प्रभास क्षेत्र में समस्त यदुवंशियों ने मदान्ध होकर एकदूसरे को मार काट दिया. अंत में शोकाकुल कृष्ण बचे, जो एक वृक्ष के नीचे जा बैठे . तभी वहां जर नामक एक व्याध ने झुरमुट की ओट से कृष्ण के पैर का अंगूठा देखा, उसे वह हिरन की आँख जैसा लगा और उसने तीर चला दिया. तीर लगने पर उसने कृष्ण के दर्शन किये, पर तब तक कृष्ण का समय आ चुका था. बस इतनी सी बात, क्षेपकों के साथ छंद में....
रण में जो सदा समवेत रहे, आपस में लड़कर खेत रहे,
वृष्णि वंशी जो थे सारे, आपस में लड़, गए मारे,
जहाँ मचा भीषण कल रव, अब पंछी करते हैं कलरव,
निज पुत्र पौत्र बाँधव के शव, हा, देख व्यथित होते केशव,
छत्तीस बरस पहले जो घटा, द्युति कौंधी घटा, इक ओर हटा,
उजड़े थे उसके दोनों कुल, दुःख से गांधारी थी व्याकुल,
था रोम रोम में रहा व्याप, कोलाहल सा घनघोर विलाप,
तब गूंजी एक मधुर पदचाप, मुरलीधर लेने आये श्राप,
सुन पड़ा कान में हाहाकार, “तू सर्वनाश का सूत्रधार,
मेरे पुत्रों का हन्ता तू, कहता सबका नियंता तू,
जा तेरा वंश हो समूल नष्ट, तू भी भोगे यह दारुण कष्ट,
तेरे सम्मुख मरें सारे, सब पुत्र पौत्र, बंधु प्यारे,
तब मेरा दुःख तू जानेगा, मां की ममता पहचानेगा”.
“ये गांधारी का घोष नहीं, माता तेरा कोई दोष नहीं,
मैं पहेली नहीं बुझाता हूँ, पर कारण कथा सुनाता हूँ,
यमुना वासी था कालिय व्याल, विषधारी निर्मम था विकराल,
जल थल जीवन करता समाप्त, यमुना भी विष से हुई व्याप्त,
था सखा संग यमुना तट पर, जग कहता है मुझको नटवर,
कंदुक क्रीड़ा तो युक्ति थी, अभिप्रेत नाग से मुक्ति थी,
निज नाम का मान बचाने को, यमुना से कंदुक लाने को,
मैं कूद गया जमुना जल में, और जा पंहुचा सरिता तल में,
साधा कालिय धीरे धीरे, गोकुल उमड़ा यमुना तीरे,
सब सखा, पिता, भृत्य, भैया, और संग बिलखती थी मैया,
वह आर्त्र स्वर में विलाप रही, पर प्राणों का संकट माप रही,
प्राणों से प्यारा पुत्र नहीं, पाया मैंने यह सूत्र वहीं,
जो कूद जाती माता जल में, मैं तार लेता उसी पल में,
हर पुत्रवती का रखकर ध्यान, जग भर को देता यह वरदान,
पुत्रशोक होता न कभी, पाती अभय माताएं सभी,
पर नियति को स्वीकार न था, इसलिए गहन माँ तेरी व्यथा,
हर जीतहार यश, अपयश में, सब जीव बंधे नियति वश में,
कोई प्रश्न नहीं, प्रतिसाद नहीं, मैं भी इसका अपवाद नहीं,
चाहे वह मूल नाश पथ हो, न तेरा वचन, अकारथ हो”,
उसांस भरी, और नमन किया, तथास्तु कहकर गमन किया,
विधि ने इस हेत रची माया, जिसको जो देय वही पाया,
समय देखो कितना गतिमान, वह भूतकाल यह वर्तमान.
मथुरा से गोकुल वृन्दावन, या हस्तिनापुर से खांडववन,
फिर राजसूय से कुरुक्षेत्र, थे देख रहे अधखुले नेत्र.
उलझन थी विधि के सूत्रों में, रण था कुंती के पुत्रों में.
अर्जुन के रथ को हांक रहे और कर्ण की शक्ति आंक रहे.
रण होता जाता था भीषण, पहरों में बदल रहे थे क्षण,
तब नाग अस्त्र का ध्यान किया राधेय ने शर संधान किया.
शर छोड़ हुआ कर्ण विस्मित, हुई गहरी वासुदेव की स्मित.
शर लक्ष्यभ्रष्ट हो नष्ट हुआ, बस अंगूठे में कष्ट हुआ.
अब टीसा करता अंगुष्ट कभी, होता जब फागुन रुष्ट कभी.
स्मृति नहीं पकड़ती एक लीक, स्मृति में मंडराया बर्बरीक,
वह भीमसेन का पौत्र विकट, नतशीश हुआ आ सन्निकट.
“होता है मुझको यह अचरज, कौरव पांडव दोनों पूर्वज,
पक्ष विपक्ष में संशय है, किस ओर लडूं अनिश्चय है,
संतुलन युद्ध में करने को, विजित की रक्षा करने को,
बदलूँगा पक्ष प्रत्येक प्रहर, निर्बल के संग खड़ा होकर”,
श्रीहरि के सम्मुख दुविधा थी, बस एक सुदर्शन सुविधा थी,
“बस यही परीक्षा दो तुम वीर, प्रयोग करो केवल इक तीर,
इस वृक्ष पर हैं असंख्य पत्र, बीन्धो सब बिना किये एकत्र,"
तब शीश नवा वह वीर चला, उसके तूणीर से तीर चला,
हर पीत, हरित, कोपल, जर्जर, वह तीर हुआ जाता बर्बर,
कर छिद्र रहा सब परणों में, कोपल गिरी एक श्रीचरणों में,
हरि ने उसको भी मान दिया, अंगुष्ठ से ढक सम्मान दिया,
पर नियति का खेल निराला था, वह शर ना भुलाने वाला था,
अंगुष्ठ बेध कर कोपल पर, कर छिद्र गया वह घातक शर,
आजीवन यह न पचा पाए, शरणागत को न बचा पाए,
जब हरा रंग कहीं छाता है, वह घाव हरा हो जाता है.
स्मृति की लहरों में उलट पलट, गंभीर हुआ नटवर नटखट,
जिसमें सब जग है सदालीन, वह क्लांत, हो रहा शोकालीन,
जर साध रहा वह पावन पग, जिसके अधीन चराचर जग,
संधान कर रहा था छिपकर, मृगनयन समझ कर मृगया पर,
जो सुधा सरसता, जमुना तीर, वो अंगुष्ठ बेध गया इक तीर.
मुख पर खींची पीड़ा रेखा, व्याध ने तब हरि को देखा.
हो ग्लानिमग्न सम्मुख आया, तब श्रीहरि ने यूँ समझाया,
“हैं कर्मचक्र से बद्ध सभी, कहने को तुम हो व्याध अभी,
पर तुम त्रेता में बाली थे, घनघोर विकट बलशाली थे,
तुम से मेरा विरोध न था, कोई क्षोभ, लोभ या क्रोध न था,
नियति ने मुझे सुझाया था, हाथों में धनुष समाया था,
तब मैंने तुम पर शर साधा था, वह कर्म परन्तु आधा था,
अब मुझे सुलक्ष्य बनाया है. नियति ने शर चलवाया है,
तुमसे मुझको कोई द्वेष नहीं, प्रतिदाय तुम्हारा शेष नहीं,
मैं जाता हूँ अब देह त्याग, वायु, जल, गगन, धरा और आग,
होगी यह देह उनमें विलीन, स्मृति शेष रहेगी काया हीन,”
जब हरि अवतार धरा करते, सब लोक प्रतीक्षा में रहते,
हरि आये स्थान वह कारा था, गहरा छाया अँधियारा था,
सबको देकर जो यथायोग्य, धन, पद, मोक्ष, मोद, आरोग्य,
उड़ गया देह का पाखी तब, बस व्याध रहा इक साखी तब,
लीला रचकर सबके मन हर, गोलोक बसे फिर से मनहर.