समर्पण: -
एक बार नारद जी ने द्वारकाधीश से पूछा- "प्रभु! क्या कारण है की सर्वत्र संसार में राधे-राधे हो रहा है। आपकी महापटरानी 'रुकमणी' और अन्य रानियों को तो ब्रज तक में कोई याद नहीं करता।"
कृष्ण यह सुनकर नारद के सामने ही पलंग पर धड़ाम से गिर गए।
घबराए हुए नारद ने पूछा- क्या हुआ प्रभु !
तब श्री कृष्ण ने कहा- नारद मेरे सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है, तुम कुछ करो।
नारद को आश्चर्य हुआ। वे बोले- कि आप त्रिलोकीनाथ हो, आप ही बताओ मैं क्या कर सकता हूं?
कृष्ण बोले -"मेरे किसी सच्चे भक्त के पास जाकर,उसके चरणों की रज लेकर आओ, उसे मेरे मस्तक पर लेप करूंगा, तो दर्द ठीक हो जाएगा।"
नारद जी असमंजस में वहां से दौड़े और सबसे पहले रुक्मणी के पास जाकर, उन्हें अपने चरणों की धूलि देने को कहा।
रुक्मणी ने अपने पांव पीछे खींच लिए। वे बोली कि, "यह आप क्या कर रहे हो ? कृष्ण मेरे पति हैं, मेरे चरणों की रज यदि उनके माथे पर लगी, तो मुझे नर्क में जाना पड़ेगा!"
यही जवाब अन्य रानियों ने भी दिया।
नारद निराश हो गए और तुरंत मन की गति से राधा जी के पास पहुंच कर, उन्हें सारी बात बतलाई।
राधा अत्यंत व्याकुल हो गई और नारद से पूछा -मेरे प्रभु को सर में दर्द हुए कितनी देर हो गई ?
नारद ने बतलाया कि, यही कोई दो घंटे हुआ है।
इस पर राधा नारद जी पर नाराज हो गई। उन्होंने कहा- "मेरे प्रियतम को दो घंटे से जो वेदना हो रही है, उसके लिए आप ही जिम्मेवार हो। आप मेरे चरणों की रज लेने तुरंत ही क्यों नहीं आए। अभी जितनी ले जाना हो, ले जाओ। उसके बदले में मुझे, एक बार तो क्या, हजार बार भी नरक जाना पड़े, तो स्वीकार है।"
राधा की चरण रज लेकर नारद कृष्ण के पास पहुंचे ।
कृष्ण ने उस रज का अपने मस्तक पर लेप किया और सिर दर्द ठीक हो गया।
कृष्णजी ने नारद से पूछा- "कुछ समझ में आया कि, सर्वत्र राधे-राधे क्यों हो रहा है?"
नारद बोले कि, हां समझ में आ गया प्रभु! "और यह भी समझ में आया कि, आप जिससे प्रेम करते हो, उसे एक क्षण भी तकलीफ में नहीं देख सकते। चाहे उसके बदले में आपको कैसा भी त्याग क्यों ना करना पड़े।"
यही सच्चा प्रेम है। समर्पण लेने की बात नहीं सोचता, केवल देने की सोचता है, केवल देने की।।