राधे माँ' के मामले में धार्मिक पाखंड वाली बात अपनी जगह है और उसका विरोध होना ही चाहिये; पर मैं दो बातों से खुश भी हूँ। पहली यह कि धार्मिक ठगी के व्यवसाय में पुरुष वर्चस्व टूटता हुआ दिखा; और दूसरी यह कि धार्मिक प्रतीकों की जड़ हो चुकी दुनिया में कुछ नयापन और ग्लैमर नज़र आया।
सोचने की बात है कि आखिर साधु या साध्वी को भगवा चोगे में ही क्यों होना चाहिये? जीन्स या स्कर्ट से साधुत्व क्यों दरकने लगता है? सुकरात से तर्क-शैली उधार लेकर पूछूँ तो क्या साधु इसलिये साधु है कि वह चोगे में है; या साधु इसलिये चोगे में है क्योंकि वो साधु है? ठीक वैसे ही, जैसे कि इस्लाम में दाढ़ी है या दाढ़ी में इस्लाम है?
इसलिये, बहस (और नज़र) को 'राधे माँ' के कपड़ों से हटाइये और धार्मिक पाखंड पर केंद्रित रखिये क्योंकि कपड़ों पर टिकी बहस से उनकी नहीं, बहस करने वालों की पोल खुलती है।