एक वाकया बताये अपने ही परिवार का। मेरे बड़े पापा जो कि बहुत ही सुंदर है, की जब शादी हुई उस वक़्त वो दिल्ली हिन्दू प्रकाश समाचार पत्र प्रेस में उच्च पदाधिकारी थे। और गांव पर दादाजी ने उनका विवाह तय कर दिया था।
उस वक़्त लड़की देखने का रिवाज़ नहीं था, घर का सेवक ही पंडित साथ जाकर लड़की देखता था, और जैसी उसकी आवभगत होती उससे परिवार की स्थिति, संस्कार आदि का भी पता चल जाता था। फिर बड़े बुजुर्ग जाकर रिश्ता तय करते थे।
तो घर के सेवक को शायद कोई दूसरी लड़की दिखा दिया गया था, जब शादी हुई तो सबने देखा कि बड़ी मम्मी ज्यादा ही सांवली है, बड़े पापा थोड़ा नाराज हुए, फिर भी बड़ों की पसन्द पर तब एतराज नहीं जताया जाता था, सो उनकी गृहस्थी अच्छी निभ गई।
उस वक्त हर प्रकार की लड़की की शादी हों जाती थीं, रंग रूप को आधार बनाकर शादी में कोई रुकावट नहीं आती थीं।
पुरानी दुल्हनों का जीवन बहुत कठिनाई भरा होता था।
दादी की शादी सिर्फ 8 वर्ष में हुई थी। और नन्ही उम्र में उन्हें साड़ी पहनकर 1 गज का घूँघट भी रखना पड़ता था।
गर्मी हों या ठंड उनके जीवन में बदलाव नहीं आता था। उन्हें अपनी मर्जी की करने की आज्ञा नहीं होती थीं। सबसे पहले जागना पड़ता था, पति के खाने के उपरांत ही खाना पड़ता था।
दादी के समय की दुल्हनें अपनी पसंद से कपड़े, गहने खरीदने नहीं जाती थीं, घर के मुखिया द्वारा सबके लिए कपड़े, गहने आदि खरीदे जाते थे, और उस पर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं कर सकती थीँ।
मायके जाने को भी विशेष अवसरों पर ही मिलता था, वो भी मायके वाले साजो सामान के साथ आते थे लेने। डोली यानी पालकी में ही विदाई होती थीं।
पति साथ बाहर घूमने नहीं जा सकते थे, सिर्फ बीमार पड़ने पर डॉक्टर पास जाती थीं।
बड़े बुजुर्गों, सास, ससुर की बात मानना ही पड़ता था।
मम्मी के समय की दुल्हनों की शादी जल्दी ही होती थीं, लेकिन जमाना और लोगो की सोच में थोड़ा बदलाव आया।
मम्मी के जमाने मे घूँघट की प्रथा बदलकर सिर्फ सर ढ़कने तक हों गई।
दुल्हनों को साड़ी ही पहनना पड़ता था। लेकिन अब पति साथ घूमने फिरने जा सकती थीं, घर पर सबका भोजन बनवाने या बनाने के उपरांत।
अब दुल्हन पति साथ फ़िल्म देखने भी जा सकती थीं।
दुल्हन को शादी उपरांत भी पढ़ने लिखने, नौकरी करने की आज्ञा थीं, लेकिन कुछ शर्तों के साथ मर्यादित रूप से।
अपने लिए अपनी पसंद की शॉपिंग कर सकती थीं। सास, ससुर पति के साथ बैठकर खाना खा सकती थीं।
लेकिन बड़ो का लिहाज़, उनके आदर्शों का पालन, उनकी हर बात का सम्मान अनिवार्य रूप से निभाती थीं।
10 साल पहले की दुल्हनें भी बहुत हद तक आज्ञाकारी होती थी, मायके और ससुराल में संतुलन बैठाना जानती हैं।
भले ही घूँघट और साड़ी से दूर है लेकिन अपनी हदे जानती है, मर्यादिय कपड़े पहनना और बड़ो का सम्मान करना जानती है।
स्वतंत्र विचार रखते हुए, जॉब, घर, बच्चे, अभिभावक सब कुछ अच्छे से मैनेज कर लेती है।
इनके ऊपर ज्यादा प्रेशर भी नही है परिवार वालों का।
शादी के लिए अपनी पसंद ना पसंद बताने का अधिकार है इन्हें। ये जीवनसाथी के चुनाव में अपने अभिभावक की मर्जी का सम्मान करती है।
आज ही दुल्हन की बात करें तो
जमाना वाकई बहुत तेज़ी से बदला है, और पाश्चात्य संस्कृति ने अपना रंग यहां भी जमा लिया है।
लिविंग रिलेशन में रहकर आज की पीढ़ी अपने जीवनसाथी का चुनाव कर रही है। जो हों सकता है उनकी दृष्टि से सही भी हों, लेकिन मुझे ये पसंद नहीं। भारतीय संस्कृति की बात करें तो हमारे यहाँ आज भी औरत को देवी का रूप माना जाता है।
अब ऐसी लड़कियां जब दुल्हन बनती है, तो उनके चेहरे पर नव वैवाहिक जीवन के प्रति उमंग, हिचक, डर, शर्म, बिछड़ने का दुःख आदि नहीं होता