सभी को सदर प्रणाम, कैंची साइकिल चलाने के सुख से शुरू हुई जीवन के इस उलटफेर में न दिन रुका न रात थमी। भगवान से ज्यादा शक्तिशाली समझने वाले लोगो ने भी अपने विकास के रफ्तार को दिन दूना रात चौगुना गति पकड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। लेकिन अदृश्य शक्ति के आगे सबको नतमस्तक होना ही पड़ गया। रेडियो, टीवी, वीसीआर, सीडी से आगे बढ़कर हम कंप्यूटर, लैपटॉप, टैब से मोबाइल पर आ गए। जैसे जैसे आविष्कार हुए उपलब्धियां मिली वैसे वैसे अहम भी बढ़ता गया। वापस घर में बैठने और कुछ न करने के अलावा किसी से मिलने से और गले लगाने से समाज को न कोई परहेज रहा और न ही किसी ने सोचा कि भविष्य में हमे कोई इससे रोक सकेगा। लेकिन समय के काल चक्र ने जब अपनी फिरकी घुमाई तो दिखा तो नही लेकिन सभी ने कोरोना की अनुभूति की। डर ऐसा सताया कि घर से बाहर निकलने में भी हिम्मत बांधने की जहमत उठाना भी इसी समाज के लोगो ने मुनासिब न समझा। इस दौरान जो समाज विकास और मदद की बात कर रहा था उसी में से कुछ ने आपदा को अवसर बना लिया। कुछ ने सेवा किया तो कुछ ने मलाई काट ली। समाज को इसी दौरान लोगो के द्वारा दिखाई गई हकीकत को लेकर मैंने इसे वर्णित करने का प्रयास अपनी इसी पुस्तक "बनते बिगड़ते जमाने के रंग" में किया है। आशा है आपको ये बीते आपदा के अवसर में खट्टे मीठे अनुभवों को ताज़ा करने में सहायक होगी। प्रवीण मिश्र "परम्"
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