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राष्ट्रीय एकता के सूत्र

18 मई 2022

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गंगा आरती का समय हो रहा था।घाटों पर जलते दीयों का प्रकाश आकाशगंगा के तारों का अनुभव करा रहा था।चारों ओर कोलाहलपूर्ण वातावरण था।हर कोई बनारस की गंगा आरती देखने उमडा़ आता था।इस शोर से विपरीत गंगा की सौम्य लहरें किसी तपस्वी की भांति अविचल बह रही थीं।पानी पर पड़ता प्रकाश का बिंब रह -रह कर चमक उठता था।
'ओह! आज नहीं!आज फिर से मैं देरी से नहीं पहुँच सकता।'माधव जी खुद से ही बात करते करते जल्दी-जल्दी घाट पहुँचने की तैयारी में लगे थे।
माधव जी अंततः समय से घाट पर पहुँच गये।जैसे -जैसे काशी की शाम चढ़ती जाती थी,माधव जी का सांस्कृतिक प्रेम हिलोरें लेता था।आरती संपन्न हुयी।भक्तों की भीड़ छँटी।माधव जी घर को आए।
काँचीपुरम के नाम के समान ही संगीतमय उसकी सुबह होती है।एक साथ झंकृत होते मंदिर के घंटे ,उस पर मृदंगम व घटम की झंकार मनवीणा के तार संगीतमय कर देती है।
"इनवे नमतु कलाचारम सिरंततु एनरु नान कुरु किरेन।"
यह कहते हुये सुंदरार अयंगर अपनी मित्र मंडली से विदा लेते हुये निकले।
कहानी के दोनों प्रमुख पात्र भारतवर्ष के दो छोरों पर रहते हैं।एक-दूसरे से अनभिज्ञ ।
अपनी -अपनी संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ समझने वाले,
ये पात्र जब मिलेंगे तो कैसा द्वंद्व होगा।उनकी काशी तो इनकी काँची--कौन जीतेगा?या इस मंथन से निकलेगा ऐसा सूत्र जो बाँध जायेगा इन्हें संस्कृति से परे ,प्रांत से परे,अहं -भाव से परे.........।
भारत मंडल एकता माह का आयोजन ओरछा का राज-परिवार करता आया है।इस बार के अधिवेशन में काशी विश्वविद्यालय के उत्तर-भारतीय संस्कृति के विद्वान माधव वल्लभ शास्त्री व काँचीपुरम के द्रविण कला केन्द्र के संस्थापक श्री सुंदरार अयंगर को न्योता गया है।
माधव जी अपनी पत्नी से बहस कर रहे थे"अरे!तुम क्या जानो ,हमने इस परिपाटी को जीवित रखने के लिए कितने बलिदान दिए हैं,कितनी समरसता है हमारी कला में,संस्कृति में।एक उनको देखो-द्रविडो़ं को -हम से इतने अलग ,हमारे भगवानों के नाम बदल के पूजते हैं,हुंह।
कादंबरी जी जो माधव वल्लभ की सहगामिनी थीं,वे उनके इस विचार से सहमत न होती थीं परंतु अपनी स्फूर्ति किसी वाद-विवाद में खर्च नहीं करती थीं।
काँची में अपने कला केन्द्र में अयंगर जी का पदार्पण हुआ ही था कि शोधार्थी आया और अधिवेशन का न्योता दिया।
"अहा!अतु सरियाना वायप्पु ।"अर्थात् -वाह,यही सही अवसर है-चहकते हुये अयंगर जी बोले।यह स्वर्णिम अवसर था उनके लिये द्रविड़ संस्कृति को बखानने का और इससे बढ़कर कैसे उत्तर भारतीय पद्धतियाँ ,संस्कृति व लोग पिछडे़ हैं -इस स्वनिर्मित जानकारी का प्रचार करने का।
एक सप्ताह बीता।काशी व काँची का आमना-सामना होने वाला था।ओरछा राजसी अतिथि गृह में सबके रहने की व्यवस्था हुयी।अगले दिन से तीन दिवसीय सम्मेलन था और फिर भारत -दर्शन का कार्यक्रम।
उत्तर से माधव वल्लभ शास्त्री तो दक्षिण से सुंदरार अयंगर ,भारत के ह्रदय मध्य प्रदेश के ओरछा पहुँचे।निर्दोष संयोग कहें या ईश्वर की सोची -समझी इच्छा ,दोनों को एक ही कक्ष में ठहराया गया।
दोनों की भृकुटी तनी हुयी थी।अरे!कैसे रह सकते थे माधव एक द्रविड़ के साथ जब उन्होंने इतनी बातें सुनी थीं कि तमिलनाडु में हिंदी भाषी का आदर नहीं होता।अयंगर सोचते थे कि जो अवैधानिक,अतार्किक व कलाहीन उत्तर भारतीय के साथ कैसे रहे?
खैर!निद्रा देवी की कृपा हुयी। अभी के लिये संग्राम टला।
आज का दिन खास है।आज सम्मेलन में माधव जी को बोलना है।समय आया,माधव जी मंच पर गए।
"हमारी संस्कृति ही हमारी एकता का कारण है।हमारा शिल्प,संगीत कितना मनोहर है।
अरे!हम तो इस आर्य-देश के असली निवासी हैं।भारत भर में हमारे संत तुलसी की मानस पूजी जाती है,राम-कृष्ण सभी ने उत्तर भारत की भूमि को चुना।हमारी भाषा हिंदी सर्वाधिक बोली जाती है।हमारी संस्कृति ही श्रेष्ठतम है।"
अयंगर जी बैठे बैठे फड़क रहे थे।उनकी भी बारी आई।मंच पर गए,बोले -"इस मंच से बाहर से आए आर्यों की बात शोभा नहीं देती।यहाँ के मूल निवासी तो द्रविड़ हैं।हमारा संगीत शुद्ध है,नियमबद्ध है।राम ने तो तमिलनाडु की धरती पर शिवलिंग स्थापित किया,यहाँ के समुद्र ने उन्हें सीता तक पहुँचाया।हमारी भाषा तमिल कितनी पुरानी है,कितनी शुद्ध,क्लिष्ट है।हमारी संस्कृति ही सर्वश्रेष्ठ है।
अधिवेशन समाप्त हुआ।दोनों कक्ष में आए।माधव जी तंज करते हुये बोले-आपको तो यहाँ का खान-पान भी अच्छा नहीं लग रहा होगा।चावल ही चावल खाने की आदत जो है।
अयंगर जी टूटी-फूटी तमिलमिश्रित हिंदी में बोले-मैं तो कहता ही था,न आहार में न व्यवहार में उत्तर भारतीय हमारी तुलना कर सकते हैं,भोजन तो हमारे यहाँ होता है।
अगले दिन नाश्ते में गर्मागर्म इडली व सांभर आया।
अयंगर जी इसे खाकर स्तब्ध थे।इतना स्वाद! ऐसा रस!वे चकित थे कि मध्य भारत में इतना अच्छा दक्षिणी-भोजन मिल सकता है।
अधिवेशन का आरंभ संत कवि त्यागराज के गीतों से हुआ जो दक्षिण शास्त्रीय संगीत से सुसज्जित था।माधव वल्लभ के कानों में तो मानो किसी ने मिसरी घोल दी हो।इतना मधुर! इतना कर्णप्रिय!भले ही मुझे समझ न आया परंतु कितना आह्लादित करने वाला है ये भजन।
तीन दिन बीते,वाद हुए,विवाद हुए,कुछ बातें एक-दूसरे की समझीं गईं ,कुछ बताई गईं।
---भारत भ्रमण का पहला दिन -कश्मीर।
वास्तव में जिस अपार दुख को समेटे हुए कश्मीर ने अपनी सुंदरता बनाए रखी ,वह अतुलनीय है। माधव वल्लभ व अयंगर इसके सौन्दर्य में खो गए।अयंगर जी को बताया गया कि यहाँ की बारीक कढा़ई वाली साडियाँ तंजौर से लेकर मदुरै तक भेजी जाती हैं।
उत्तर का केसर ,दक्षिण के व्यंजन सेमिया पायसम को पूर्ण बनाता है।यही तो है वह एकता का सूत्र जो मीलों की दूरी को एक क्षण में पाट देता है।
भ्रमण कार्यक्रम बढ़ता गया,लोग मिलते रहे।
अयंगर के शुभ्र -सफेद वस्त्र और पारंपरिक तिलक लोगों को आकर्षित करते थे।एक संग्रहालय में छोटी बच्ची ने उनके साथ तस्वीर लेने की इच्छा जतायी,उसने बताया कि उसे दक्षिणी पहनावा बहुत प्रिय था और कैसे वह तमिल सीखने की इच्छा रखती थी।
देवभूमि उत्तराखंड आ चुका था। भगवान केदार बर्फ से लिपटे थे।अयंगर ने इस अविस्मर्णीय क्षण को मानस पटल पर अंकित कर लिया।
माधव वल्लभ ने बताया कि दक्षिण के केरल में जन्में आदिगुरु शंकराचार्य ने इस मंदिर की स्थापना की थी। कहते-कहते माधव वल्लभ रुक गए।अयंगर भी सोच में थे।ये वही एकता का सूत्र था जो अनादि काल से उनके मध्य था परंतु संकीर्णता के आवरण से लिपटा हुआ।दोनों को इसका अनुभव हो रहा था।
अनादि-अनंत काशी के दर पर माधव वल्लभ ने सुंदरार अयंगर का स्वागत किया।बनारस की अवधूपित प्रातः ने सबको मंत्रमुग्ध कर दिया।गंगा के जल को अयंगर ने सादर भाव से अंजुलि में भर लिया।
गंगा की लहरों में उत्तर भारत की उनकी संकीर्णता बहती जा रही थी।
काशी विश्वनाथ हो या रामेश्वरम ---ईश्वर तो एक ही है।भाषा भले अलग हो परंतु भाव तो समान ही है।भक्त की भक्ति के भाव की अभिव्यक्ति भिन्न हो सकती है परंतु तत्व तो एक ही है।
अगला पडा़व नैमिषारण्य था।अयंगर व माधव जी ने देखा एक बडी़ सी बस रुकी।उस पर लिखा था श्री मीनाक्षीअम्मन ट्रैवेल्स।कांजीवरम की साडी़ ,सिर पर सफेद-केसरिया गजरों में सजी स्त्रियाँ उतरने लगीं।पुजारी जी को उनकी भाषा समझ न आई परन्तु वह अदृश्य सूत्र अनुवादक का कार्य कर रहा था।माधव वल्लभ चकित थे।उन्हें पता था कि नैमिष के बिना धर्म यात्रा अधूरी है--उत्तर हो या दक्षिण।
अयंगर प्रत्यक्ष देख रहे थे --उत्तर का दक्षिण से मिलन।।
अब वाद-विवाद नहीं हो रहा था।संकीर्णता छँट रही थी।
अगला पडा़व पूना था।रात को शिवाजी के नाटक का मंचन होना था।पर्दा उठा और दुंदुभी से कलाकारों का स्वागत हुआ और जीवंत हो उठे कानपुर में जन्में कविराज भूषण के शब्द---
साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धरि
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत हैं
भूषण भनत नद बिहद नगारन के
नदीनद मद गैबरन के रलत हैं।
माधव वल्लभ सोच में थे।एक मराठी नाटक में उत्तर के कविराज की अवधी रचना!अयंगर स्तब्ध थे -कैसे भाषा सीमाओं को तोड़ती है।क्या हिंदी,क्या मराठी,क्या तमिल!
भ्रमण का कार्यक्रम कर्नाटक तक पहुँचा।हम्पी की विश्व धरोहर।वहाँ उपस्थित लोगों ने बताया यह हलेबीडु़ के मंदिर उत्तर के नागर स्थापत्य व दक्षिण के द्रविण स्थापत्य का सम्मेलन है---वेसर स्थापत्य।
कला भी कैसे जोड़ती है।
दोनों मौन थे।
काँचीपुरम तक यात्रा पहुँची।गंगोत्री के जल से अयंगर ने एकम्बरेश्वरार का जलाभिषेक किया।
जल की धारा ने उत्तराखंड व काँची की दूरी को बहा दिया था।मन का दर्पण स्वच्छ होने लगा था।
यात्रा अब  पूर्व की ओर बढ़ चली।
उडी़सा के पटचित्र ,मोहिनीयट्टम व बंगाल का पुतुल-नाच और छाऊ एक ऐसी विविधता प्रस्तुत करते थे जिसमें रमणीयता थी।
आज सब असम के चाय बागानों में थे।यही पत्ती भारत भर के चाय प्रेमियों के चाय को रंगत देता है। दोनों ने पास ही चाय का आनंद लिया ।यह रंग घुलकर यही संदेश दे रहा था कि कैसे हम सब एक दूसरे पर निर्भर हैं।हर क्षेत्र की अपनी विशेषता है।
असम से लेकर मेघालय की यात्रा मनोरम रही ।मौसम सुहावना था।
माधव जी ने समुद्र दर्शन किये।मन ज्वार की भाँति हिलोरें ले रहा था। क्या भारत की कल्पना इस विस्तृत जलाशय के बिना की जा सकती थी!
मिजोरम के एक छोटे से गाँव में कारवाँ रुका।यहां की संस्कृति कितनी अलग थी।उन दोनों के लिये नयी।पोशाक अलग,बोली अलग,परंपराऐं अलग।
पास के एक स्कूल में कार्यक्रम था।सभी यात्री वहाँ पहुँचे।
भारत की झाँकी प्रस्तुत की गई।पंजाब का भंगडा़ था तो तमिलनाडु का भरतनाट्यम,गुजराती पाटण के लँहगे व आसाम के मेखला चादोर में सजी बच्चियाँ थीं।
कविता पाठ में अशफाक उल्लाह खाँ को पढा़ गया तो राम प्रसाद बिस्मिल को भी।
कला-प्रदर्शिनी में बिहार की मधुबनी थी तो आंध्र की कलमकारी ।राजस्थान की कठपुतली थी तो कर्नाटक की गोम्बयेट्टा।कैसे एक साथ कलाम मंदिर की सीढियों पर खेल कर बडे़ हुए तो कैसे सैयद अबदुल्लाह शाह 'कादरी बुल्लेशाह' सर्वधर्म के पूजनीय बने,यह भी दिखाया गया।
संगीत कार्यक्रम में अवध का रसिया,सोहर था तो बिहार का मैथिली संगीत।
केरल का सोपान संगीथम था तो त्रिपुरा का तमांग सेलो।
अंत में राष्ट्रगान हुआ।सभी एक साथ गर्व के साथ खडे़ थे।माधव व अयंगर सोच में थे--क्या मिजोरम में लोगों को राष्ट्रगान के बोल समझ में आते हैं?दूसरे क्षण मन ने कहा --यही वो भावना है जो हमें बाँध कर रखे हुए है--एकता की भावना।हम इसमें भारतीयता को देखते हैं न कि भाषा को।यह भावना हमें एक रखती है।इतने रंग हैं,इतने धर्म,इतनी बोलियाँ ,इतनी परंपराएँ,सहस्र प्रकार के लोक गीत-नृत्य,पहनावा।
यदि हम बँधे हैं एक भारतवर्ष के नागरिक के रूप में तो वह इसी एकता की भावना के कारण।यह विविधता बाँटती नहीं जोड़ती है।जीवन में रंग भरती है,हमें भागी बनाती है उस संस्कृति का जो विविधता में भी संगठित है।
उत्तर हो या दक्षिण,पूर्व हो या पश्चिम अंत में सब एक ही महान भारत की संताने हैं।
एक दूसरे की संस्कृति के प्रति द्वेष भाव बह चला था।मन निर्मल था।माधव वल्लभ शास्त्री और सुंदरार अयंगर व्यष्टि भाव से समष्टि भाव की ओर अग्रसर थे।
काशी और काँची मुग्ध थीं।आज सीमाएँ विलुप्त हो गई थीं।मन में बस एक चित्र था--एकता में बँधे भारत का।
समाप्त।

प्रभा मिश्रा 'नूतन '

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