों पर शाबाशी भी मिलती थी। वो तो बाद में पता चला कि वो इज्जत अफजाई रिपोर्टर होने के नाते नहीं होती थी। मामला ये होता था कि बड़े अखबारों के रिपोर्टर सारा दिन या तो बिस्तर में पड़े रहते थे या अपने कामों के चक्कर में इधर उधर घूमते रहते थे। शाम को अर्थप्रकाश की खबरें उठाते उन्हीं खबरों को घुमा फिरा कर लिखने के बाद डेस्क के हवाले कर दिया करते थे। इतना ही नहीं इन खबरों पर बाइलाइन भी ले लेते थे। बड़ी तकलीफ होती थी। खबरें अपनी और नाम छपता था किसी और का। कहने का मतलब ये कि अर्थ प्रकाश बड़े अखबारों के लिए एक भरोसेमंद सूत्र की तरह था। खबर पढ़ी उसको डेवल्प किया और अगले दिन लंबी चौड़ी लिख कर छपवा दी।
जब ये कहानी एक वरिष्ठ साथी ने सुनाई तब अपने भोलेपन और अपने सीनियर्स की चालाकी समझ में आई। कहते हैं न पेट से सीख कर कोई नहीं आता। जमाना ही सिखाता है। सो पत्रकारों ने मुझे भी सिखा दिया।
उस दिन के बाद से अपन ने भी अपना रवैया बदल लिया। अब अपन भी खबरें छुपाने लगे। छुपाने का मतलब ये कि अपनी खबर किसी को नहीं बताना। ताकि खबर एक्सक्लुसिव रहे। ताकि कोई इस खबर को अपन से पहले छापने का दावा न कर सके। आजकल के टीवी चैनल के स्लोगन सबसे पहले खबर हमने दिखाई की तर्ज पर एक्सक्लुसिव खबर छापने का दावा।
इसका फायदा यह हुआ कि बड़े पत्रकारों में बराबर का साथी का दर्जा मिलने लगा। उन दिनों जैन साहब सात सौ रूपये महीन वेतन दिया करते थे। यह रकम नाम मात्र की थी। उन दिनों एक कमरे का किराया ही छह सौ रुपये होता था। फिर खाने पीने का खर्च सो अलग होता था। ऐसे में हिमाचल के दो लडक़ों के साथ सेक्टर-35 में एक मकान किराए पर ले लिया। सो दो ढाई सौ रुपये में घर मिल गया था। जिंदगी चल निकली। खाना पानी रेहड़ी मार्केट में मिल ही जाता था।
अब टारगेट हिंदी के बड़े अखबारों में काम करने का था। हालांकि यह आसान नहीं था। चंडीगढ़ में हिंदी के अखबार गिनती के थे। चंडीगढ़ में जनसत्ता और दैनिक ट्रिब्यून छप रहे थे और जालंधर से पंजाब केसरी और वीर प्रताप के अलावा उत्तम हिंदु ही था। इसके अलावा दैनिक जागरण और राष्ट्रीय सहारा दिल्ली से छप कर चंडीगढ़ आते थे। उन दिनों जनसत्ता का जादू चरम पर था। पाठकों में भी और पत्रकारों में भी। जनसत्ता का असर ही कुछ ऐसा था। जनसत्ता का स्लोगन था सबको खबर दे सबकी खबर ले। ये स्लोगन ही अपने आप में बहुत बड़ा संदेश था। हर कोई जनसत्ता में काम करना चाहता था। काम नहीं तो कम से कम जनसत्ता के पत्रकारों से दोस्ती जरूर करना चाहता था। मैं भी ऐसे ही लोगों में था। नतीजा ये हुआ कि उस दौर में जनसत्ता के पत्रकारों में मनमोहन सिंह, प्रसून लतांत, नरेंद्र विद्यालंकार, राम सिंह बराड़, बलवंत तक्षक और मुकेश भारद्वाज के साथ परिचय हो गया। सब एक से बढ़ एक बेहतरीन इंसान हैं। प्रसून लतांत के पास झोंपड़पट्टी कालोनियां, धरने प्रदर्शन और सेक्टर की समस्याओं जैसी बीट थी। प्रसून भाई गपोड़ी भी खूब हैं। बातों बातों में किसी को भी अपना बना लेते हैं। वह किसी भी शख्स से मिलते उसे अपना परिचय देते और फिर उसके इलाके की समस्याओं पर चरचा करना शुरू कर देते थे। मकसद होता था समस्याओं की जानकारी जुटाना और फिर उस पर खबर लिखना। उनकी इस खूबी पर फुटेला जी ने बाद में एक वाक्या सुनाया जिसको सुन कर हम सब हंसते हंसते लोट पोट हो गए। दैनिक जागरण से पहले वह भी जनसत्ता में ही काम करते थे। बोले सुबह दस बजे रिपोर्टरों की मीटिंग होती थी। मुकेश भारद्वाज के अलावा किसी भी रिपोर्टर के पास उन दिनों में कोई गाड़ी नहीं थी। सिर्फ उनके पास हीरो हौंडा मोटर साइकिल था। बाकि सब लोग बस से ही सफर करते थे। एक दफा जैसे ही सभी साथी बस में सवार हुए प्रसून भाई ने आदतन एक शख्स से बातचीत शुरू कर दी.. मगर पासा उल्टा पड़ गया। बंदा बोला.. आपका नाम प्रसून लतांत है। आप जनसत्ता के रिपोर्टर हैं। मुझे किसी भी तरह की कोई समस्या नहीं है।
जवाब सुन कर प्रसून भाई और बाकि साथियों की हालत कैसी और क्या हुई होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। हंसते हंसते सभी का बुरा हाल हो गया। इस हंसी में एक ठहाका प्रसून भाई का भी था।
उस जमाने के इन दिग्गज पत्रकारों के साथ उठना बैठना मेरे लिए बहुत रोमांचकारी था। खास तौर पर मनमोहन भाई साहब के साथ। यह जनाब जैसे कल थे वैसे ही आज तक हैं। मस्त मौला। बात बात पर ठहाके लगाने वाले जिंदादिल इंसान। मगर कडक़ ऐसे कि अपनी पर आ जाएं तो सामने वाले की खैर नहीं होती।
बहरहाल इसी बीच भटनागर साहब को दैनिक जागरण में काम करने का मौका मिल गया। बड़े भाई की तरह उन्होंने मुझे भी जागरण में बतौर रिपोर्टर ज्वाइन करवाने का प्लान बनाया। जागरण के ब्यूरो प्रमुख थे जगमोहन फुटेला। जबकि मार्केटिंग प्रबंधक थी मीनाक्षी। जगमोहन फुटेला साहब ने तो पहली ही मुलाकात में पत्रकार बनने की तमाम उम्मीदों पर ही पानी फेर दिया। बोले.. पत्रकारिता एक जादुई चमत्कार जैसा है। दूर से दिखने वाला गलैमर है। सबसे बेकार जगह है। यहां आने वाला आदमी किसी लायक नहीं रहता। बेहतर होता मैं किसी और फील्ड में हाथ आजमाऊं।
मगर उनकी इस बात ने हतोत्साहित करने की बजाए मेरा इरादा और मजबूर कर दिया। बात की बात कुछ ही दिनों में दैनिक जागरण से जगमोहन फुटेला साहब की नौकरी छूट गई और अब मीनाक्षी जागरण की सर्वेसर्वा हो गई। भटनागर साहब ने मीनाक्षी से मुझे हरियाणा हेडक्वार्टर रिपोर्टर बनाने की गुजारिश कर दी। मीनाक्षी के दिल में भी पता नहीं क्या आई तुरंत मेरे नाम पर मोहर लगा दी। उन दिनों जागरण का दफ्तर सेक्टर-22 में कॉंटिनेंटल एडवरटाइजिंग के दफ्तर में चल रहा था। कॉंटिनेंटल के मालिक थे जनाब टी के मेहता। ये जनाब बहुत महान थे। मीनाक्षी उनकी खास थी और वह मीनाक्षी के। अलबत्ता कुल मिला कर मेरे लिए दोनों ही जागरण के सुपर मालिक थे।
जागरण में नौकरी मेरे लिए यह बहुत बहुत बड़ी बात थी। सिटी से सीधे सीधे स्टेट लैवल रिर्पोटिंग। मीनाक्षी ने मेरा वेतन शायद नौ सौ रुपये तय किया था। मेरे लिए यह रकम बहुत थी। मेहनत की कोई कमी थी ही नहीं।
अब बात जैन साहब को मनाने की थी। उन्होंने मेरे लिए बहुत कुछ किया था। उन्हें अखबार छोडऩे की बात कहना बहुत भारी लग रहा था। डरते डरते उनसे बात की तो उन्होंने खुले दिल से जागरण ज्वाइन करने की सलाह दी। बोले.. अरे यार चेतन इसमें डरने की जरूरत क्या है। अरे यार बड़ा मौका मिल रहा है तो जरूर जा। वैसे कभी जरूरत पड़े तो मेरे दरवाजे तेरे लिए हमेशा खुले हैं। मैं बता नहीं सकता जैन साहब ने कितना बड़ा उपकार किया था। कितना बड़ा बोझ मेरे सिर से उतर गया था।
जैन साहब को छोडऩे का दुख भी था और जागरण ज्वाइन करने की खुशी भी। मगर जाना तो था। आखिरकार अर्थ प्रकाश को भारी मन से छोड़ कर जागरण को ज्वाइन कर लिया। मगर मीनाक्षी के साथ ज्यादा कोई चल ही नहीं सकता था। मैं भी नहीं चल पाया। वह जैसी थी ये भी बताने की जरूरत नहीं है। चंडीगढ़ के पुराने साथी बहुत अच्छी तरह जानते हैं। मेरे जैसे कई भुक्तभोगी हैं। शायद दो महीने ही जागरण के लिए काम करने का मौका मिला। यूं कहें मीनाक्षी के लिए काम करने का मौका मिला। उस दौर को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। फिर एक दिन बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले की तर्ज पर मीनाक्षी ने एक झटके में सडक़ पर ला खड़ा कर दिया।
उस जमाने की मेरी जागरण की खबरों की कतरने आज तक मेरे पास मौजूद हैं। उन दिनों इन कतरनों को संजो कर रखने की एक परंपरा सी थी। रिपोर्टर लोग शौक से अपनी खबरों को एक दूसरे को दिखाया करते थे। उनकी देखा देखी मैंने भी इन कतरनों को एक रजिस्टर पर चिपका दिया जो आज तक मेरे पास मौजूद हैं।
उसी दौर में कुछ बहुत प्यारे दोस्त भी बने। जालंधर के अर्जुन शर्मा, चंडीगढ़ के मोहन, चंडीगढ़ के ही जाने माने पिता समान वरिष्ठतम पत्रकार और जाने माने लेखक डॉक्टर चंद्र त्रिखा।
जैसे तैसे वो समय भी निकल गया। कुछ दिन फिर बेरोजगारी में गुजरे। इधर उधर कोशिशें जारी रहीं। अर्जुन शर्मा कलम का कल भी धनी था और आज भी है। इस बंदे को अगर लफ्जों का ठेकेदार कहें तो शायद गलत नहीं होगा। बंदे में वाकई बहुत दम है। एक छोटा मोटा लेख लिखने को बोलो तो एक घंटे में पूरा अखबार लिख सकता है। उसके पास गजब का शब्द ज्ञान है। उन दिनों अर्जुन ने पाकिस्तान का दौरा किया था। पंजाब केसरी के लिए उसके लेखों और फोटोग्राफर शिव जैमिनी की श्रृंखला सरहद के उस पार ने मुझे अर्जुन का कायल कर दिया था। एक तो अर्जुन का गजब का व्यक्तित्व और उस पर उसकी कलम। गोरा रंग, ऊंचा कद, भारी भरकम आवाज। उसकी पर्सनेलिटी का आलम यह था कि उस जमाने के केंद्रीय केबिनेट मिनिस्टर सुबोध कांत सहाय ने उसे पत्रकारिता छोड़ फिल्मों में काम दिलवाने तक की पेशकश कर दी थी। मगर अर्जुन तो अर्जुन है। खबरों की दुनिया का आदमी भला उसे फिल्मों से क्या मतलब होता। वह तो अपनी इसी दुनिया में खुश था। अर्जुन के साथ मेरा रिश्ता ऐसा बना कि आज तक जारी है।
हालांकि जागरण से निकाले जाने के बाद अर्जुन से हर रिश्ता लगभग खत्म ही हो गया था। वो तो छह साल बाद उससे एक बार फिर नाटकीय ढंग से मुलाकात हुई। फिर तो जैसे सब एकदम फिर से ताजा हो गया। उसका जिक्र आगे करूंगा। बाकि मीनाक्षी आजकल कहां हैं कुछ पता नहीं। भगवान उन्हें शांति प्रदान करें।
उन्हीं दिनों एक मित्र बने विश्रवा मलिक तलवार। पेशे से वकील हैं। मगर उन दिनों जनाब राजनीति कर रहे थे। बिहार के रहने वाले हैं सो जाहिर है राष्ट्रीय जनता दल के साथ गहरा प्रेम था। लालू यादव जी की पार्टी के चंडीगढ़ अध्यक्ष बने थे। इसलिए दैनिक जागरण में उनका आना पक्का था। खबरें जो छपवानी थी। मगर बंदा यारों का यार है। पंजाब युनिवर्सिटी से वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद भाई साहब ने पहले बद्दी में एक फैक्ट्री शुरू की थी। इसके बाद राजनीति और फिर बाद में पेशा बदल कर वकालत शुरू दी। उनसे रोज मिलना मिलाना शुरू हो गया। उन दिनों वह सेक्टर-21 में रह रहे थे। अब मेरा एक नया ठिकाना बन गया मलिक का घर। मेरी ज्यादातर शामें वही गुजरने लगीं। मलिक के कई दोस्त मेरे भी दोस्त बन गए। उनमें से एक था वरिंदर बैंस। पंजाब सिंचाई विभाग में तैनात इंजीनियर था। साहब जी ज्योतिष में खासी दिलचस्पी रखते थे। पीने पिलाने के भी शौकीन थे। उनका दफ्तर सेक्टर-17 में था सो पीने पिलाने के लिए भाई लोगों ने मिल कर बाकायदा एक केबिन किराये पर ले रखा था। इस केबिन में पीने पिलाने के साथ साथ ज्योतिष की गोष्ठियां चर्चाएं हुआ करती थीं। जन्मकुंडलियां देखी बांची जाती थी। अपना भविष्य जानना किसे अच्छा नहीं लगता। मुझे भी लगता था। बैंस और उनके साथी हम सभी कमोबेश हमउम्र थे। सो दोस्ती जम गई।
एक दिन मलिक ने बताया कि बैंस का तबादला शायद कपूरथला हो गया था। वो भी एसवाईएल यानि सतलुज यमुना लिंक नहर प्रोजेक्ट पर। पंजाब के लिए यह प्रोजेक्ट बेहद संवेदनशील कल भी था और आज भी है और हमेशा ही रहेगा। कारण था आतंकवादियों की दहशत। उन्हें खाडक़ु कहा जाता था। अब ऐसे में बैंस का वहां जाना खतरनाक माना जा रहा था। मलिक और बैंस ने मुझे सिंचाई मंत्री से बैंस का तबादला रुकवाने का आग्रह करने को कहा।
पत्रकारिता में जैसा होता है नेताओं और अफसरशाहों से जान पहचान हो ही जाती है। उन दिनों पंजाब के सिंचाई मंत्री थे जगमोहन सिंह कंग। कंग एक शानदार इंसान हैं। मेरी उनसे कोई खास जान पहचान भी नहीं थी। बस एक दो बार मैंने जागरण के दिनों में उनकी प्रेस कांफ्रेंस कवर की थी। काम बैंस का था सो मैंने बेहिचक कंग साहब से बैंस का तबादला रुकवाने की रिक्वेस्ट कर दी। बात की बात में उन्होंने तबादला रद करने के आदेश जारी कर दिए। मगर वहां किसी को तो भेजा जाना जरूरी था। इसके लिए बैंस के दूसरे साथी सुकांत अबरोल का तबादला कर दिया गया। तब तक अबरोल से मेरी खास दोस्ती नहीं थी। लेकिन वह भी किसी न किसी तरह जुगाड़ लगा कर अपना तबादला रद करवाने में कामयाब हो गया। उसे सारी बात पता चली तो जाहिर है बुरा तो उसे जरूर लगा होगा। मगर फिर भी उसने दोस्ती हाथ बढ़ा दिया। ये दोस्ती आज तक बरकरार है।
हालांकि मेरा काम बैंस को बचाना था और मेरा काम हो गया था। मैंने अपनी दोस्ती निभा दी थी। इसके बाद बैंस मेरा मुरीद हो गया। उसने मेरी जन्मकुंडली खंगालनी शुरू कर दी। मुझसे कई ज्योतिषिय उपाय भी करवाए। बरसों सब ठीक ठाक चलता रहा। होना तो यह चाहिए था कि बैंस के साथ दोस्ती का रिश्ता लंबा चलता। मगर भाई साहब ने रिटायरमेंट के बाद मेरा फोन उठाना तक बंद कर दिया। जैसे कहा गया था अब तुम्हारी जरूरत खत्म तो दोस्ती भी खत्म। बड़े अहसान फरामोश निकले यार बैंस बाबू। लेकिन अबरोल जिसे मुझसे नाराजगी होनी चाहिए थी वह आज तक दोस्ती निभा रहा है। कम से कम उससे दुआ सलाम हो ही जाती है। मगर बैंस ने तो जैसे सब रिश्ते खत्म कर दिए।
जागरण के दौरान मोहन को भी मीनाक्षी की मेहरबानी का खामियाजा भुगतना पड़ा। उसे मिले बरसों बल्कि दशकों हो गए हैं। कहां खो गया पता ही नहीं चला। उस जैसा भला शरीफ इंसान मुझे जिंदगी में दोबारा नहीं मिला। निहायत भला मानुस। यही हालत डॉक्टर त्रिखा की भी हुई।
अलबत्ता डॉक्टर त्रिखा के साथ पिता समान ऐसा संबंध बना जो आज तक कायम है। उन्हीं दिनों डॉक्टर त्रिखा के साथ एक दुखद घटना गुजरी। डॉक्टर त्रिखा के जवान पुत्र की एक सडक़ हादसे में मौत हो गई। डॉक्टर साहब इस हादसे से टूट गए। हम जवान लडक़ों में राकेश गुप्ता, रवि शर्मा, अजय गौतम और मंै हम सब डॉक्टर साहब के बहुत नजदीक थे। वह हम में अपने जवान बच्चे को तलाश करते रहते थे। इस घटना ने हम सभी को डॉक्टर साहब के नजदीक ला दिया। उन जैसा सरल इंसान और महान लेखक कम से कम चंडीगढ़ में न तो कोई है और न ही कोई हो सकता। वह आज भी लिख रहे हैं और खूब लिख रहे हैं। वह स्वस्थ हैं। इतना ही नहीं लोगों को स्वास्थ्य भी बांट रहे हैं। चंडीगढ़ में जाने माने होम्योपैथिक चिकित्सक के नाते वह अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। ईश्वर उन्हें हमेशा स्वस्थ रखें यही प्रार्थना है।
फिर कुछ महीने उत्तम हिंदु के साथ गुजरे। अर्जुन ने इरविन खन्ना साहब से विनती कर उत्तम हिंदु में रिपोर्टिंग दिलवा दी। यह बिना वेतन की रिर्पोटिंग थी। फील्ड में रहने के लिए यह कुर्बानी जरूरी थी। फिर शायद दो या तीन महीने बेरोजगारी में भी गुजरे। उन दिनों शिमला का ही एक साथी रूममेट बन गया। सेबों के बगीचे वाला आलोक खासा पैसे वाला बंदा था। उसके सहारे गुजारा चल गया। तीन महीने उसके साथ गुजरे।
उन दिनों बड़े सीनियर रिपोर्टरों के साथ मिलना मिलाना होता ही रहता था। परदेस में अपनी फील्ड के लोगों और खास तौर पर हिमाचल के पत्रकारों से मिलने की इच्छा हमेशा रहती ही थी। ऐसे में दैनिक ट्रिब्यून की सब एडिटर रंजु ऐरी के साथ मुलाकात हुई। पता चला वह शिमला की रहने वाली थी। उस पर बड़ी बात यह थी कि वह मेरे चचेरे भाई स्वर्गीय हरिंदर के खास दोस्त अजीत की बहन थी। इस नाते रंजु से बहन भाई वाला रिश्ता बनना स्वाभाविक था। मेरी जान पहचान वालों में रंजु के अलावा कपिल शर्मा हिमाचल से आने वाले दूसरे रिपोर्टर थे। बाद में पता चला चंडीगढ़ में तो पत्रकार बिरादरी के कई हिमाचली थे। रौशन शर्मा, राकेश रॉकी, हरीश पंत, जसंवत राणा, विजय गुप्ता, दैनिक ट्रिब्यून के संपादक विजय सहगल साहब जैसे कितने ही दिग्गज और भी थे। कपिल शर्मा ने जनसत्ता में बतौर सब एडीटर ज्वाइन किया था। एक दिन दफ्तर जाते समय हुए एक सडक़ हादसे में उसकी मौत हो गई। कपिल बहुत शरीफ लडक़ा था। रंजु और कपिल शिमला में एक साथ काम कर चुके थे। ऐसे में दोनों में बहुत अच्छी दोस्ती थी। कपिल की मौत के बाद रंजु जैसे अकेली हो गई थीं। उन्हीं दिनों मैं संपर्क में आया और एक तरह से मैंने कपिल की जगह ले ली।
बहरहाल रंजु के साथ जान पहचान बढ़ी तो ट्रिब्यून के और लोगों से भी मुलाकात हुई। रंजु शुरू से ही खूब विनोदी स्वभाव की हैं। पहाड़ी होने के नाते उन्होंने कभी साइकिल तक नहीं चलाई थी स्कूटर चलाने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता था। उन दिनों वह पंजाब युनिवर्सिटी गल्र्ज हॉस्टल में रह रही थीं। उन्होंने एक स्कूटर खरीदने की योजना बनाई। वह अच्छा कमा रही थी और वह स्कूटर खरीद सकती थी। अपन अभी तक सडक़ पर ही थे। खैर रंजु ने एक नई चमचमाती काइनैटिक हौंडा खरीद ली। उस जमाने में स्कूटर और मोटर साइकिल की दुनिया में कायनी यानि काईनैटिक हौंडा एक नया नाम था। बिना गियर की यह स्कूटर बहुत जल्द ही लोकप्रिय हो गई थी।
रंजु ने भी काइनी खरीद ली। लेकिन रंजु को चलानी तो आती ही नहीं थी। ऐसे में मुझे रंजु का ड्राईवर बनने का मौका मिला। ये अलग बात है कि ड्राईविंग लाइसेंस अपने पास भी नहीं था। उन दिनों रंजु की इवनिंग शिफ्ट होती थी। सो अब अपन रंजु को पंजाब युनिवर्सिटी से दोपहर में ट्रिब्यून छोड़ते और रात को ट्रिब्यून से युनिवर्सिटी हॉस्टल। बाकी समय कायनी अपने पास होती।
मैं उन दिनों सेक्टर-35 में किराये के कमरे में अकेला रह रहा था। मेरा कमरा ग्राउंड फ्लोर पर था। लिहाजा रंजु की कायनी को पूरी हिफाजत से रखने के लिए मैं उसे अपने कमरे में अपने बेड के साथ खड़ी करता था।
एक दिन कुछ दोस्तों के सामने कायनी का जिक्र चल पड़ा। मैंने बताया कि मैं रंजु की कायनी की कितने प्यार से कैसे संभाल कर रखता था वगैराह वगैराह..। ऐसे में रंजु के जवाब ने जो मेरा मजाक बनाया उसको याद करने पुराने दोस्त आज भी ठहाका मार कर हंस पड़ते हैं.. रंजु ने कहा .. यार चेतन तू कायनी को इतना प्यार मत कर। पता चले कायनी तो बिस्तर में थी और चेतन सारी रात खड़ा रहा..।
एक बार रंजु मैडम ड्यूटी ऑफ होने के बाद गुस्से में ऑफिस से बाहर निकली और कायनी चलाने की जिद करने लगी। मैंने मना भी किया मगर वह सुनने को तैयार ही नहीं थी। मन मार कर मैंने कायनी उसके हवाले कर दी और खुद पीछे बैठ गया। फिर क्या था वही हुआ जिसका डर था गेट के सामने ही अपन दोनों अगले ही पल सडक़ पर थे। गनीमत यह थी कि दोनों को चोट नहीं आई। जो इज्जत अफजाई होनी थी हो चुकी थी। रंजु ने इधर उधर देखा और कपड़े वपड़े झाड़ कर चुपचाप कायनी मेरे हवाले कर पीछे की सीट पर बैठ गई। उस दिन रंजु का चेहरा देखने लायक था।
बहरहाल यह सिलसिला जनवरी 1994 में मेरे जनसत्ता ज्वाइन करने तक जारी रहा। इसके बाद खुंदक में रंजु ने कायनी सीखना शुरू किया और आखिर में वह पूरी तरह स्कूटर चालक बन ही गईं। इसके बाद बतौर स्कूटर ड्राईवर मेरी नौकरी भी चली गई।
उन्हीं दिनों एक दोस्त बने यशपाल चौहान। मार्किटिंग के आदमी थे और शायद राष्ट्रीय सहारा में थे। वहीं उनसे मुलाकात हुई। मिल कर अच्छा लगा। नतीजा यह हुआ कि हम अच्छे दोस्त बन गए। वह सेक्टर-47 में रहते थे। उनके पास स्कूटर था। उन दिनों दोनों ही बेरोजगार थे। फिर क्या था। दोनों का मकसद एक ही था। दोनों मिल कर स्कूटर पर पूरे चंडीगढ़ का चक्कर लगाते। कभी किसी अखबार के दफ्तर तो कभी किसी मैगजीन के दफ्तर। कभी पंचकूला तो कभी चंडीगढ़। मोहाली में हिंदी का कोई मतलब ही नहीं था। इसलिए मोहाली से हमेशा दूरी ही रही। उत्तम हिंदु में वह मेरे साथ रहे। वह शादीशुदा थे और उनके तीन बच्चे भी थे। दो तो जुड़वां थे। जुड़वां भी एक खास तारीख के। यानि 29 फरवरी को दोनों का जन्म दिन होता था। भाभी बहुत सीधी सरल महिला हैं। यश के घर मेरा आना जाना बहुत कॉमन हो गया था। उनके पिता का निधन हुआ तब भी मैं उनके साथ रहा।
ये दोस्ती मेरे जनसत्ता ज्वाइन करने तक खूब चली। यहां तक कि जनसत्ता में मोहाली सिटी रिपोर्टिंग के लिए उन्होंने पहला दिन मेरे साथ ही गुजारा। हमने उनके स्कूटर पर ही शहर का दौरा भी किया। इसके बाद हमारा मिलना कम हो गया। हम मिलते रहे मगर काम काज ने हम दोनों को दूर कर दिया।
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