नूतन को पुरातन से हमेशा शिकायत रही है, आज भी है। इसके बावजूद कि पुरातन से ही नूतन का उद्भव हुआ है। मजेदार बात यह है कि नूतन को यह बात पता है, इसके बावजूद भी..। बात अगर केवल शिकायत तक सीमित रहती तो भी ठीक था, बात अब दोषारोपण तक पहुंच चुकी है। दोषारोपण इसलिए क्योंकि पुरातन - परंपराओं की, सौहार्दता की, मानवता की, और न जाने कितनी अनमोल थातियां सौंपना चाहता है अथवा इसलिए कि उसने नूतन को अस्तित्व दिया। ध्यान देने वाली बात यह है कि नूतन का प्रतिरोध तभी प्रारंभ होता है, जब वह पुरातन का उपभोग कर चुका होता है।
नूतन-पुरातन की इस लड़ाई से साहित्य भी अछूता नहीं है। पिछले कुछ सालों से कई शहरों, प्रांतों के साहित्यकारों से रूबरू होने का अवसर मिल रहा है। हर जगह गुटबाजी-खेमेबाजी। अपने को श्रेष्ठ दिखाने की प्रतिस्पद्र्धा। हम सीखतें हैं वयोवृद्ध वरिष्ठ साहित्यकारों से, फिर उनसे कैसी प्रतिस्पद्र्धा। प्रेम से उनके सान्निध्य में रहो देखो, सब तुम्हारे लिए ही है। यह सच है कि कुछ लेखक (उन्हें साहित्यकार नहीं कहा जा सकता, जो दुराभाव की भावना से इस खाई को और गहरा करते हैं) नवोदित रचनाकारों का शोषण करते हैं, लेकिन अगर हम गौर करें तो ऐसे लोगों के द्वारा ही हमारे अंदर आदमी को पहचानने की क्षमता विकास होता है।
कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जिन्हें यह भी नहीं पता होता कि ‘साहित्य’ किस चिडि़या का नाम है, फिर भी अपनी गंदी टांग से गंदगी फैलाने की कुचेष्टा करते रहते हैं। प्रायः ऐसे लोग नवोदित प्रतिभाओं को दिग्भ्रमित करते देखे जा सकते हैं। सृजनकार के अंदर विनम्रता का होना पहली शर्त है, क्योंकि विनम्रता के अभाव में उसकी ग्राह्य क्षमता स्वमेव नष्ट हो जाती है। और उस पर अगर उसके अंदर अहम् ने घर कर लिया, तो सोने पर सोहागा। फिर तो उसकी रचनाधर्मिता का नष्ट होना तय है, क्योंकि रचनाकार के अंदर का अहम उसके विवेक का नाश कर देगा, फिर कैसे बचेगी उसकी रचनाधर्मिता।
आज का युवा रचनाकार, जो अभी ‘साहित्य’ का क ख ग ..... भी नहीं जानता, उन साहित्यकारों की बुराइयां करता दिखेगा, जिनकी सद्यः रचनायें भी शायद उसने न पढ़ी हों। बुराई करना उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा बन जाता है, और इसके द्वारा वह समाज में दस्त करता रहता है। उसको इस बात का अंदाज़ा नहीं होता कि दस्त के बाद कितनी कमजोरी आती है। जाने-अनजाने वह अपना ही नुकसान कर रहा होता है, ऐसा नुकसान जिसकी भरपाई संभव नहीं होती। अनुरोध है आज के रचनाकारों से कि सृजनधर्मिता के दायित्व का निर्वहन करें, सम्मान देंगे तो सम्मान मिलेगा, नहीं तो अस्तित्व बचाना भी असम्भव हो जायेगा।
डॉ बृजेन्द्र कुमार अग्निहोत्री की अन्य किताबें
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जन्म: 02 जनवरी 1984 को फतेहपुर (उ.प्र.) के रेंय गांव में। पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग (मेघालय) से हिंदी साहित्य में पीएच.डी. उपाधि।हिन्दी साहित्य, अर्थशास्त्र, ग्रामीण विकास व मानवाधिकार में स्नातकोत्तर उपाधियां। विधि में स्नातक उपाधि। मार्गदर्शन, आपदा-प्रबंधन, पारिवारिक शिक्षा व एचआईवी/एड्स तथा गाँधी अध्ययन जैसे विषयों में डिप्लोमा/प्रमाणपत्र कार्यक्रम। कहानी, कविता, समसामयिक लेखन मात्र 14 वर्ष की अल्पायु से। राष्ट्रीय स्तर के शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन-प्रकाशन। आलोचनात्मक कृति 'प्रयाग की साहित्यिक पत्रकारिता' और तीन काव्य संग्रह ‘यादें’, ‘पूजाग्नि’ और ‘ख़्वाहिशें’ प्रकाशित। दिसंबर, 2008 से हिंदी त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘मधुराक्षर’ का संपादन। विभिन्न साहित्यिक, सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्धता। राष्ट्रीय व प्रादेशिक स्तर की एक दर्जन से अधिक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानोपाधियां। लंबे समय तक केंद्रीय हिंदी संस्थान, क्षेत्रीय केंद्र : शिलांग के साथ संबद्ध होकर पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु ‘नवीकरण कार्यक्रमों’ का संयोजन एवं अध्यापन। संप्रति: हिंदी विभाग, सिक्किम विश्वविद्यालय (केंद्रीय विश्वविद्यालय), गंगटोक, सिक्किम में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में अतिथि अध्यापन।
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जन्म: 02 जनवरी 1984 को फतेहपुर (उ.प्र.) के रेंय गांव में। पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग (मेघालय) से हिंदी साहित्य में पीएच.डी. उपाधि।हिन्दी साहित्य, अर्थशास्त्र, ग्रामीण विकास व मानवाधिकार में स्नातकोत्तर उपाधियां। विधि में स्नातक उपाधि। मार्गदर्शन, आपदा-प्रबंधन, पारिवारिक शिक्षा व एचआईवी/एड्स तथा गाँधी अध्ययन जैसे विषयों में डिप्लोमा/प्रमाणपत्र कार्यक्रम। कहानी, कविता, समसामयिक लेखन मात्र 14 वर्ष की अल्पायु से। राष्ट्रीय स्तर के शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन-प्रकाशन। आलोचनात्मक कृति 'प्रयाग की साहित्यिक पत्रकारिता' और तीन काव्य संग्रह ‘यादें’, ‘पूजाग्नि’ और ‘ख़्वाहिशें’ प्रकाशित। दिसंबर, 2008 से हिंदी त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘मधुराक्षर’ का संपादन। विभिन्न साहित्यिक, सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्धता। राष्ट्रीय व प्रादेशिक स्तर की एक दर्जन से अधिक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानोपाधियां। लंबे समय तक केंद्रीय हिंदी संस्थान, क्षेत्रीय केंद्र : शिलांग के साथ संबद्ध होकर पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु ‘नवीकरण कार्यक्रमों’ का संयोजन एवं अध्यापन। संप्रति: हिंदी विभाग, सिक्किम विश्वविद्यालय (केंद्रीय विश्वविद्यालय), गंगटोक, सिक्किम में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में अतिथि अध्यापन।
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