दो हज़ार सोलह
कर सके तो इतना कर दे,
ये जो खाइयां-सी खुद गई हैं न दिलों में
नफ़रत और पराएपन की, इन्हें भर दे
और दे सके तो
शासकों में इसके लिए फ़िकर दे,
और फ़िकर भी जमकर दे
भ्रष्टाचारियों को डर दे,
और डर भी भयंकर दे।
संप्रदायवादियों को टक्कर दे,
और टक्कर भी खुलकर दे
बेघरबारों को घर दे,
और घरों में जगर-मगर दे
ज़रूरतमंदों को ज़र दे,
और ज़र भी ज़रूरत-भर दे
कलाकारों को पर दे,
और पर भी सुंदर दे
उनमें चेतना ऐसी प्रखर दे,
कि खिडक़ियां खुल जाएं हट जाएं परदे
प्रश्नों को उत्तर दे, उत्तरों को क़दर दे
विचार को बढ़ा, ग़ुस्सा कम कर दे,
मीडिआ को टीआरपी दे
पर सच्ची ख़बर दे
ख़ैर, ये सब दे, दे, न दे
तू तो बस इतना कर दे,
ये जो खाइयां-सी खुद गई हैं न दिलों में
नफ़रत और पराएपन की, इन्हें भर दे
-डॉ. अशोक चक्रधर