सूर्यदेव अस्ताचलगामी हो चले थे, गायें अपने अपने घरों को लौट रहीं थीं, गोधूलि में अंधकार शनै शनै गहराने लगा था. महाभारत का युद्ध समाप्त हो चला था. पाण्डव युद्ध के उपरांत अपने शिविर में जाकर विश्राम करने से पूर्व प्रणाम करने आये थे. पाण्डवों के नयन विजय के उल्लास से कम पर युद्ध की विभीषिका के त्रास से अधिक नम थे. पाण्डवों के विदा लेने पर भीष्म ने अपनी आँखें मूंद लीं थीं.
शरीर में गड़े बाण मर्मांतक पीड़ा दे रहे थे. पौष माह का जाड़ा मानों बाणों के संग ही शरीर में धंस रहा था. शरीर से टपक टपक कर रक्त भी थक चला था और शरीर में बिंधे बाणों पर श्यामवर्णी, गाढ़ा होकर सूख चला था. अभी कुछ दिन और शेष थे, सूर्यदेव के उत्तरायण प्रवेश में. तब तक प्रातः से संध्या तक, संध्या से रात्रि तक व रात्रि से पुनः प्रातः तक की प्रतीक्षा करने को विवश थे भीष्म. समय धीमे धीमे कट रहा था, कभी मूर्छा में तो कभी पीड़ा में. पाण्डवों के भेजे राजवैद्य ने पीड़ा शामक औषधि लेप करने का प्रयास किया, पर स्वयं भीष्म ने मनाही कर दी.
बाणों के घावों से भी अधिक गहरे व पीड़ा दायक घाव थे परिस्थितियों के, जो रह रह कर दंश दे रहे थे. शरीर में रक्त प्रवाह कम हो चला था पर मस्तिष्क में स्मृति का झंझावात अभी भी चल रहा था.
भीष्म ने सिर हिलाया, परिचारक ने तुरंत जल की अल्प मात्रा अधरों के मध्य टपका दी. अधर नम हुए और साथ ही पलकों की कोर भी. शिविर के द्वार पर कोई आ खड़ा हुआ था.
बड़े कष्ट से ग्रीवा में हलचल हुई. दो तीर ग्रीवा से भी पार निकले हुए थे. ये वही तीर थे जो सबसे पहले प्रविष्ट हुए थे, जब शिखंडी को देखते ही उन्होंने अपना धनुष रख दिया था. देखते ही देखते पूरा शरीर बिंध गया और वे भूशायी भी ना हो सके, शरीर को बींधते बाणों ने उनको अधर में ही रोक दिया था.
"कुरुश्रेष्ठ, प्रणाम", यह स्वर स्मृति से तो नहीं निकला था, पर यह स्मृति के कई सोपानों में संचित था.
"आह, शिखंडी... नहीं नहीं अंबा..." कहते कहते भीष्म के पूरे कलेवर में पीड़ा लहरा उठी.
"कैसे हैं, कुरुश्रेष्ठ?" शिखंडी के महीन स्वर में व्यंग्य कम व संतोष अधिक था.
"देहावसान की प्रतीक्षा में साधनारत हूँ, विजेता" भीष्म ने मात्र औपचारिक उत्तर दिया.
"आपकी साधना शीघ्र पूरी हो, कुरुश्रेष्ठ, आप मोक्षगामी हों", कह कर शिखंडी ने अपना स्थान ग्रहण किया.
"नहीं विजेता, मोक्ष से पूर्व कई सोपान अभी शेष हैं. अपने सभी कर्मों का प्रतिफल पाना शेष है. कुछ उत्तम तो कुछ अधम. प्रतिफल भी कर्मों के संग ही निश्चित होते हैं. फिर अभी तो तुम्हारे संग भी कुछ प्रतिफल शेष हैं." भीष्म ने कठिनाई से पर सधे स्वर में उत्तर दिया.
शिखंडी को याद आया, वह स्वयंवर जिसमें उसे यानि अंबा को, अंबिका व अंबालिका के संग जीतकर भीष्म हस्तिनापुर ले आये थे. अंबा के शाल्व के प्रति समर्पित होने की बात जानकर स्वयं भीष्म उसे शाल्व को सौंपने जा रहे थे. रथ की वल्गा अंबा के हाथ में थी और अश्व तीव्र गति से आर्यण प्रदेश की ओर भाग रहे थे. दूर दूर तक फैले मरुस्थल में दिन व रात्रि का विचार किये बिना गतिमान था रथ.
अमावस्या में मात्र नक्षत्रों के प्रकाश में भागते रथ के चक्रों से कोई टकरा गया था. एक आर्तनाद भी उभरा. कुशल हाथों ने तुरंत वल्गा खींच ली अन्यथा रथ उलट जाता. अर्ध तंद्रा से जाग्रत हुए भीष्म, "क्या हुआ, देवी?"
अंबा के स्वर में अपराधबोध था, "रथचक्र से मृगशावक टकराकर दिवंगत हो गया है, कुरुश्रेष्ठ".
"ओह", भीष्म के स्वर में चिंता झलक उठी. शाल्व तक अंबा को सुरक्षित पँहुचाना उनका दायित्व था. पर रथ की गड़गड़ाहट, टकराहट की ध्वनि व मर्मांतक आर्तनाद ने समीप बसे ग्रामीणों को सचेष्ट कर दिया था. उल्का बाणों, मशालों व अन्य शस्त्रों से सुसज्जित ग्रामरक्षक इधर ही आ रहे थे.
भीष्म ने तुरंत मृत शावक रथ में डाला, वल्गा अपने हाथ में थामी व रथ पुनः बढ़ चला. अंबा के मस्तिष्क पर स्वेदकण उभर आये. और उभर आयीं आकृतियाँ जो रथ को घेर रहीं थीं.
भीष्म ने रथ रोक दिया. व नीचे उतर गये. ग्रामीण रक्षक दल का नायक आगे बढ़ा. "कुरुश्रेष्ठ आप?" उसके स्वर में अचरज के संग संग कई संदेह भी थे.
भीष्म ने अपने गंभीर स्वर में उत्तर दिया, "हाँ नायक. मैं कुरु राजकुमार भीष्म. पर आज तुम्हारा अपराधी हूँ. तुम्हारे प्रदेश में एक वन्यजीव की अकालमृत्यु हुई है मेरे रथ से."
नायक के सामने बड़ी दुविधा उत्पन्न हो गयी थी. वन्यजीव की हत्या गंभीर अपराध था. राजकुमार भीष्म कठोर दंड के पात्र तो थे, पर राजकुमार को दण्ड देकर हस्तिनापुर राज्य से सदा के लिये शत्रुता करना बुद्धिमत्ता नहीं. अतः उसने पहला अपराध क्षम्य मानकर भीष्म व अंबा को तुरंत गतिमान होने का अनुरोध किया. ग्रामीन रक्षकों के बीच मतभेद हो गया पर भीष्म व अंबा को निकलने का मार्ग मिल गया.
पहली बार अंबा भीष्म के प्रति कोमल हुई, "कुरुश्रेष्ठ, आपने मेरा अपराध अपने सिर ले लिया. आपने मेरी रक्षा हेतु असत्य वचन कहे, क्यों?" भीष्म ने इस क्यों का उत्तर नहीं दिया. रथ गतिमान था.
समय भी गतिमान था, उस "क्यों" का उत्तर जानने शिखंडी भीष्म के समक्ष प्रस्तुत था. भीष्म ने बहुत चाहा कि उत्तर ना दें, पर वे भविष्य देख रहे थे. कुछ ही पहर बाद, शिविर में सोते समय शिखंडी पर अश्वत्थामा प्रहार करेगा जो शिखंडी की मृत्यु का कारण बनेगा. महाभारत में भीष्म की मृत्यु का वाहक भीष्म के जीवित रहते ही काल का ग्रास बन जायेगा. भीष्म ने उसकी अंतिम जिज्ञासा का शमन करने का निर्णय लिया.
"सुनो विजेता, हम सभी काल के पहियों के धुरे हैं, आगे पीछे, उर्ध्व व निम्न अवस्था में आना जाना नियत है. हर कार्य करने का समय व माध्यम नियत है तथा हर कर्म का प्रतिफल भी नियत है. कलियुग में जब मेरे रथ के चक्र से कोई जीव कुचला जायेगा तब तुम मेरे वाहन चालक के रूप में अपराध स्वीकार करोगे. और अबकी बार मृगशावक की मृत्यु होने पर ग्रामरक्षक मुझे क्षमा दान नहीं देंगे."
शिखंडी मौन था. उसकी नियति वही थी, जो भीष्म ने कहा था.
(इस कथा का भीष्म की भांति ही किसी अविवाहित अभिनेता या किसी न्यायालय के निर्णय से कोई संबंध नहीं है. किसी भी प्रकार का संबंध स्थापित करने का प्रयास 'असहिष्णुता 'की श्रेणी में रखा जायेगा.)