आज से लगभग चालीस साल पहले, ना तो गाँव शहर की चमक दमक पर जुगनू से दीवाने थे, ना शहर गाँव को लीलने घात लगाये बढ़ रहे थे. शहर से गाँव का संपर्क साँप जैसी टेढ़ीमेढ़ी काली सी सड़क से होता था, जिससे गाँव का कच्चा रास्ता जुड़कर असहज ही अनुभव करता था.
गाँव की ओर आने वाली सड़क कच्ची व ग्राम्यसहज पथरीला अनगढ़पन लिये थीं. जबकि, शहर को जाती सड़क, चिकनी चमकती काले डामर से पुती, गाँव के कंकड़ पत्थरों को हिकारत से घूरती, शहरी आभिजात्य की प्रतीक थी, जिस पर कोई खचाखच भरी, खटारा सी बस कभी कभी नीरवता तोड़ने चली आती थी. पथरीली सड़क को सहलाते, काली सड़क के अहंकार को चुनौती देते एक बड़े से नीम के पेड़ को ही बस अड्डे की संज्ञा मिली हुई थी.
दोपहरी में बस से उतरने वाले यात्री जरा देर कमर सीधी करते, सामान उठाते और गाँव के भीतर जाने वाली कच्ची सड़क की ओर बढ जाते. गाँव कहने को पास था, पर बरसात, लू और शीतलहर में गाँव से बस अड्डे की दूरी अक्सर बहुत ज्यादा बढ़ जाया करती थी. धूप ज्यादा होती या बूंदाबादी होने लगती तो नीम की छाँव ही मुसाफिरों का सहारा बनती.
गाँव को आने वाली सड़क पर दो चार टपरियाँ बन गयीं थीं, जिनमें पानी की प्याऊ के समाजवाद के संग चाय की दुकान और पान दरीबा के रूप में बाजारवाद भी पल रहे थे. वहाँ मिलने वाली गोली बिस्किट और सस्ती चॉकलेट का स्वाद अब देवदुर्लभ हो चला है. पर, सबसे बड़ा आकर्षण थे, चाय वाले सीताराम बाबा...
सीताराम बाबा को सब लोग सीताराम बाबा शायद इसलिये कहते थे कि वे नमस्कार की जगह सीताराम कहते थे. सीताराम बाबा बच्चों पर बड़े कृपालु रहते थे. उनकी चाय की दुकान पर कुछ गोलियाँ और बिस्किट रहा करते थे, जो वे दुकान पर आने वाले ग्राहकों के संग आये बच्चों को देते थे. भारत में मुफ्त की वस्तु का आकर्षण तो रक्त में घुला मिला है ही, चाय की दुकान बढ़िया चलती थी.
सीताराम बाबा गाँव की हद पर बने रामजी के मंदिर के पास एक झोंपड़ी डाल कर रहते थे. सवेरे सवेरे "भये प्रकट कृपाला..." और शाम को हनुमान चालीसा के पाठ में उनका उच्च स्वर अलग ही सुन पड़ता था. मंगलवार को सुंदरकाण्ड के पाठ में उनके जोश भरे बोल "...बोले राम सकोप तब, भयहुँ ना होत है प्रीत" से मंदिर गूँज जाता. ऐसा लगने लगता, यह स्वर सुनकर ही सागर रास्ता दे देता, राम जी को धनुष पर तीर चढ़ाने की जरूरत ही क्या थी?
पर, सीताराम बाबा के संग एक विचित्र बात जुड़ी थी. अगर किसी ने अभिवादन के तौर पर "राधेश्याम" कह दिया, तो बाबा नाराज हो जाते. उसे किसी भी कीमत पर चाय नहीं देते, बल्कि चिल्लाते, "नाम मत लो उस दुष्ट का". कुछ मनचले भी कम नहीं थे, चाय पीकर पैसे चुकाते, कुछ दूर जाते और जोर से "राधेश्याम" चिल्लाते. बाबा हाथ में लकड़ी लेकर, देहाती गालियाँ उच्चारते उनके पीछे भागते और संकल्प करते कि आगे से अलाँ फलाँ को चाय नहीं देंगे. पर अगले दिन ही अलाँ फलाँ फिर चाय पीने आते, और चाय पीकर फिर "राधेश्याम..."
बाबा गाँव के बीच में ही बसे कृष्ण मंदिर में भी नहीं जाते. रासलीला का मंचन गाँव में होता तो देखने नहीं जाते, बल्कि उन दिनों लगभग गायब से हो जाते. दिनभर राम मंदिर में मानसपाठ करते रहते. गाँव में उनकी इस विचित्रता को लेकर कई अनुमान लगाये जाते. अधिकतर भक्तों को वे तुलसीदासजी की भाँति, "...मस्तक तब नवै, धनुष बाण ले हाथ" वाली परंपरा के अनुयायी लगते थे.
बाबा की इस विचित्रता के चलते गाँव भर के बच्चों-मनचलों को एक शगल मिल गया था. बाबा ने लाठी लेकर तो बहुतों को खदेड़ा. पर कभी किसी को पीटा हो, यह देखने में नहीं आया. राम मंदिर के पुजारी जी तो बाबा को बहुत बड़ा कृष्णभक्त बताते कि बाबा पाप खुद के सिर लेकर दूसरों के मुँह से राधेश्याम का उच्चारण करवाते हैं.
बाबा निपट अकेले थे, खुद पकाते खाते थे. भजन करना और चाय की दुकान चलाना, ये ही दो काम मुख्य थे. लगभग बीसेक साल से यही उनकी चर्या थी. परिवार को लेकर किसी ने ना तो जिज्ञासा की, ना उन्होंने किसी को कुछ बताया. ना वे गाँव छोड़कर कहीं जाते, ना कोई रिश्तेदार उनके यहाँ आता. कुल मिलाकर वे अपने आप में संपूर्ण थे, मस्त थे, कलंदर थे.
पर, एक दिन बाबा सवेरे मंदिर में नहीं आये. "भये प्रकट कृपाला..." के समवेत गायन में बाबा का स्वर गायब था. सबके लिये यह आश्चर्य मिश्रित चिंता का कारण था. सवेरे की पूजा पूर्ण होने पर पुजारी जी और एक दो लोग बाबा की झोंपड़ी पर पँहुचे. झोंपड़ी के जीर्णशीर्ण द्वार को ठेलकर भीतर घुसे तो पाया बाबा का वृद्धशरीर तेज ज्वर में तप रहा है और वे धीमे स्वर में "राधेश्याम", "राधेश्याम" का उच्चारण कर रहे हैं.
पुजारी जी व उनके सहयोगी चारपायी समेत बाबा को बाहर उठा लाये. वैद्य जी के पास ले गये. वैद्य जी ने बाबा का अंत समय नजदीक बताया. वैद्य जी का घर श्याम मंदिर के समीप ही था. बाबा का राधेश्याम राधेश्याम का मंद अस्फुट जाप कभी कभी टूटता, पर फिर शुरू हो जाता. पुजारी जी और उनके साथ के लोगों ने बाबा को राधेश्याम मंदिर के बाहर चारपाई समेत रख दिया. बाबा ने एक बार आँखें खोलीं, राधेश्याम की युगल मूर्ति की ओर देखा, आखिरी बार राधेश्याम कहा औेर सदा के लिये आँखें बंद कर मौन हो गये.
बाबा की अंत्येष्टि में हमारा गाँव और पड़ोसी गाँव तो क्या, आस पास के पंद्रह बीस गाँव उमड़ आये. सीताराम बाबा की निराली राधेश्याम भक्ति के बहुत चर्चे हो चले थे. बस अड्डे पर भीड़ बढ़ गयी. बाबा की चाय की दुकान और उनकी झोपड़ी का दर्जा अब मंदिर से भी अधिक हो चला था. बाबा पर प्रदेश के एक अखबार में एक बड़ा फीचर छपा, जिससे बाबा की भक्ति की चर्चा शहर में भी होने लगी थी. थोड़े प्रयास से बाबा को अवतार भी घोषित किया जा सकता था, पर तब तक हमारे गाँव के लोग इतने उद्यमशील नहीं थे.
एक दिन दोपहर की बस से एक अधेड़ सा व्यक्ति उतरा. वह पता करते करते पुजारी जी के पास पँहुचा. वह किन्हीं चरणदास जी के लिये पूछ रहा था. पुजारी जी ने बताया, चरणदास जी ही तो राधेश्याम के नाम से चिढ़ने वाले सीताराम बाबा थे. अब पुजारी जी ने पूछा, बेटा तुम कौन?
आगंतुक ने कहा, "मैं चरणदास जी का लड़का, राधेश्याम."