हे सुधांशु ! कहां जा रहे हो? क्षण भर रूको जरा। कहते कहते दीनदयाल जी उसके पीछे पीछे आ गए। सुधांशु बहुत गुस्से में था ,बिना पीछे पलटे ही तल्ख लहजे में बोला कहिए, अब क्या कहना है? दीनदयाल जी अनुनय के स्वर में कहने लगे बेटा, तेरी मां की दवाई खत्म हो गई है। वो ला देता जरा। हिमांशु का गुस्सा अब सातवें आसमान पर था ,वो चिल्लाते हुए बोला मंगवा लीजिए अपनी लाडली बेटी से। क्या करती है घर में? निठल्ली ही तो बेटी रहती है।
समझ गए दीनदयाल जी ये कल रात की घटना का विस्फोट है। उनकी जवान बेटी जब वैधव्य का दुख झेलते हुए उनके द्वार पर आ खड़ी हुई तो क्या उसको दुत्कार देते? उसका भी तो इस घर पर उतना ही हक है जितना सुधांशु का है। क्या अपनी बेटी का भविष्य सुरक्षित रखना कोई गुनाह है? आखिर क्या करेगी वो अब? कैसे अपने दो बच्चों का लालन पालन करेगी? अगर अपनी संपत्ति में से मैने उसको कुछ दे दिया तो क्या हुआ? कोई तूफान आ गया क्या?
सोचते हुए दीनदयाल जी ने साफ साफ कह दिया,संपत्ति मेरी है, में चाहे जैसे उसका बंटवारा करूं।तुम्हें इतना गुस्सा करने की जरूरत नहीं है। और एक बात कान खोलकर सुन लो, ये घर अभी मेरे ही नाम है। जो मेरी और मेरी पत्नी की सेवा करेगा वही इस घर में रह पाएगा।अगर तुम्हें कुछ परेशानी है तो तुम अपना और अपने परिवार का अलग बंदोबस्त कर सकते हो।
दीनदयाल जी की बातें सुनकर सुधांशु कुछ देर चुप खड़ा रहा और फिर पलटकर दीनदयाल जी के पैरों में गिरकर माफी मांगने लगा।दीनदयाल जी ने कहा मैने इसीलिए सुधा का हिस्सा अलग रखा है ताकि मेरे बाद उसे कोई परेशानी न हो। सुधांशु गिड़गिड़ाते हुए बोला कैसी बातें कर रहें पापा आप? मैं हूं ना, में दीदी का पूरा ध्यान रखूंगा।
दीनदयाल जी मुस्कुरा दिए। उनका तीर सही निशाने पर लगा था। उसके बाद सुधांशु और उसकी पत्नी दीनदयाल जी और उनकी पत्नी सहित सुधा का पूरा ध्यान रखने लगे।
सही है,, धन संपत्ति चीज ही ऐसी है जो अपनों को अपनों से दूर करने में जरा भी नहीं हिचकती है।