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प्रवासी. पक्षी

28 अगस्त 2022

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ऊं सरस्वती माताय नमः                   

  

                शीर्षक:       प्रवासी पक्षी


              लेखक:    तरुण श्याम बजाज


कंधे पर बस्ता टांगे संभलते संभलते वह ढलान से नीचे उतरा और पीछे मुड़कर पहाड़ी पर बनी अपनी झोंपड़ी को देखा। आश्वस्त हो वह पंगडंडीयों भरे रस्ते पर अग्रसर हुआ जिसका थोड़ा आगे जाकर घने जंगल मे विलय हो गया और सूरज कि रोशनी बंटती हुई नजर आयी। हृदय मे अति उत्साह लिए उसके निडर कदम उस स्थान कि तरफ बढ़ रहे थे जो बाल्यकाल मे कि गई उसकी वो खोज थी जिसने उसके जीवन मे मित्रों के आभाव को कुछ अवधि के लिए ही सही पर दूर कर दिया था।जैसे जैसे वह अपने गंतव्य के समीप पहुंच रहा था, उसके मन मे अपनी खोज कि छवि बननी शुरू हो गयी जो  पिछली बार से और भी अधिक नूतन और आनंदमयी लग रही थी। उसकी छवि विभिन्न रंगों और मधुर स्वरों से भरी थी। ढलान से उतर कर उसकी मंजिल तक कि यात्रा को उसने अपने कदमों से नाप रखा था और मार्ग दर्शक के रूप मे कुछ विशेष पड़ाव अपने कदमों कि संख्या से चिन्हित किये हुए थे। 750 कदमों पर उसके पथ के दांयी और एक विशाल पीपल का पेड़ पड़ता था जो ना जाने कितनी वृद्ध अवस्थाएं पार कर चुका था और शाखाओं का पूरा ब्रम्हांड संभाले हुए था । कई बार उसके मन मे आया कि इस पीपल के पेड़ कि गुफानुमी शाखाओं के बीच से जाकर लुका छिपी खेले पर उसे ढुंढेगा कौन । और  क्या पता कोई सांप या विषैला जंतु घात लगाकर बैठा हो, यह सोच के भी वह यह पड़ाव जल्दी पार कर लेता । फिर 820 कदमों पर बल खाती हुई अविरल लताएं पथ के दोनों तरफ इतनी सघनता के साथ फैली हुई थी कि मानो अपने वर्चस्व कि क्षुधा को शातं करने मे लगी हों और लताओं को सुसज्जित करते हल्के पीले और गूढ़े लाल रंग के फूल जिनके पराग पर अकसर मधुमक्खियां अपने कटुम्ब सहित धावा बोले रहती थी।इस पड़ाव से लगभग सौ कदमों कि दूरी पर ही नदी कि कलकल करती हुई आवाज सूचक थी कि उसका आखिरी पड़ाव निकट आने को है और ठीक 1040 कदमों कि संख्या पूरी होते ही वो अपने मन मे बसी छवि को वास्तविकता मे देख रहा था । इस नन्हे बालक कि यात्रा के अंतिम छोर पर  प्रहरी कि भांति खड़े थे बांस के पेड़ जो वह  सीमा थी  जहां से नदी का किनारा शुरू हो रहा था और करलव करते विभिन्न प्रजातियों के पक्षी नदी के बीच पड़े पत्थरों पर बैठे अपने अपने कौतुक मे लगे हुए थे।  कुछ समय तक खड़ा  वह इनकी गतिविधियों को बांस के पेड़ों के बीच बने झरोखे से  ध्यान से देखता रहा फिर पास ही पड़ी छोटी सी शिला पर बैठ गया और अपने बस्ते से कापी को खोल उस पन्ने को निकाल लिया जहां इन पक्षियों के निजी जीवन के कुछ तथ्यों का पिछले दो सालों का लेखा जोखा था। उसने अपने जीवन मे ऐसे पक्षी नही देखे थे परंतु उसके स्कूल के पाठ्यक्रम मे एक बार ऐसी चर्चा जरूर हुई थी कि कुछ विशेष प्रजातियों के पक्षी विदेशी इलाकों से कुछ माह के लिए बहुत ही लंबी उड़ान भर  अक्टूबर महीने मे भारत मे कई स्थानों पर काफी संख्या मे आते हैं।उसे  याद था कि उसकी शिक्षिका ने इन पक्षियों को प्रवासी पक्षी का नाम दिया था। और उसने अपने कापी का विषय प्रवासी पक्षी रख दिया , वह प्रवासी पक्षी जिन्हें उसे दो साल पहले  वन के इस भाग का सर्वेक्षण करते हुए नदी के इस किनारे  धूप सेंकते हूए मिल गये। अपनी बौद्धिक क्षमता के बल पर उसने जो जानकारी एकत्रित कि उसको कुछ पैमानों के आधार पर विभाजित कर दिया जैसे संख्या , शरीर का भार, रंग, चोंच का आकार , पंजों का नाप और नुकीलापन ,आंखो कि बनावट, स्वरों के प्रकार, झुंड मे है या अकेले रहते हैं और अंत मे उनके ठहराव कि एक औसत अवधि जिसके लिए वह बिन नागा आता रहता जब तक प्रवासी पक्षी चले ना जाते।कापी मे बनी तालिका मे लिखा गया यह सारा ब्यौरा  इन पक्षियों का पिछले दो सालों के अक्टूबर माह मे बिताये गए जीवन का संक्षेप था जो इन मृदुल जीवों के जूझारू स्वभाव को दर्शाता था । नन्हे कण्ठों से निकले स्वर कभी कभी इतने मधुर लगते पर जब इनका आपसी क्लेश हो जाता तो ऐसे प्रखर हो जाते कि इस बालक को अपने कान बंद करने पड़ते। एक बार तो संख्या न. 3 कि प्रजाति के पक्षी जो गिनती मे 10 थे  संख्या न. 5 कि प्रजाति ,जो अधिक बलवान थी पर गिनती मे एक तिहाई , से भिड़ गये। चोंच से चोंच टकराई , कुछ पंख भी गिरे , पंजों ने भी नोच खसोट का अभ्यास कर लिया और फिर संख्या न.5 के पक्षी  कोपभवन मे चले गये। शायद यही कारण था कि अपनी दंबगई का प्रभाव बढ़ाने के लिए इस बार दोनों पक्ष अपनी बिरादरी से दो तीन पक्षी ज्यादा उठा लाए थे। गुटबाजी चलती रहती थी । धीरे धीरे इस ग्यारह वर्ष के बालक को यह लगने लग पड़ा कि इन पक्षियों के शरीर पर रंगों कि यह विविधता ही शायद उनके भिन्न भिन्न स्वभाव का प्रतीक होंगी ।अगर सफेद रंग शांत स्वभाव को दर्शाता होगा तो गाढ़ा और चमकदार लाल रंग उनकी उग्रता को।नीला रंग शायद उनकी महत्वाकांक्षाओं का होगा तो पीला रंग उनकी चंचलता का। इनके चित्रों को वह उस कापी पर भी उभारा लेता था पर जो रंग उसके पास थे वह प्रकृति द्वारा भरे गये रंगों कि उपमा मे खरे नही उतर पाते थे। आज जब वह कापी खोल पक्षियों कि गणना करने बैठा तो पहले उसकी  नजर बांयी और कुछ ही दूरी पर पड़े एक विशाल पत्थर पर पड़ी जिसके पीछे छिप कोई पक्षी बार बार अपने पंखों को ऊपर नीचे कर रहा था।पंख इतने बड़े लग रहे थे कि यह बालक उनके नीचे आराम से शरण ले ले। एकदम कोयले जैसे काले पंखों को देख उसके मन मे जिज्ञासा और भय दोनों पैदा हुए और अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए वह झरोखे से पीछे हटा और बांस के पेड़ों के पीछे रह बांयी और को चलने लगा।आखिरकार वह उस जगह पर रूक गया जहां से वह पत्थर को अपने समक्ष देख सकता था। देखा तो वहां रिक्त स्थान था पर नीचे  मिट्टी पर बहुत बड़े पंजो के निशान थे ।उन्हें देख उसे उत्सुकता हुई  किनारे पर जाकर छानबीन करने कि पर वह कुछ निर्णय ले पाता ,उसकी नजर पत्थर के ऊपर पड़ी जहां एक अतिकाय पक्षी अपने दोनों पंख फैलाए उस बालक कि दिशा कि तरफ देख रहा था । खड्ग जैसी लंबी चोंच जिसका निचला भाग थैली कि तरह लटका हुआ और सूरज कि रोशनी मे चोंच का पीला रंग तेजोमय लग रहा था जिसको भेदती हुई काले रंग कि धारियां चोंच  पर एक जाल कि तरह फैली हुई थी। चोंच को छोड़ सारा शरीर कोयले जैसा जिस पर गिद्ध जैसी बड़ी बड़ी आंखे लौ सी चमक रही थी जिसे देख बालक के नेत्र एकाग्र हो सम्मोहन अवस्था कि तरफ जाने लगे और उनको दृश्य और परिदृश्य मे सिर्फ वह पक्षी ही दिख रहा था। बालक के नेत्रों मे बनी छवि मे हलचल पैदा हुई जैसे ही पक्षी को छींक आयी और देखते ही देखते पक्षी का काला शरीर लाल रंग मे बदल गया ।यह दृश्य देख बालक हक्काबक्का रह गया और भय से कांपता हुआ झरोखे के पास पहुंचा , कंधे पर बस्ता टांग वापिस वन की और चल पड़ा। जो कदम आते हुए निडरता से भरे थे वो अब भय से ग्रसित हो रहे थे। कुछ क्षेणों मे ही उसने वह पड़ाव पार पर कर लिया जहां से नदी की कलकल कि आवाज शुन्य हो गयी और कीट पतंगों का विलाप शुरू हो गया। जैसे ही वह लताओं के सम्राज्य मे पहुंचा उसे अपने पीछे से पंखों के फड़फड़ाने कि आवाज आयी । वह धीमा हुआ पर रुका नही । उसके श्वास तेज हो गये और तभी अचानक उसके पथ से निकलती हुई एक बेल से वह टकराकर गिर गया। पथ की मिट्टी मे घुली वनस्पतियों कि गंध उसके नथुनों पर दस्तक देने लगी और हथेलियों और बांये गाल पर लगी मिट्टी अपनी ठंडक का प्रभाव छोड़ रही थी। लेटे लेटे उसने दृष्टि घुमायी तो देखा काली मोटी कीड़ियों का एक झुंड किसी कीट पतंगे का शव लेकर जा रहा है।उसके समक्ष पृष्ठभूमि पर फैली लताओं को देख उसे लगा कि वह उसे जकड़ने आ रही हैं । दूर तितलियों का एक जोड़ा अठखेलियां करता हुआ निकल रहा था। होले होले वह घुटनों के बल उठा और अपने कपड़ों कि हालत देख एक नयी चिंता मे पड़ गया। उसकी सौतेली मां को उसकी त्रुटियों का इंतजार रहता है और अब अवश्य ही उसकी जमकर ताड़ना होगी। बस्ते को संभाल जैसे ही वह अपने कपड़ों पर लगी मिट्टी झाड़ने लगा ,उसे अपने पीछे भारी पदचाप सुनाई दिए और वहीं पंखों कि फड़फड़ाहट। उसने निर्णय लिया पलट कर देखने का और जैसे ही वह मुड़ा , कुछ ही कदमों पर खड़ा वही दैत्यकार पक्षी आंखो मे लौ लिए उसे निहार रहा था। बालक एकदम स्थिर मुद्रा मे खड़ा अपने भीतर पैदा हुए अथाह भय से झूझने लगा।इससे पहले कुछ प्रतिक्रिया होती , पक्षी की चोंच के भीतर से एक कनखजूरा खिसकता हुआ निकला पर पक्षी ने उसे वापिस दबोचा और निगल गया। सृष्टि के इस पारितंत्र मे होने वाले आहार जाल को देख बालक घबरा गया और एक कर्णभेदी चीख देता पहाड़ी कि तरफ दोड़ा।हांफते हांफते वह अपनी झोपड़ी पर पहुंचा तो उसकी सौतेली मां झाड़ू लगा रही थी और मुन्ना पालकी मे गहरी नींद मे था। उसके कपडों को मैला देख मां ने कोसना शुरू कर दिया जिसका वह आदि हो चुका था । तीन साल पहले हुई सगी मां कि मृत्यु से लेकर सौतेली मां के आगमन के बाद से ही उसके हृदय मे प्रेम कि परिभाषा बदल गयी थी। कई सीमाओं मे बंध गया था उसका बचपन जो लुक छिप के कभी कभार लांघ लेता उन्हें पर जब पकड़ा जाता  तो कठोर शब्दों के चाबुक उसके हृदय मे निहित चंचल भावनाओं को छलनी कर देते।उसका बाल्यकाल किशोरावस्था से पहले कठोरावस्था कि तरफ जाने लग पड़ा और इसलिए आज अपनी मां के तीखे शब्दों कि उपेक्षा करता अपने मैले वस्त्रौं को उतार झोपड़ी के पास बनी छोटी सी मिट्टी कि हौदी के पानी से निकाला ,सुखने कि लिए टांगकर दूसरी जोड़ी डाली और बिना मुन्ने का माथा चूमे सरपट दोड़ लगायी अपनी पिता कि चाय कि दुकान कि और।

हिमाचल प्रदेश के एक कस्बे मे बनी उसके पिता की चाय की दुकान के मुख्य ग्राहक आसपास बने उधोगों के कर्मचारी थे और बालक सुबह से लेकर शाम तक अपने पिता का हाथ बंटवाता । दोपहर के भोजन के लिए वापिस झोपड़ी मे जाता , अपना भोजन कर पिता जी का भोजन ले आता ,साथ ही अपना बस्ता भी ले आता ताकि दो घंटे पास ही बने सरकारी स्कूल मे शाम की कक्षा लगा सके। सौतेली मां ने इसका कई बार विरोध किया पर उसके पिता दृढ़ थे इस निर्णय को लेकर। सात बजे दुकान बढ़ा कर दोनों साथ वापिस आते पर क्यी बार कर्मचारियों मे से ही बनी कुछ मित्र मंडली रोक लेती उसके पिता को और तब वह रात को नशे मे धुत्त आते। खूब क्लेश होता । पहली पत्नी तो यह सहती सहती सिधार गयी पर दूसरी वाली तो आग मे घी डालती । कभी कभी मुन्ना रो पड़ता तो विराम लग जाता कलह पर और बालक मन ही मन धन्यवाद देता मुन्ना को । छः महीने का मुन्ना ही उसका एकमात्र स्त्रोत   था जिससे वह अपने मन कि बात कर लेता। अपने दिनभर कि गतिविधियां जब उसे बताता तो मुन्ना पूरी ऊर्जा के साथ अपने हाथ पैर हिला उत्सुकता का प्रदर्शन करता। कभी उसकी नाक पकड़ लेता तो कभी बाल खींचता तो कभी अपनी मुष्टिका मे अपने बड़े भाई कि उंगली को पकड़ मुंह मे डाल लेता। यह क्षण बालक के चोटिल मन को सौम्यता प्रदान करते और वह इन क्षणों के दीर्घायु होने कि कामना करता रहता । आज शाम को दोनों बाप बेटा दुकान से आये तो समय पाकर बड़ा भाई छोटे भाई से  विशाल पक्षी के साथ हुए साक्षात्कार को नाटकीय ढंग से बताने लगा। जहां एक विशुद्ध श्रौता कि तरह मुन्ना झोंपडी मे अपने भाई कि बातें सुन रहा था वहीं बाहर एक कुटिल वक्ता कि तरह सौतेली मां ने आलोचनाओं कि लड़ी लगा रखी थी। हीरा ने यह किया ,हीरा ने वो किया ,हीरा ने कपड़े मैले कर दिये, हीरा यह नही करता। हीरा नाम था बालक का जो इस सौतेली मां के अपेक्षाओं के दबाव मे जी रहा था।

रात को कई बार पक्षी के कुस्वप्न उस बालक को आते रहे और उसे अपनी झोंपडी़ के निकट पंखों के फड़फड़ाने का आभास होता। ऊपर से बीहड़ वन से आता निशाचरों का आलाप उसे और भयभीत करता। मध्य रात्रि को कच्ची नींद से जाग जब उसने झोंपडी़ मे बने सूराख से देखा तो वन मे ऊंचे पेड़ों कि शिखांए चांदनी मे ऐसे झूल रही थी जैसे कौई उन्हें जगाने कि कोशिश मे लगा हो। तभी अचानक एक तीक्ष्ण विलाप उठा वन से जिसकी प्रतिक्रिया मे निशाचरों ने भी अपना नाद छेड़ दिया। विचलित हो बालक ने चादर ओढ़ी और सोने कि कोशिश की। सुबह को उठ उसने पथ पर जाने का विचार त्याग दिया और जल्दी स्नान कर पिता जी के साथ ही दुकान पर चल पड़ा। अगले तीन दिनों तक उसका साहस नही पड़ा वन मे जाने का फिर चौथे दिन उन पक्षियों के प्रति उसकी निष्ठा जागी और अपना बस्ता उठा निकल पड़ा उसी पथ पर जो स्वयं उसकी प्रतीक्षा मे था। सचेत इंद्रियों के साथ वह धीमी चाल लिए आखिरकार पहुंच ही गया झरोखे के पास और माथे से पसीना पौंछा । प्रवासी पक्षियों के पुनः दर्शन कर उसका भय क्षीण हुआ और मन मे उत्साह जागा। नदी की दोनों दिशाओं का उसने निरीक्षण किया और किनारे पर पड़े उस बड़े पत्थर के ईर्दगिर्द भी नजर घुमायी पर उस विशाल पक्षी की उपस्थिति का कौई भी चिन्ह नही था और आश्वस्त हो बालक ने कापी निकाल फिर से गणना शुरू कि। अभी कुछ समय ही निकाला था कि उसे अपने पीछे किसी कि उपस्थिति का आभास हुआ और वह शिथिल पड़ने लगा ।मन ही मन ठान लिया कि बस इस बार सकुशल निकल जाये यहां से फिर वापिस नही आयेगा कभी। इस पहले वह  मस्तिष्क मे चल रही किसी योजना को क्रियान्वित करता, पीछे से आयी एक आवाज ने उसे अचंभित कर दिया ।


"घबराओ मत मै तुम्हे कोई नुकसान नहीं पहुचाऊंगा "


आवाज भारी थी पर उसमे मधुरता थी।


किसी और मनुष्य कि उपस्थिति कि संभावना को उस आवाज से जोड़ जब उसने पीछे पलट कर देखा तो कुछ ही कदमों पर वही विशाल पक्षी काला रंग ओढ़े अपने पंख समेटे खड़ा था पर उसके नेत्रों मे वह पहले वाली चमक नही थी। बालक अवाक् सा खड़ा उसे ऊपर से नीचे तक देखने लगा । हूबहू मानवीय पैरों के आकार जैसे पंजे जिनसे निकलते लंबे नुकीले नाखूनों को देख बालक थोड़ा सहम सा गया। उसको सहमा देख पक्षी ने अपने नाखूनों को समेट लिया और अपने कथन से बालक का भय क्षीण करने का प्रयास करने लगा।


"मेरा विश्वास करो, मै तुम्हें कुछ नही कहुंगा"- पक्षी बोला।


बालक( घबराते हुए)- "त..त.. तुम इंसानों की तरह  कैसे बोल सकते हो?"


पक्षी- पक्षियों मे भी कुछ दुर्लभ प्रजातियां है जो मनुष्य की भाषा समझ और बोल सकती हैं। 


बालक (थोड़ा सहज होता हुआ)-" क्या तुम भी एक प्रवासी पक्षी हो ?"


पक्षी - " मै जिस जगह से आया हूं वह एक विशाल टापू है समुद्र से घिरा हुआ जहां एक ज्वालामुखी है जो हर कुछ सालों मे फटता है जिसके कारण हमारी प्रजाति किसी सुरक्षित स्थान पर चली जाती है। इस बार कुछ पक्षियों के झुंड का पीछा करता मै यहां आ पहुंचा ।"


बालक (पक्षी की तरफ कदम बढ़ाता हुआ)-" क्या मै तुम्हें छू सकता हूं"


पक्षी -" जरुर " और यह कहकर वह बालक के निकट आया और अपनी खड्ग जैसी चोंच का उसके समक्ष झुका दिया ।

झिझकते हुए उसने चोंच को छुआ तो उसकी उंगलियां फिसलती हुई आगे पीछे हो इस स्पर्श मे मानो खो गयी और उसके मुख पर कुछ नया अनुभव करने के अहसास से भरी स्मिता तैरने लगी। उसके मन मे पैदा हुए सारे भय लुप्त हो चुके थे और वह अब पक्षी को किसी निजी संपत्ति का आधार मानने जा रहा था। पक्षी, जो उसकी भावनाओं को परख रहा था , अपने पंखों का भी प्रदर्शन करने लगा जिन्हें बालक जैसा ही छूता तो उनमें रंगों का परिवर्तन एक लहर कि तरह आता और फिर औझल हो जाता। निडरता कि सीढ़ी पर चढ़ बालक अब अपने मन मे जन्मे सवालों को पक्षी के समक्ष रखने लगा।


बालक-" तुम्हारा शरीर इतना बड़ा कैसे है ?  


पक्षी-" हमारे टापू पर हजारों वर्षों पहले पेड़ों से भी लंबे और विशाल जानवर रहते थे जो कई बार हमारी प्रजाति के पक्षियों पर भी प्रहार कर देते | हमारे वशंज उसी काल से हैं और इसलिए शायद उस समय कि स्थितियों के अनुकूल कुदरत ने हमे इतना बड़ा शरीर दिया  और हमारे स्वरूप मे ऐसे रंग भर दिये जिन्हें अपनी इच्छा के अनुसार बदल कर दूसरे जीवों को छल सकते हैं।मै अपनी प्रजाति कि वह पीढ़ी हूं जिसे विरासत मे लंबी चोंच और नुकिले पंजे भी  मिले हैं।


बालक-" तो क्या वो पेड़ों से भी बड़े जानवर अब भी तुम्हारे टापू पर हैं।


पक्षी- " मेरे पूर्वज बताते हैं कि एक दिन इतना भयंकर ज्वालामुखी फटा कि की टापू की जमीन पर आग का दरिया बहने लगा और वह जानवर उसमे झुलस कर मर गये। हमारे वंशज समय रहते वहां से उड़ गये और कई साल बाद वापिस आकर वहां फिर से बस गये।

इससे पहले ये प्रशनावली आगे बढ़ती बालक का जाने का समय हो गया। जिस पक्षी के भय ने उसे तीन दिनों तक इस मार्ग से दूर रखा आज उससे मात्र कुछ क्षणों कि भेंट से ही बालक के हृदय मे पक्षी के लिए प्रीती अंकुरित हो रही थी। सौतेली मां का भय ना होता तो शायद अपनी जिज्ञासा को और शांत कर लेता पर इस विचित्र संगति मे आत्मीय बंधन कि अनुभूति लिए वह लौट गया । आयु के जिस पड़ाव को बालक पार कर रहा था उसमे संजोयी गई स्मृतियां अकसर चिरंजीवी होती हैं और भावनाओं के समुद्र को शांत और अशांत रखने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। आज कि यह भेंट बालक के मन मस्तिष्क मे चलचित्र कि तरह  चलने लगी परिणाम स्वरूप अपने दैनिक कार्यों मे उसकी सलंग्नता आज बंट रही थी। पिता को इसका आभास तो हुआ पर वह ग्राहकों के साथ वार्ता मे लगा रहता था। अगली सुबह वह फिर  पक्षी से नये प्रशनों के साथ मिला ।


बालक-" क्या तुम और भी इंसानों से मिले हो?"

पक्षी-" हम इंसानों से दूर रहना पसंद करते हैं पर उनके स्वभाव को अच्छी तरह से जानते है."


यह कह पक्षी कुछ समय के लिय शांत हो गया और उसके मुख पर बालक को कठोर भाव दिख रहे थे।

बालक-" तुम इंसानों से दूर क्यूँ रहना चाहते हो?"


पक्षी( कुछ देर शांत रहा फिर बोला)- हमारी प्रजाति को लगता था कि वो विशाल जानवर ही उनके सबसे बड़े शत्रु हैं जिनका सर्वनाश कर कुदरत ने उन पर बहुत बड़ी दया दिखाई पर वो गलत थे।  ..... सच तो यह है कि उनसे भी प्रबल शत्रु एक दिन हमारे टापू पर आया और मेरे पूर्वजों का शिकार करने लगा।

बालक -"कौन थे वो?"


पक्षी-" मनुष्य" और यह कहते ही उसकी आखें फिर लौ जैसी चमक पड़ी जिनमें कभी बालक को घृणा दिख रही थी तो कभी निराशा।


कुछ क्षणों के मौन के बाद पक्षी ने अपनी व्यथा फिर कहनी शुरू कि।


पक्षी-" चूंकि हम मनुष्यों की भाषा बोल और समझ सकते थे ,जब वो हमारे टापू पर आये तो उन्होंने ने  हमारे साथ मित्रता बढ़ाने कि कोशिश कि । हमें नयी नयी चीजें खाने को दी जो उस टापू पर नही थी। हमारा विश्वास जीत वो हमारे साथ टापू पर रहने लगे और वहां के  अमूल्य खनिजों और फलों को शोषण करने लगे। बड़ते समय के साथ मौका देख वह एक एक करके हमारा शिकार करने लगे। वह कई हथियारों से लैस थे जिनका हम सामना नही कर पा रहे थे। ...   


पक्षी ने फिर मौन धारण कर लिया मानौ किसी गहन सोच मे चला गया हो।


बालक -"फिर क्या हुआ।"


पक्षी (एक लंबी आह भरते हुए)-" एक बार फिर कुदरत ने हमारी रक्षा कि। एक रात को ज्वालामुखी अचानक फट गया और आग के शोले आसमान से बरसने लगे ।नीचे आग का दरिया और ऊपर विषैले बादल मंडरा रहे थे। हमारी प्रजाति ऐसी परिस्थितियों से जूझ चुकी थी इसलिए अपना बचाव किसी तरह कर लिया पर इंसानों ने  अपनी नांव पर पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दिया।

पक्षी-" उसके बाद कौई भी मनुष्य हमारे टापू पर नही आया और अपनी पहचान को सुरक्षित रखने के लिए हमारी प्रजाति ने यह फैसला लिया कि टापू के इर्द गिर्द एक निश्चित सीमा तक ही हम उड़ान भरेंगे। पर मैने......


पक्षी ने यह कह कर अपना शीश झुका लिया मानो किसी ग्लानि मे भर रहा हो। 


बालक-" पर मैने क्या दोस्त?"


दोस्त शब्द सुन पक्षी ने अपना शीश उठाया और बालक के गालों पर अपनी चोंच सहलाने लगा। बालक को मजा आने लगा इस मुलायम स्पर्श से और वह गदगद कर उठा।


बालक( अपनी बात दोहराई)- "पर मैने क्या दोस्त?"


पक्षी-" जब मनुष्य हमारे दोस्त बने तो वो अपनी दुनिया कि के बारे मे बताते । वह तो चल बसे पर अपनी रोमांचक गाथाएं छोड़ गए जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे सुनाई जाती रही ।जब मुझे उनके सुनने का अवसर प्राप्त हुआ तो मैने ठान लिया कि गाथाओं मे बसे इस संसार को जरूर खोजूंगा । पर हमारे इन विशाल पंखों को ईजाजत नही थी ऊंची उड़ाने भरने कि पर मैने इन सीमाओं को लांघ ने का निश्चय कर लिया। जभी भी ज्वालामुखी आग उगलता तो हम सब उड़कर टापू मे बने सुरक्षित स्थान पर चले जाते और ऐसी ही स्थिति का लाभ उठाकर मै इस बार वहां से निकल आया।


बालक-" इसका मतलब तुम एक प्रवासी पक्षी नही हो।"


पक्षी-" नही और मै यह भी नही जानता की मै अपने टापू पर वापिस जा पाऊंगा कि नही।


बालक-" तुम ऐसा क्यूँ सोचते हो?"


पक्षी- " एक तो मैने अपनी प्रजाति द्वारा बनाये नियम तोड़े और दूसरा मेरे भाई बंधु अब तक मुझे मरा हुआ मान चुके होंगे ।


 बालक-" हो सकता है वह तुम्हें ढुंढने के लिए निकले हों"


पक्षी-" वो लोग अपनी सीमा कभी नही पार करेंगे और चाहें भी तो इतनी लंबी दूरी पार करने के लिए ना जाने कितने दिनों तक उड़ना होगा,कितने समुद्र लांघने होंगे, कितने मनुष्य द्वारा बसाए गये नगरों को पार करना होगा। ऐसा कर वह अपनी और प्रजाति के दूसरे पक्षियों कि जान जोखिम मे नही डालेंगे। और मै चाहता भी नही कि जो मूर्खता मैने कि उनमें से कौई और करे।


यह कह कर  पक्षी फिर निराशा मे डूब गया।


बालक-" तुम  चाहो तो इस जगह पर रह सकते हो। नदी के पास, चारों तरफ जंगल से घिरी हुई। नदी मे इतनी मछलियां है कि तुम्हें खाने के लिए इधर उधर जाने कि जरूरत भी नही। और अब तो तुम्हारा एक दोस्त भी हैं यहां"


बालक के इस प्रस्ताव मे निहित थी उसके बालपन कि वह स्वाभाविक मांग जिसमें  निश्छल मन समय के रथ पर सवार सदैव सारथी कि तलाश मे रहता है।वहीं दूसरी और  पक्षी, जो मीलों दूर अपने कुटुम्ब से यहां एकांत मे आ गया  ,अपने शेष जीवन कि रूपरेखा को खींचने कि कयी संभावनाओं को तलाश रहा था। ऐसे मे बालक का यह सुझाव उसकी निर्णायक क्षमता को प्रभावित करने लगा और पक्षी गूढ़ चिंतन मे लग गया। कुछ देर शांत रहने के बाद पक्षी ने अपने मन कि बात रखी।


पक्षी- सच तो यह है कि इस जगह तक आते आते मेरे पंखों मे उड़ान भरने कि ऊर्जा काफी कम हो चुकी है और उन्हें अब विश्राम चाहिए । ऐसे मे यहां रूकना ही मेरे लिए ठीक रहेगा और अब तो मेरा यहां एक दोस्त भी है।

पक्षी का कथन सुन बालक के मुख पर मुस्कान आ गयी जिसे देख पक्षी ने भी वैसे ही भाव दिये।  पुलकित हृदय के साथ  बालक ने  अपने इस नये मित्र से आज के लिए विदा ली और आने वाले क्षणों के उमंग कि कल्पना करता अपने दैनिक कार्यों मे लग गया। अगले दिन कि मुलाकात पक्षी के प्रशनों से शुरू हुई जिनके उत्तर लिए बालक कभी अपने सगी मां से मिले स्नेह के क्षणों के दर्शन कराता तो कभी सौतेली मां के शब्दों से आघात हुए अपने हृदय का वृत्तांत सुनाता। बालक तब खिलखिला उठता जब मुन्ना का विषय छेड़ता और पिता जी कि दुकान पर आये ग्राहकों का भी चित्रण करता। उनकी बातें क्यी बार व्यांग्यात्मक मोड़ ले लेती जिस मे एक बार पक्षी ने बालक कि सौतेली मां कि तुलना टापू के ज्वालामुखी से कर डाली जिसका क्रोध कभी भी फूट पड़ता है परिणामस्वरूप बालक भी किसी सुरक्षित स्थान कि खोज मे लगा हुआ है। इस तरह कुछ दिन निकल गये और धीरे धीरे बाकी प्रवासी पक्षी पलायन करने लगे पर इस विचित्र पक्षी से मिलने के बाद बालक कि कापी मे  उनकी तालिकाओं पर तो मानो विराम लग गया। 

     

                  एक रात जब झोंपडी़ मे परिवार गहरी नींद मे था जो जंगल से किसी जीव का विलाप आना शुरू हो गया जिससे हीरा की नींद टूट गयी और वह उस विलाप को ध्यान से सुनने लगा। एक ही लय मे आवाज बार बार दोहराई जा रही थी जिसमे पीड़ा के स्वर उठ कर आ रहे थे। बालक पूरी एकाग्रता के साथ आवाज को सुन रहा था कि तभी उसे अपने मित्र का ध्यान आया जिसकी आवाज इस विलाप मे झलक रही थी । पक्षी को लेकर उसके मन मे क्यी तरह के भय पैदा होने लग पड़े और उसने निर्णय लिया वहां जाने का। पिता कि टार्च पकड़ उसने हल्का सा उनको हिलाया और शौच का जाने को कह दबे पांवों से झोंपडी़ से निकल ढलान कि तरफ जाने लगा।झोंपडी़ के पीछे सपाट जमीन थी जिस पर एक छोटी क्यारी और काम चलाऊ शौचालय बना रखा था और वहीं से ढलान को नीचे रस्ता उतरता था। बालक ने वहां से खड़े होकर जब ढलान पर टार्च मारी तो रोशनी  एक मोटी लकीर की तरह अंधकार को भेदती हुई नीचे पथ के दोनों तरफ उगी हुई पगडंडियों पर पड़ उनकी छाया को विकराल रूप दे रही थी और देखते ही देखते कीट पतंगों का समूह अंधकार को त्याग इस प्रकाशपुंज मे समाने लगा  । नीचे का दृश्य देख बालक एक क्षण के लिए घबरा गया और वापिसी का मन बनाने लगा परंतु तभी एक तीक्ष्ण विलाप फिर से उठा और बालक टार्च को जोड़ से पकड़ नीचे उतरने लगा। ढलान से उतरकर जिस वन को वह हर सुबह हरी पोशाक मे देखता था आज वह अंधकार कि चादर औड़े कई तरह कि रहस्यमयी और भयानक कल्पनाओं को जन्म दे रहा था । सिर्फ पोशाक ही नही बल्कि वन का शीतल वातावरण भी रात को शिशिरता मे बदल, बालक को ठिठुरने पर विवश करने लगा पर मित्र कि कुशलता के प्रति आश्वस्त होने  के लिए बालक अपने कदमों का गिनता हुआ पथ पर आगे बड़ाता चले जा रहा था ।  चाहकर भी वह हिम्मत ना कर पाया कि टार्च कि किरणों को पथ से हटा वन कि किसी दिशा मे मोड़ दे। क्या पता उसके मन मे चल रही कौन सी कल्पना वास्तविक रूप मे दिख जाए। इस भय से प्रेरित हो वह शीध्र ही अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच गया जो बिंदु था तीक्ष्ण विलाप का।

पहले भी कई बार वह दिन के समय प्रवासी पक्षियों के अनुपस्थिति मे झरोखे से निकल नदी के किनारे बैठ जाता था पर आज इस विलाप का अनुसरण करता वह झरोखे से बाहर निकला तो नदी कि कलकल एकदम शांत थी मानो विश्राम कर रही हो। बालक के पहुंचते ही विलाप भी थम गया और उसे अब हवा कि सांय सांय ही सुनाई दे रही थी।टार्च दांये बांये घुमायी पर ना तो उसका दोस्त दिखा और ना ही कौई प्रवासी पक्षी।बड़े पत्थर के पास जाकर देखा तो उधर भी कौई नही। फिर वहां से थोड़ा आगे जाकर देखा तो पूरा किनारा सुनसान पड़ा था। उसके साहस भरे कदम अब डगमगाने लगे और उसने रुआंसी आवाज मे अपने मित्र को पुकारना शुरू कर दिया।


बालक-" दोस्त कहां हो तुम .....दोस्त....."


तभी उसे अपने पीछे से करहाने कि आवाज आयी और बालक ने पलटकर जब टार्च घुमायी तो उसकी रोशनी किनारे से लगते बांस के पेड़ों पर पड़ी जहां से आवाज आ रही थी पर कोई दिख नही रहा था । इससे पहले वो कुछ समझ पाता अचानक टार्च कि रोशनी मे कोई चीज धीरे धीरे उभरने लगी और उस दैत्याकार पक्षी के रूप मे अवतरित हुई। बालक इतना सहम गया कि उसके हाथ से टार्च छूट गयी और शरीर कांपने लगा। बड़ी मुश्किल से अपने भय पर नियंत्रण कर उसने मुख से बोल निकाले।


बालक-" द..द...दोस्त ये त...तुम हो  ?"


पक्षी कुछ क्षण शांत रहा फिर बोला।


पक्षी-" डरो मत हीरा  यह मै हूं तुम्हारा दोस्त । "


बालक अभी भी सहमा हुआ था और विश्वास नही कर पा रहा था वर्तमान परिस्थिति का । पक्षी भी बालक को ऐसे समय मे देख ,जब वह किसी विशेष प्रक्रिया से जूझ रहा था ,विस्मय मे पड़ गया परंतु वह कोई प्रशन रखता ,उसने सहमे बालक को स्थिर करने का प्रयास किया।


पक्षी-" तुमने जो अभी देखा ,वह हमारे शरीर पर बदलते रंगों कि एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमे हम अपने आसपास के दृश्य से हूबहू मेल खाते रंगों मे अपने आप को ढाल लेते हैं और अदृश्य प्रतीत होते हैं।

ऐसा कह पक्षी  अपने एक पंख को फैलाकर बालक के निकट गया और उसके कंधे पर ऐसे रखा मानो उसे ढांढस बंधा रहा हो । बालक का डर कम कर पक्षी ने  उसके इतनी रात को आने का कारण पूछा।


बालक-" जंगल से बार बार रोने कि आवाज़ आ रही थी और उसे तुम्हारी आवाज समझ मै यह देखने आ गया कि तुम किसी मुसीबत मे तो नही हो दोस्त।"


यह सुन पक्षी का गला रुंध आया और उसने बालक के इस साहस और मित्र के प्रति कर्तव्यनिष्ठा की खूब सराहना कि।

साथ ही मे उसे ध्यान आया अपने मन मे बसी मनुष्यों की उस छवि का जिसमें वह हमेशा उसकी प्रजाति पर अत्याचार करते हुए नजर आये हैं पर हीरा के संपर्क मे आने के बाद उसके निजी विचारों और पूर्वजों कि धारणाओं मे कुछ कुछ अंतर पैदा होने शुरू हो गये थे और आज हीरा के स्नेह और चिंतायुक्त आचरण ने पक्षी को मनुष्यों मे निहित मानवीय भावनाओं के भी दर्शन करवा दिये। फिर द्रवित हृदय के साथ वह बालक से थोड़ा सा पीछे हटा और अपनी गर्दन झुका कर चोंच को खोल दिया जैसे वामन क्रिया को अंजाम देने लगा हो। देखते ही देखते छोटे छोटे रंग बिरंगे रत्न चोंच से निकलने शुरू हो गये और एक ढेर बन गया जो टार्च कि रोशनी मे हीरा की आंखों को चकाचौंध  कर रहा था।


हीरा(आवाक् मुद्रा मे)-" बाप रे बाप.....यह क्या है दोस्त "


यह कहकर हीरा घुटनों के बल बैठ गया और रत्नों को छूने लगा।


पक्षी-" यह वो कारण है जिसके लोभ मे आकर टापू पर आये मनुष्यों ने हमारी प्रजाति का संहार आरंभ किया था । "

हीरा-" मतलब!"


पक्षी -" हर वर्ष हम एक ऐसी पीड़ादायक प्रक्रिया से गुजरते हैं जिसमे हमारे शरीर के एक भाग मे इन बहुमूल्य रत्नों का निर्माण होता है और एक निश्चित वजन होने पर इनकी निकासी आवश्यक हो जाती है नही तो हमारे प्राण भी जा सकते हैं। इसलिए हमारा टापू ऐसे क्यी रत्नों से भरा पड़ा है। मनुष्य जान गये थे यह राज और  इसलिए लालच मे अंधे हो वह हमें मार देते और रत्नों को निकाल लेते।"

हीरा(करुणा भरे स्वर मे)-" काश मै तुम्हारे दर्द को बांट सकता।"


पक्षी-" मेरा दर्द तो तुम्हें देखकर ही चला गया दोस्त । बाकी रही बात बांटने की तो कुछ है जो मै  तुम्हें देना चाहता हूं।"


हीरा-" वो क्या है दोस्त"


पक्षी ने अपनी चोंच से सतह पर पड़े रत्नों के ढेर को बालक की तरफ खिसका दिया।


पक्षी-" अब यह तुम्हारे हैं दोस्त । इनको स्वीकार करो मित्र । वैसे भी यह मेरे किसी काम के नही हैं । पर तुम इनके उपयोग से अपना और अपने परिवार का जीवन बदल सकते हो।


पहले पहले तो बालक पक्षी के इस उपहार को लेने मे  असमर्थता दिखाने लगा परंतु पक्षी के हठ के आगे उसे झुकना पड़ा। वह इन बहुमूल्य रत्नों के आगे मित्रता को अमूल्य साबित कर चुका था पर फिर भी दोस्त के भेंट के रूप मे उन रत्नों को हर्ष के साथ स्वीकार किया। तभी बालक को वापिस जाने कि चिंता सताने लगी और उसने रत्नों को कुर्ते कि जेब मे डाला , टार्च उठायी और पक्षी से विदा लेना ही लगा था कि पक्षी के एक प्रस्ताव ने उसे चिंता मुक्त कर दिया। थोड़ी देर बाद हीरा पक्षी की पीठ पर बैठा नदी के ऊपर उड़ रहा था। दूर पहाड़ियों पर बने घरों कि रोशनियां को देख उसे ऐसा लग रहा था कि दिये जल रहे हों । नदी एक विशाल सर्प कि भांति लग रही थी जिसका एक छोर पहाड़ियों से निकल रहा था तो दूसरा छोर दूर क्षितिज मे समा रहा था। जब वो वन की और मुड़े तो बालक ने एक क्षण के लिए अपने दोनों हाथ फैला लिए मानो वह काल्पनिक पंख हों जिनका विस्तार कर वह गगनचुंबी उड़ान भरना चाहता हो।

निर्देशानुसार पक्षी ने बालक को झोंपड़ी के पास वाली सपाट जमीन पर उतार दिया और इस रात मे बिताये मार्मिक क्षणों कि स्मृतियों को लिए वह वन को लोट गया। बालक ने राहत कि सांस ली जब झोंपडी़ मे जाकर तीनों जन को गहरी नींद मे देखा और अपने स्थान पर जाकर सो गया पर शायद आज उसे नींद नही आने वाली थी।


सुबह को जब वह उठा तो वन जाने का समय निकल चुका था और अब दुकान जाने का समय होने वाला था। ऐसे मे अगर सौतेली मां कि अवेहलना कर वह वन जाता तो निश्चय ही सारे दिन होने वाले क्लेश को नियंत्रण देता। तैयार हो वह दुकान कि तरफ निकल तो गया पर छुपते छुपाते उसने वन को जाता हुआ कोई और मार्ग पकड़ लिया और दौड़ लगाता हुआ पक्षी के पास जा पहुंचा। 

पक्षी सुबह कि धूप मे अपने दोनों पंख फैलाये सुखा रहा था जो नदी के जल से काफी दिनों बाद नहलाए गये। पक्षी को देख बालक हमेशा कि तरह प्रसन्न था पर पक्षी के चेहरे पर एक उदासी थी । 


बालक-" तुम उदास क्यों हो दोस्त ? ... कल का दर्द अभी भी है।"


पक्षी -" नही ऐसा नही है पर शायद आज यह हमारी अंतिम मुलाकात होगी ।"


यह सुन बालक के मुख पर छाये प्रसन्न भाव गायब हो गये और हल्की हल्की सी निराशा तैरने लगी।


बालक-" पर तुमने तो यहां रुकने का मन बना लिया था ।"


पक्षी -" हां मै रुकना चाहता था पर अब मुझे अपने परिवार के पास वापिस जाना होगा।........... शुरू शुरू मे एकांतवास अच्छा लगता है दोस्त पर जिन्हें मै पीछे छोड़ आया हूँ सिर्फ अपनी आकाक्षाओं को पूरा करने के लिए , उनकी पीड़ा तो मेरे वियोग मे अंतिम श्वास तक उन्हें सहजता के साथ जीने नही देगी ।....   इसलिए आज रात को ही मै यहां से चला जाऊंगा।"

बालक पूरी तरह से निराशा के सागर मे डूब गया और उसके गालों पर अश्रु धारा बहने लगी।  सहसा ही इस क्षण मे उसे अपनी सगी मां याद आ गयी जिसके वियोग मे उसने एक सागर सा बहा दिया था परिणामस्वरूप उसकी आंखें इतनी सूख गयी कि नेत्र चिकित्सक को दिखाना पड़ा।  तभी बालक ने अपने आंसू पोंछ लिए और पक्षी से अलविदा लेना का मन बना लिया।


बालक-" तुम्हारी याद आयेगी दोस्त । क्या तुम वापिस आओगे ।"


पक्षी-" अब वापिस आना नही होगा दोस्त। .....पर तुम्हारी भी बहुत याद आयेगी । "


यह कहकर पक्षी कि भी आंखे नम हो गयी । 


बालक-" एक बार जाने से पहले क्या मिलने आ साकते हो झोंपडी़ के पास "


पक्षी - " ठीक है । मै अपनी आवाज से ईशारा करुंगा पहुंचने पर ।"


बालक -" अब मुझे चलना होगा । "


यह कहकर बालक स्फूर्ति के साथ झरोखे से निकला और दौड़ लगायी दुकान के लिए।


आधी रात को पक्षी ने आकर मध्यम आवाज मे ईशारा किया और  कुछ ही समय बाद हीरा अपनी झोंपडी़ से निकल  दबे पांव पक्षी के पास पहुंच गया । पक्षी का ध्यान हीरा के कंधे पर टंगे बस्ते पर गया जो भरा हुआ लग रहा था। इससे पहले वह कुछ कहता ,हीरा ने अपने मन की बात रख दी। थोड़ी देर बाद दोनों क्षितिज कि और उड़ते नजर आये ..............कभी ना वापिस आने के लिए।






कुछ वर्ष उपरांत


एक सरकारी जीप पुल के साथ लगते ही कच्चे रास्ते पर उतर गयी  और बड़े संयम के साथ चालक  पथरीले रास्ते पर वाहन को नदी किनारे लेकर जाने लगा। नदी का स्तर इतना था कि जीप उसे बड़े आराम से पार कर गयी और विपरीत दिशा मे पहुंचकर थोड़ी ही दूर पड़ती जंगल की सीमा को अग्रसर हुई ।  सीमा के सामांतर चलते हुए जीप कुछ ही दूरी पर जाकर रुकी जहां से अब पुल दिखना बंद हो गया और चारों तरफ अरण्य ही अरण्य था और बीच मे बहती नदी जिसमे अवरोधक कि तरह पड़े पत्थरों का सदैव प्रवाह के साथ द्वंद चलता रहता था। चालक जीप से उतरा और पिछला दरवाजा खोल दिया । एक लंबा चौड़ा अधिकारी जीप से निकला जिसने वन विभाग कि पौशाक पहन रखी थी और गले मे बाईनैकुलर्स । अधिकारी ने बड़े प्रयासों के बाद इस क्षेत्र मे अपना तबादला करवाया था और आज दौरा करता हुआ यहां पहुंचा । उसने चारों तरफ नजर घुमायी और फिर कुछ कदम चला । बाईनैकुलर्स से उसने दूर क्षितिज कि और जाती हुई नदी को देखना शुरु किया ही था कि उसके परिदृश्य मे उसे पक्षी उड़ते हुए दिखे हुबहू वैसे ही जैसे बड़े भाई के कापी मे चित्रित थे। अधिकारी के मुख पर मुस्कान आ गयी और वह भाव विभोर होने लगा। पास ही पड़ी किसी शिला पर वह बैठ गया और अपनी जेब से एक चिठ्ठी निकाली जिसे उसका बड़ा भाई हीरा जाने से पहले लिख गया था। यह चिठ्ठी उसकी मां ने,जिसका कैंसर के कारण निधन हो गया , जाने से पहले उसे दी और हीरा के बारे मे बताया। साथ ही मे उसने सौंपी हीरा कि कापी जिसे देखकर मुन्ना को हीरा के जीवन की एक नन्ही सी झलक मिलती थी। जब पहली बार चिठ्ठी और कापी देखी तो मुन्ना कालेज मे था और उसने वन अधिकारी बनने का मन बना लिया । अपने अंतिम दिनों मे सौतेली मां को कैंसर से भी ज्यादा पीड़ा हीरो को स्नेह ना दे पाने की सोच से मिलती थी और बड़े पुत्र का वियोग उसे सताने लगा। ऐसे ही एक दिन स्वप्न मे हीरा हीरा पुकारती वह मृत्यु लोक को निकल गयी।


मुन्ना ने अपने जेब से चिठ्ठी निकाली और उसे पढ़ने लगा।


पूज्य मां, बाबू जी और प्यारे मुन्ना,


जब आप यह चिठ्ठी देखेंगे तो मै बहुत दूर जा चुका हूंगा। मै अपनी मर्जी से जा रहा हूं और शायद कभी वापिस ना आऊं । आप मुझे ढुंढीयेगा मत । मै जहां भी जा रहां हूं वहां खुश रहुंगा । जाने से पहले मै क्यारी के पास कुछ हीरे दबा कर गया हूँ जो मुझे जंगल मे मिले थे। इनसे  आप को खूब धन मिलेगा और आप सब एक अच्छा जीवन बीता सकते हैं और मुन्ना बहुत आगे तक पढ़ लिख सकता है । मां मुझे माफ कर देना मे आपको दुख देता रहा । पिता जी आपसे विनती है की हो सके तो शराब पीना छोड़ दें। मुन्ना को खूब प्यार देना । 


आपका हीरा



                        .       इति।


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प्रवासी पक्षी
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यह कहानी एक बालक और पक्षी के मित्रता पर आधारित है जो समय के साथ एक निर्णायक मोड़ पर पहुंचती है

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