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शहर

8 जून 2016

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ये शहर भी कितने अजीब होते हैं न ! जब हम किसी नए शहर में जाते हैं तो हमे वो पसंद नहीं आता, क्यू की वो हमारे पुराने शहर जैसा नही होता! सब नया हो जाता है, लोग नए, बोली नयी, खाना नया, पानी नया और इन सबके लिए आप भी नए। धीरे धीरे हम वहां रमने लगते हैं.. फिर सब अपने हो जाते हैं, शहर अपना हो जाता है, लोग अपने हो जाते हैं... अपने दोस्त, अपना कमरा, अपना अड्डा .. अपना शहर 

मुझे याद है 19 जुलाई 2007 को जब मैं पहली बार घर से निकला था और पापा के साथ जयपुर गया था, शाम को जब पापा वापस जा रहे थे तो मैं रोने लगा था, शायद मैं बहुत डरा हुआ था और वहां रहना नहीं चाहता था। लेकिन आप यकीन नहीं मानेंगे कि 5 साल बाद और आज से ठीक 4 साल पहले आज ही के दिन 7 जून 2012 को, हॉस्टल के केयर टेकर और वार्डन ने जब मुझे धमकी दी की, अगर अब तुमने हॉस्टल खली नहीं किआ तो शाम को सामान उठा क बहार फेंक दिया जायेगा, तब मैंने हॉस्टल खाली किया। मैं कॉलेज खत्म होने के महीने भर बाद भी हॉस्टल की वो ज़िन्दगी छोड़ना नहीं चाहता था! कैसे उन पांच सालों में मैं वहीँ बस गया था.. लगता था वही घर है और वहीं जिंदिगी ! कितना मुश्किल होता है ना किसी शहर को अपनाना और छोड़ना। लेकिन कुछ भी हमेशा नहीं रहता, ये शहर भी !

और हाँ जब हम शहर छोड़ते हैं तो सिर्फ शहर नहीं छूटता दोस्त.... शहर के साथ थोड़े से हम भी वहीं छूठ जाते हैं, और साथ ले आते हैं कपड़े बर्तन, कम्प्यूटर, कुछ यादें और थोड़ा सा शहर। ये शहर हमारे अंदर हमेशा रहता है, हमारे खाने, बोली और व्यक्तित्व में।

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10 जून 2016
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कल शाम को बाजार से घर वापस आ रहा था तो रास्ते में देखा कि एक फटेहाल इंसान चेन से बंधे कुत्ते को डंडे से जोर जोर से पीट रहा था और कुत्ता भी रहम की भीख मांग रहा था। आस पास के लोग उसे देख कर अनदेखा कर रहे थे पर मुझसे रहा न गया.. मैंने पूछ ही लिया की क्या हो गया भाई? इंसान तो कुछ नहीं बोला लेकिन कुत्ते

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