shabd-logo

नया सुदामा चरित

30 जून 2016

320 बार देखा गया 320

सुदामा शुक्ला गरीब परिवार के तथा बचपन से ही भीरू प्रकृति के व्यक्ति थे. रही सही कसर धर्मपत्नी के तेजतर्रार स्वभाव ने पूरी कर दी. सुकुलाइन का मायका भी गरीब ही था, पर शुक्ला जी के सरकारी इंटर कॉलेज में व्याख्याता होने के गर्व ने सुकुलाइन पर रौबदाब का मुलम्मा चढ़ा दिया. सुकुलाइन की नित नयी माँगों को, कागज में भारी व आयकर कटने से हलके होते वेतन द्वारा पूरा करना शुक्ला जी के लिये कठिन होता जा रहा था. हारकर जिंदगी की गणित को हल करने के लिये, गणित के व्याख्याता शुक्ला जी ने ट्यूशन शुरू कर दी.

 

शुक्ला जी बढ़िया पढ़ाते थे. परिणाम अच्छे आने ही थे, शुक्ला जी का ट्यूशन सेंटर चल निकला और दो तीन वर्षों में ही शुक्ला जी किराये के मकान से अपने घर में जाने की सोचने लगे.

 

भगवान ने जब यह दुनिया बनाई थी तो नीरसता भंग करने के लिये जो विशेष पात्र रचे, उनमें विघ्नसंतोषी प्रजाति विशेष है. शुक्ला जी पर मेहरबान होती लक्ष्मी किसी ऐसे ही विघ्नसंतोषी जीव से देखी ना गयी व जल्द ही निदेशालय से जाँच बिठा दी गयी कि शुक्ला जी घरेलू ट्यूशन का अपराध कैसे कर रहे हैं. शुक्ला जी निलंबित हो गये व साथ ही आयकर विभाग की ओर से भी परवाना आ पँहुचा कि ट्यूशन से हो रही अवैध कमाई पर आयकर व शास्ति भरें अन्यथा जेल जाने को तैयार रहें.

 

भीरू शुक्ला जी के लिये यह बड़ा आघात था. कहाँ तो वे दो तीन कमरे का मकान खरीद कर सुकुलाइन को प्रसन्न करना चाहते थे और कहाँ आयकर वालों ने जो हिसाब निकाला उसमें रही सही जमापूंजी भी स्वाहा होने को थी. शुक्ला जी को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था, तब सुकुलाइन ने कहा, "तुम तो बड़ा गीत गाते थे कि बाँके बिहारी यादव तुम्हारे बचपन के मित्र हैं. वे यहीं तो आयकर आयुक्त हैं, क्यों नहीं जा कर मिल लेते उनसे? उनसे मदद माँगो. मित्र हैं तो मुसीबत में काम नहीं आयेंगे क्या?"

 

शुक्ला जी ने कभी दांपत्य के आरंभिक सुहाने दिनों में यह शेखी बघारी थी, वह अब तक सुकुलाइन को याद थी. शुक्ला जी वैसे भी मिलनसार न थे और किसी बड़े आदमी के सामने पड़ने में तो उनकी घिग्घी ही बँध जाती थी. सुकुलाइन की बात में वजन था और सुकुलाइन आसानी से हार मानने वाली थी नहीं. हारकर शुक्ला जी बाँके बिहारी की शरण में जाने को तैयार हो ही गये.

 

एक शुभ मुहुर्त में अपनी सारी दो नंबर की राशि का हिसाब लेकर सुदामा जी बाँके बिहारी जी के घर के बाहर जा पंहुचे. द्वार पर खड़े वाचमैन ने कुरता धोती धारी, ललाट पर चंदन लगाये, शिखा में गाँठ बाँधे पंडितनुमा जीव को हिकारत से देखा. दायें हाथ से खैनी रूपी चैतन्य चूर्ण को सकौशल मुखारविन्द में प्रवेश दिलवाकर दायें गाल व मसूड़ों के बीच ससम्मान प्रतिष्ठित किया व पूछा, "का चाही पंडज्जी? भिच्छा?"

 

हर स्तर पर स्वर्णपदकों से युत अपनी शिक्षा की अवहेलना झेलना शुक्ला जी की नियमित चर्या थी. अतः अपने स्वर को यथासंभव दयनीय बनाकर उन्होंने निवेदन किया, "साहब से कहिये कि सुदामा मिलना चाहता है."

 

द्वारकाधीश कृष्ण के द्वारपालों को भी सुदामा के इस निवेदन पर इतना आश्चर्य नहीं हुआ होगा, जितना आयकर आयुक्त बाँके बिहारी यादव के वाचमैन को हुआ. जिस दरवाजे पर बड़ी बड़ी गाड़ियों से उतरते लोग विनीत भाव से उसके हाथ पर अपना कार्ड व कार्ड पर वजन रखते हैं, वहाँ यह अजीब सा आदमी सूखा सा मौखिक निवेदन कर रहा है

 

उसने फिर एक बार उपर से नीचे तक देखा औेर पूछा, "कौनो काम है का?"

 

सुदामा जी को अपना भेद खोलना पड़ा, "हम साहब के सहपाठी हैं, बचपन के मित्र हैं. इधर से निकल रहे थे, सो सोचा मिलते चलें." सुदामा की असली बात बताने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी.

 

वाचमैन भी भारत में ही पला बढ़ा था, कृष्ण सुदामा की कथा बचपन में पढ़ चुका था. अतः सुदामा की बात पर भरोसा कर भीतर ले गया व बैठक में बिठा कर भीतर सूचना करवा दी.

 

सुदामा को अपने मित्र का वैभव प्रदर्शन करती बैठक में लगभग पाँच मिनट ही हुए होंगे कि साहब आ पँहुचे. वाचमैन को पुनः बुलवाया और सुदामा जी के सामने ही हिदायत दी, कि भविष्य में किसी को भी सीधे भीतर मत लाया करो, पहले इंटरकॉम पर बात करवाओ, जरूरी होगा तो बुलवा लेंगे. वाचमैन को दफा होने का इशारा कर साहब सुदामा की ओर मुड़े, "हाँ शुक्ला जी, क्या काम है?"

 

इस एक वाक्य से ही सुदामा शुक्ला को लगा कि बाँके बिहारी ने उन्हें पहचान लिया है. वे झपटकर बाँके बिहारी के चरणों में गिर पड़े व आँसुओं से साहब के कोमल चरण गीले कर दिये. द्वापर के सुदामा का कर्ज कलियुग के सुदामा ने चुका दिया.

 

इस आक्रमण के लिये बाँके बिहारी तैयार नहीं थे, अतः हड़बड़ा गये और मुँह से निकल गया, "अरे सुद्दी, क्या करता है यार, बैठ यहाँ."

 

अपने बचपन के नाम का बाँके बिहारी के मुँह से आत्मीय उच्चारण सुन सुदामा शुक्ला को ढ़ाढ़स बँधा. वे व्यवस्थित होकर साहब के बगल में बैठ गये. तब तक साहब की धर्मपत्नी श्रीमती रुक्मणी यादव भी आ पँहुचीं. नमस्कार के आदान प्रदान के बाद सुदामा ने मय कागजात अपना किस्सा बयान किया.

 

साहब ने पूछा, "तुमने कब से आयकर नहीं दिया है?"

 

"वह तो मैं नियमित रूप से दे रहा हूँ"

 

"सिर्फ वेतन पर? या ट्यूशन पर भी?"

 

"सिर्फ वेतन पर"

 

"तो सुदामा जी, तुमने अपराध तो बड़ा किया है, और अब नोटिस भी आ चुका है, बचने का कोई और रास्ता नहीं है."

 

"आपकी शरण में हूँ, गरीब ब्राह्मण समझ कर ही दया कर दीजिये"

 

"ठीक है, एक तिहाई तो आयकर हो गया, पेनाल्टी कम कर के एक तिहाई कर देता हूँ. और बाकी मेरा मेहनताना"

 

सुदामा जी को बचपन में पढ़ी कविता याद आ गयी,

            "मूठी तीसरी भरत ही, रूकुमनि पकरी बाँह,

                 ऐसी तुम्हैं कहा भई, सम्पति की अनचाह"

 

सुदामा जी ने श्रीमती रुक्मणी यादव की ओर देखा. वे चाय बनाने के बहाने भीतर चलीं गयीं. सुदामा जी के पास कोई चारा ना था. तीसरी मुट्ठी बाँके बिहारी के चरणों में अर्पित कर दी. बाँके बिहारी प्रसन्न हो गये. उदारता से बोले, "क्या चवन्नी अठन्नी में पड़े हो शुक्ला जी? हम आपकी सेटिंग बोर्ड के डायरेक्टर से करवा देते हैं, हमारे एक मित्र के कॉलेज में प्रिंसिपल लगवा देते हैं. ठीक से पढ़िये, पढ़ाइये. हर साल मेरिट में आपके ही कॉलेज के बच्चे दिखेंगे."

 

अन्धा क्या चाहे, दो आँखें. सुदामा जी घर लौटे तो कॉलेज की प्रिंसिपली, रहने को कैंपस में ही क्वार्टर व हर साल मेरिट दिलवाने का कमीशन बीस प्रतिशत. सुदामा शुक्ला जी को गणित से लेकर "प्रोडिगल साइंस" तक, हर विषय समझ में आ चुका था. शुक्ला-सुकुलाइन के दिन फिर गये.

 

भगवान ने जैसे उनके दिन फेरे, सबके फेरे... बाँके बिहारी लाल की जय...

रंजन माहेश्वरी की अन्य किताबें

10
रचनाएँ
ranjan
0.0
सामाजिक सजगता के लिए समर्पित
1

नीयत या नियति

11 जनवरी 2016
0
1
0

सूर्यदेव अस्ताचलगामी हो चले थे, गायें अपने अपने घरों को लौट रहीं थीं, गोधूलि में अंधकार शनै शनै गहराने लगा था. महाभारत का युद्ध समाप्त हो चला था. पाण्डव युद्ध के उपरांत अपने शिविर में जाकर विश्राम करने से पूर्व प्रणाम करने आये थे. पाण्डवों के नयन विजय के उल्लास से कम पर युद्ध की विभीषिका के त्रास से

2

बस एक गधा

19 जून 2016
0
2
0

रामू बेहद गरीबी में गुजारा कर रहा था. उसके पास सिर्फ एक गधा था. वह जो कुछ भी मजदूरी, काम काज करता, दिन के आखिर में सब फुर्र हो जाता. जो खर्च होना होता वह खर्च हो जाता और यदि कुछ शेष रह जाता तो वह गुम हो जाता, चोरी हो जाता, और शाम ढ़ले फिर वही रामू और उसका गधा, बस... एक दिन शंकर पार्वती उधर से निकले,

3

श्री कृष्ण का गोलोक गमन...

21 जून 2016
0
1
0

प्रभास क्षेत्र में समस्त यदुवंशियों ने मदान्ध होकर एकदूसरे को मार काट दिया. अंत में शोकाकुल कृष्ण बचे, जो एक वृक्ष के नीचे जा बैठे . तभी वहां जर नामक एक व्याध ने झुरमुट की ओट से कृष्ण के पैर का अंगूठा देखा, उसे वह हिरन की आँख जैसा लगा और उसने तीर चला दिया. तीर लगने पर उसने कृष्ण के दर्शन किये, पर

4

पति: उत्पत्ति से विपत्ति तक

26 जून 2016
0
1
0

यूं तो इस रंग-रंगीली दुनिया में भांति भांति के जीव, जन्तु, वनस्पति इत्यादि भोजन के लिये पहले से ही उपलब्ध हैं. प्रतिदिन कोई न कोई शिकारी किसी जीव का शिकार करता है और अपनी क्षुधानिवृत्ति कर अगले दिन नये शिकार की तलाश में जुट जाता है. पर जैसे-जैसे मानवीय मस्तिष्क ने उन्नति की, रोज रोज बाहर शिकार करने

5

नया सुदामा चरित

30 जून 2016
0
2
0

सुदामा शुक्ला गरीब परिवार के तथा बचपन से ही भीरू प्रकृति के व्यक्ति थे. रही सही कसर धर्मपत्नी के तेजतर्रार स्वभाव ने पूरी कर दी. सुकुलाइन का मायका भी गरीब ही था, पर शुक्ला जी के सरकारी इंटर कॉलेज में व्याख्याता होने के गर्व ने सुकुलाइन पर रौबदाब का मुलम्मा चढ़ा दिया. सुकुलाइन की नित नयी माँगों को, का

6

नेता लोग के बच्चों का बाल (बाढ़) गीत

11 जुलाई 2016
0
5
1

हर साल आने वाली बाढ़ हमारे प्रदेश के नेता लोग के बच्चों के लिए मनोरंजन का एक विलक्षण माध्यम है. प्रस्तुत कविता में एक नेता के बच्चे की मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत बालसुलभ लालसा का वर्णन किया गया है. नेताजी के बच्चे की बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में लोकप्रियता बढ़ाने के लिए इस कविता को कक्षा पाँच के पाठ्यक

7

लड़की देखन आये लड़का वाले

16 जुलाई 2016
0
3
1

लड़की देखन आय रहे, लड़का वाले लोग,दादी के पकवानों का, लगा रहे सब भोग.सबसे पहले केरी के, शरबत की तरावट,पनीर टिक्का चटपटा, दूर करे थकावट.फिर आया मशरूम संग, मटर भरा समोसाथोड़ी देर में दादी ने, परसा मद्रासी डोसा.पेट भरा पर जीभ तो, मांगे थोड़ा और,डिनर में व्यंजनों का, फिर चला इक दौर.भरवां भिंडी संग लगी, मिस्

8

गायतोंडे जी का गाय गौरव संवर्धन

22 जुलाई 2016
0
1
0

गायतोंडे जी हमारी सरकार में दो दो विभागों के मंत्री हैं. संस्कृति मंत्रालय और पशुपालन मंत्रालय का पूरा पूरा दायित्व उनके कंधों पर है. भगवान जानता है कि उन्होंने दोनों मंत्रालयों के बीच कोई भेद नहीं किया है. दोनों को अपनी पूर्ण क्षमता से दुहा है. अक्सर उनको दोनों मंत्रालयों के विभिन्न कार्यक्रमों में

9

भक्ति

28 जुलाई 2016
0
1
0

आज से लगभग चालीस साल पहले, ना तो गाँव शहर की चमक दमक पर जुगनू से दीवाने थे, ना शहर गाँव को लीलने घात लगाये बढ़ रहे थे. शहर से गाँव का संपर्क साँप जैसी टेढ़ीमेढ़ी काली सी सड़क से होता था, जिससे गाँव का कच्चा रास्ता जुड़कर असहज ही अनुभव करता था. गाँव की ओर आने वाली सड़क कच्ची व ग्राम्यसहज पथरीला अनगढ़

10

अर्थगीता

22 नवम्बर 2016
0
2
0

समस्त नरों में इन्द्र की भांति प्रतिष्ठित व मन में मोद भरने वाले श्री नरेन्द्र मोदी ने, विक्रम संवत 2073 के शुभ कार्तिक मास की नवमी में चन्द्रदेव के कुंभ राशि में प्रवेश के बाद, यानि दिनांक आठ नवम्बर 2016 को समस्त देशवासियों को पाँच सौ

---

किताब पढ़िए