shabd-logo

सानिध्या

31 अक्टूबर 2023

11 बार देखा गया 11


article-image

अंततया , अंतिम रूप से रेलवे की परीक्षा में चयन के बाद आज देहरादून से
दिल्ली जा रहा हूँ  । सारा सामान पैक कर लिया हैं । घर-परिवार स्टेशन तक
छोड़कर चला गया हैं । स्टेशन पर पहुँचते ही ट्रेन का आव्हान सुनाई दिया ,
खेर ट्रेन छूटने से बच गयी । भीड़ काफी अधिक हैं पर पहले से सीट आरक्षित कर
लेने के बाद असुविधा की कोई ख़ास बात नही हैं । डिब्बे में फिलहाल कुछ ही
लोग हैं जिनसे भी बात करने में मेरी कोई विशेष रूचि नही है । भाग-दौड़ में
मनोविनोद की कोई पुस्तक लाना भूल गया हूँ  अत: शयन करके ही यात्रा पूर्ण
करूंगा । पास में देखा एक स्टॉल रखा हुआ हैं । कुछ देर मौन बैठे रहने के
बाद आराम करने की मन में सूझी , पास में रखे स्टॉल को हटाने लगा तो हाथ एक
डायरी पर पड़ा शायद किसी यात्री की छूट गयी है । नाम देखा किसी ' सानिध्या '
की डायरी हैं खैर जो भी है अब सफ़र काटने का सहारा तो मिल ही गया है । जो
जैसा है उसी क्रम में आपको पढ़कर सुना रहा हूँ ।
बचपन में जो मांगती थी
पापा सिर्फ वो ही लाकर देते थे ,शायद इसलिए क्यूंकि वो जान चुके थे कि उनकी
बेटी अपनी जरूरते अच्छी तरह से समझती हैं । जब भी पापा द्वारा दिए गए
खिलोनों को याद करती थी ,मुझे उसमे गुड़िया और किचन सेट कही भी नजर नहीं आते
थे । शायद पापा कभी चाहते ही नही थे कि मैं लोगों से खेलकर गृहस्थी तक ही
सीमित रह जाऊं । ग्रामीण विद्यालय से निकलकर जब कस्बे के बड़े विद्यालय में
पहुंची तो वहाँ  चुनिन्दा लडकियों को देखकर महसूस हुआ कि शायद इस क्षेत्र
मे लडकियों की कमी है । दो दिन बाद घर आये किसी दादा का संवाद सुना -:
"लडकियों का काम तो चूल्हा-चोकी का हैं ; इनको पढ़ाकर क्यू अपव्यय कर रहे
हों ; इन्हें दूसरो के घर ही तो जाना हैं ; मोहल्ले में से कोंनसी लड़की
पढ़ने जाती हैं ; तेरी ही बेटी इन्जिनियर बनेगी क्या ? " उस दिन मैं समझ गयी
की विद्यालय में लडकियों की कमी का कारण क्षेत्र में लडकियों की कमी नहीं
बल्कि समाज में मेरे पापा जैसे लोगो की कमी हैं । पर ये इंजिनीयर शब्द
बार-बार परेशान कर रहा था कि ये होता क्या हैं ? दूसरे दिन विद्यालय में
इसके बारे में पता किया फिर क्या था , लग गयी इंजिनीयर बनने में ।
विद्यालय
में मेरे दोस्तों की संख्या नगण्य थी । इसका मूल कारण शायद मेरी साफगोई की
आदत थी । बोलने से ज्यादा सुनना पसंद करती हूँ  पर किसी सामाजिक घटना में
मेरी भूमिका मूकदर्शक की बिल्कुल नहीं होती थी । विद्यालय में लडकियों की
कमी ने मेरी लडको से दोस्ती को बढ़ावा दिया लेकिन लडको के प्रति मेरी
मूलचेतना के भय ने इसे सीमित किया । फलस्वरूप मेरे अधिकांश दोस्त मूलतया:
किसी न किसी प्रकार से मेरे सम्बन्धी ही थे । सारे सम्बन्ध मेरे लिए एकदम
स्पष्ट थे । मैं उनमे किसी भी प्रकार की कमी या बढ़ोतरी नहीं चाहती थी
क्यूंकि मेरा मानना था कि किसी भी प्रकार की सम्बन्धमिश्रित्तता जटिलता को
जन्म देती हैं और यह जटिलता अंततया एक साथ कई संबंधो को चकनाचूर करने का
माद्दा रखती हैं । अत: इनसे बचाव मैं अपने व अपने परिवार के प्रति नैतिक
जिम्मेदारी के रूप में करती हूँ , न की मेरे प्रेम संबंधो से अलगाव की वजह
से । इस बात से मेरी एक घटना ताज़ी हो गयी , बात तब की हैं जब मेंरी उम्र 18
वर्ष से कुछ ही अधिक रही होगी । तब मेरे एक सम्बन्धी ' भैया ' ने मेरे साथ
सम्बन्ध प्रतिस्थापित करने की कोशिश की । शुरु-शुरू में मुझे यह एक छीछला
मजाक लगा पर एक लम्बे संवाद के बाद मैंने पाया की यह मजाक नहीं अपितु उनके
द्वारा सम्बन्धमिश्रितता को चरम पर पहुंचाय जाने की फूहड़ साजिश थी ।
शुरू-शुरू में उनकी मनमोहक बातों ने मुझ पर असर किया पर मेरी नैतिक चोकसी
के आगे यह बाते तृण मात्र से अधिक नही थी ।अत: मैं यह जिम्मेदारी निभाने
में सफल रही । कभी-कभी सोचती हूँ  कि क्या ये नैतिक जिम्मेदारी सिर्फ
लड़कियों की ही हैं या लड़को की भी ? शायद नही ! शायद समाज ने लड़को को कुछ
ऐसे अनैतिक अधिकार दे रखे है जिनकी परिधि में परिवार भी शामिल हैं । पर
कौनसा समाज? हाँ वही समाज वो आपसे और मुझसे ही मिलकर बना हैं ।
जैसे ही
मेरी स्कूली शिक्षा खत्म हुयी । आईआईटी की तैयारी करने की बात पूरे गाँव
में चर्चा का विषय बन गयी । घर से निकलते ही मेरे सामने कई चेहरे होते थे ।
सब पर संकोच व अविश्वास के साथ द्वेष और हास्य का भाव , गोरतलब है कि इन
चेहरों में से कुछ चेहरे लड़कियों के भी थे...ध्यातव्य हैं कि मैं भी एक
लड़की ही हूँ । पर शायद समाज ने लड़कियों की मानसिक स्थिति पर इतना गहरा
प्रभाव जमा रखा है कि लडकियों को भी मेरा बाहर जाना अनोचित प्रतीत हो रहा
था । मेरे घर में लोगो को आना-जाना लगा रहा ।संवाद का एक ही बिंदु होता
'मेरी आईआईटी की तैयारी ' । तैयारी खर्चीली थी;शहर गाँव से बहुत दूर था
,शहर में परिचितों की कमी थी । लोगो ने मेरे प्रति अविश्वास की कई मिथ्या
बाते पापा तक पहुंचाई पर उनका असर पापा पर शुन्य था । शहरो में लड़कियों के
साथ होने वाले अपराधो का डर पापा को भी था पर इतना नहीं कि इससे मेरी
वैचारिक स्वातंत्र्य का संकुचन कर दे ।
अंतिम रूप से दिल्ली में एक
ख्यातिपूर्ण संस्थान में प्रवेश लिया । दिल्ली ने मेरे खुलेपन को दोगुना कर
दिया । संस्थान में जिस उत्साह से गयी थी वो तब और अधिक बढ़ गया जब मैंने
पाया कि ग्रामीण विद्यालय की तुलना में यहाँ पर लड़कियों का अनुपात लगभग
थोडा बराबर था । अधिकांश लड़के-लड़कियां साथ बेठे थे । विद्यालय की तरह
लड़के-लड़कियों के बीच 'अंतर्राष्ट्रीय बॉर्डर' प्रकार की कोई व्यवस्था नही
थी । गौर करने वाली बात यहाँ यह थी कि सब अपने से विपरीत लिंग के व्यक्ति
के साथ सामान्य भाव से शुरू करके एक विशिष्ट संबंध बनाने की ताक में थे ।
या तो शायद यह सही था या फिर मेरे ग्रामीण परिवेश से जुडी मानसिकता का
प्रभाव था । लड़के व लड़कियों के मिश्रित समूह से बचते हुए में किसी ग्रामीण
परिवेश की सभ्य लड़की के साथ ही बैठी थी
धीरे-धीरे दिल्ली के रंग ने मेरे
मनोविज्ञान को शहरी परिवेश की तरफ मोड़ दिया था । इसका अंदाजा इस बात से
लगाया जा सकता था की जो ' शॉर्ट्स ' पहनना ग्रामीण परिवेश की लड़की के लिए
दुष्कर या कहे तो अपराध बोध के जैसा था , वो अब मेरे सामान्य जीवन का अंग
बन चुका था । कभी-कभी सोचती हूँ ,  शायद ग्रामीण परिवेश में शॉर्ट्स पहनना
इसलिए भी दुष्कर था क्यूंकि ग्रामीण लड़कियां इस बात से अवगत नही थी कि
शॉर्ट्स में सिर्फ पैर ही स्पष्ट नही दिखते अपितु पैरो में पहने हुए चप्पल
और भी अधिक स्पष्ट दिखते है जिनके द्वारा शॉर्ट्स पर अभद्र टिप्पणी करने
वालों पर यथासंभव तीव्रता से प्रहार करना भी संभव था ।
दिल्ली में
देखते-देखते 6 माह कब बीत गये पता ही नहीं चला । बहुत सारे लोगो से मेरी
दोस्ती और सहजता थोड़ी और बढ़ गयी थी । उस दिन मैं और संजय साथ बैठे थे ।
दिल्ली आने के बाद पहली मुलाकात संजय से ही हुई थी । संस्थान और रहने का
स्थान पास होने के कारण मित्रता अन्य लोगो की तुलना में थोड़ी गहन हो गयी थी
। यहाँ जिस परिवेश में हर कोई किसी का किसी न किसी प्रकार फायदा उठाने की
ताक में रहता था ,संजय का व्यवहार न सिर्फ मेरे प्रति सामान्य था अपितु
अधिक अपना-सा था । या कहू तो ऐसा की गाँव से इतना दूर होने के बाद भी मैंने
कभी ऐसे महसूस नही किया की मैं अकेली थी । उस दिन संजय ने अचानक थोडा अधिक
नजदीक आकर पूछा:- " क्या हम ऐसे रिश्ते में जाने का सोच सकते है ,जैसे
रिश्ते यहाँ अधिकतम है ? " मैं समझ नही पायी थी। मेरे दुबारा पूछने पर संजय
ने स्पष्ट शब्दों में कहा :-"मैं तुमसे प्यार करता हूं ।" पता नही क्यूँ
इस बार संजय की आँखे बयां कर रही थी कि वह भी सब जैसा ही था बस यह फायदा
उठाने का लम्बा और अधिक सज्जन तरीका था । इस बात का आभास होते ही मेरा हाथ
पर्याप्त गति से संजय के गाल पर पड़ा और मैं वहां से उठकर चली आई । बाद में
सोचा की इतनी अव्यावहारिक प्रतिक्रिया की शायद यहाँ आवश्यकता नही थी ; हाँ
माना थप्पड़ मारना मेरी गलती थी पर मूल गलती उसकी ही थी । दुसरे दिन ही जाकर
उससे सॉरी बोल दिया था , थप्पड़ मारने के लिये बाकी गलती तो उसी की थी;
उसने सॉरी को अनसुना कर दिया ,मेरे दुबारा बोलने पर भी उसने कोई
प्रतिक्रिया नही दी ; मैं वहां से आ गयी । कुछ दिनों बाद उसने बहुत प्रयत्न
किया कि मुझसे बात करे पर मैंने नहीं की , ये मेरा 'ईगो' था या
'आत्मसम्मान' मैं नही जानती पर सच तो यह हैं कि मैंने उससे अभी तक बात नहीं
की है ।
अगले महीने 'आईआईटी प्रवेश परीक्षा' का पेपर था । मेहनत बहुत
जोरो-शोरो से की थी । करती भी क्यों न इतने लोगो की उम्मीदे जो जुडी थी और
कैसे भूल सकती थी कि यहाँ तक भेजने के लिए पापा ने क्या-क्या सहा हैं। पेपर
हुआ; परिणाम आने के बाद मेरी स्थिति असामान्य थी;स्वाभाविक हैं मेरा चयन
नही हुआ था । आँखों में आंसू उतने ही थे जितने किसी ऐसे प्रतिभागी की आँखों
में होते है जिनका अधिक मेहनत के बाद भी चयन नही होता हैं । खेर कुछ दिनों
में मैं सामान्य हो गयी थी ।
इस बार जब गाँव आई तो सबके चेहरे पर हास्य
का भाव था ..,..मेरी असफलता के आनंद का भाव । लोगो का घर पर आना-जाना वैसे
ही लगा था जैसा दिल्ली जाते समय था पर इस बार संवाद का मूल बिंदु था:-
'सांत्वना' और 'शादी' । यहाँ पर स्पष्ट कर दूं  कि मेरे पापा ने मेरी सारी
इच्छाओ को सहर्ष स्वीकार किया हैं सिवाय मेरी शादी न करने की इच्छा के । पर
यह बात किसी भी माता-पिता के लिए एकदम सहज नही हैं। ध्यातव्य हैं की शादी न
करने का फैसला मेरा प्रेम के प्रति अलगाव नही हैं । मेरा मानना है कि
वैवाहिक जीवन लड़की की स्वतंत्रता को क्षीण कर देता हैं। वह वो नही रह जाती
जो वो शादी के पहले होती हैं और कोई भी लड़की यह नही चाहती की उसे पराधीनता
में जीना पड़े । मैं शादी को एक दोहरे समझोते के रूप में देखती हूं और मैं
अपने जीवन में ऐसे समझोते करने के लिए तैयार नही हूँ ।किसी के द्वारा मेरा
फायदा क्यों उठाया जाना चाइये, यह भी तो एक पक्ष हैं; या फिर कभी ऐसी
परिस्थति नहीं बनी जिसमें मैं शादी करने के बारे में सोच सकू । फिलहाल
कारणों के विषय में पूर्णत: स्पष्ट नहीं हूं । शायद भविष्य में अपने फेसले
में कुछ बदलाव करु । यहाँ स्पष्ट कर दू की शादी के विषय में यह मेरी
व्यक्तिगत मानसिकता हैं ।
इस बार दिल्ली आयी तो एकदम सहज थी । अगले
सफ्ताह आईआईटी प्रवेश परीक्षा का परिणाम आने वाला था । इस बार मैं पर्याप्त
खुश थी क्यूंकि इस बार मेरा चयन हो गया था । इस बार जब गाँव पहुंची थी तो
माहोल थोडा अजीब सा लगा चेहरे पिछली बार की तुलना में थोड़े कम थे पर अधिकतम
के चेहरे संकोच और लज्जा से युक्त थे शायद इतना बुरा-भला कहने के बाद मुझे
बधाई देने का साहस नही जूटा पा रहे थे । कुछ लड़कियों के चेहरों पर कुछ
बनने का विशेष प्रकार का उत्साह था जो मैं बचपन से खुद में देखती थी । इसके
बाद हमेशा की तरह ही घर पर लोगो का आना-जाना लगा रहा संवाद का बिंदु था:-
बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ , लड़कियों की स्वंत्रता व समाज का इसके प्रति
दायित्त्व । ऐसे ही कुछ दिन बीत चुके थे । मेरी उम्मीद थी कि मेरे चयन के
बाद लड़कियों का शिक्षा की तरफ झुकाव बढेगा और समाज का दबाव थोडा कम होगा
परन्तु इसका इतना प्रभाव नही पड़ा था । सवाल था शुरू कौन करता शायद सही भी
हैं - "दुनिया का हर समाज क्रांति चाहता है, बस क्रांतिकारी अपने घर का
नहीं होना चाइये।"
ट्रेन रुकी मैं दिल्ली पहुँच गया हूँ । मन में समाज
की छिछली मानसिकता के प्रति द्वेष और आक्रोश का क्षणिक भाव मेरे चरम पर था ।
परन्तु यह चंद पृष्ठो की कहानी मेरी पितृसत्तात्मक मानसिकता पर अधिक
क्षणों तक हावी नहीं रह सकी। मैं नहीं चाहता कि इस पितृसत्तात्मक सोच को
खत्म करने वाली कोई भी चिंगारी इन पृष्ठो के द्वारा समाज में जन्म ले । अतः
समाज में पुरुष प्रधानता को बनाये रखने और स्त्री आक्रोश के दमन को अपना
कर्त्तव्य मानते हुए इस पुस्तक के अंश को आग के हवाले करके जा रहा हु और
खुश हूं की मैंने स्त्रियों को समाज मैं आगे बढ़ने की संभावना को खत्म कर
दिया ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सैकड़ो वर्षो से हमारे पूर्वजो ने स्त्री
इतिहास और साहित्य को दबा रखा हैं। रेडियो में कुमार विश्वास की आवाज़ में
प्रसाद जी की कुछ पंक्तियों की ध्वनि आ रही है - " नारी तुम केवल श्रद्धा
हो , विश्वास रजत नग पगतल में; पीयूष स्त्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर
समतल में " ध्वनि धीरे-धीरे कम होती जा रही थी और मैं शुन्य की और बढ़ रहा
हूँ ।..........

लखन नागर की अन्य किताबें

प्रभा मिश्रा 'नूतन'

प्रभा मिश्रा 'नूतन'

बहुत खूबसूरत लिखा है आपने पढ़ें मेरी कहानी कचोटती तन्हाइयां 🙏

31 अक्टूबर 2023

लखन नागर

लखन नागर

31 अक्टूबर 2023

कहानी पढ़ने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार |

1
रचनाएँ
सानिध्या
0.0
सानिध्या ग्रामीण परिवेश की एक लड़की की कहानी हैं जो विभिन्न चुनोतियों को पार करके अपने सपनो को पाने के लिए एक बड़े शहर में जाती हैं | कहानी में कुछ स्तरों पर स्त्री मनोविज्ञान ( ग्रामीण परिवेश के सन्दर्भ में ) को भी छूने का प्रयास किया गया हैं |

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए