रामू बेहद गरीबी में गुजारा कर रहा था. उसके पास सिर्फ एक गधा था. वह जो कुछ भी मजदूरी, काम काज करता, दिन के आखिर में सब फुर्र हो जाता. जो खर्च होना होता वह खर्च हो जाता और यदि कुछ शेष रह जाता तो वह गुम हो जाता, चोरी हो जाता, और शाम ढ़ले फिर वही रामू और उसका गधा, बस...
एक दिन शंकर पार्वती उधर से निकले, पार्वती जी को रामू पर बहुत दया आई औेर, जैसा स्त्रियोचित भी है यानि किसी को सुखीदुखी देखकर पति को दुखी करना, उन्होंने भगवान शंकर से पूछा कि इसका दारिद्र्य कैसे दूर किया जा सकता है. भगवान भोलेनाथ अपनी पत्नी के भोलेपन पर सिर्फ मुस्कुराये, हँसते तो पार्वती जी नाराज हो सकतीं थीं, और यही कहा, "देवी, इसकी किस्मत में सिर्फ एक गधा ही है. अगर यह कमाना चाहे तो इस गधे को ही माध्यम बना ले. हर रोज शाम होते होते जब विधाता इसकी बैलेंस शीट मिलायेंगे तो इसके पास सिर्फ एक गधा ही रह जायेगा."
पार्वती जी ने अपने वित्तीय सलाहकार को तलब किया. उसने एक अनूठा उपाय बताया कि रामू अपने गधे को दिनभर में जितनी बार बेच सके, जिस कीमत पर बेच सके, बेच दे. जो भी राशि मिले उसका शाम होने से पहले दीर्घकालिक निवेश कर दे, इससे उसके पास कुछ रहेगा नहीं व शाम होते होते गधा वापस मिल जायेगा.
रामू को सलाह मिल गयी, उसने अमल करना शुरू कर दिया. पहले दिन उसने गधे को बेचबेचकर जो राशि मिली उससे धर्मार्थ प्याऊ खोली व आते जाते लोगों को पानी पिलाने लगा. लोग प्रसन्न होकर दुआ देते, शाम होते होते गधे के खरीदार को लगा कि रामू अगले दिन पानी के घड़े कैसे ढ़ोयेगा तो गधा वापस देकर चला गया.
कुछ दिन यह सिलसिला चला. रामू गधे को औने पौने में बेचता, किसी ना किसी तरह नियति गधा वापस उसे सौंप देती, वह पुनः बेच देता और मिलने वाला धन प्याऊ में लगा देता. यूँ उसकी प्याऊ बढ़ने लगी और उसे यश मिलने लगा. वह इलाके में प्रसिद्ध हो गया.
अब उसने अपनी कार्यशैली में बदलाव किया. उसने प्याऊ के लिये एक धर्मार्थ ट्रस्ट का गठन करवाया, स्वयं कोई पद ना लेकर "मुख्य दानदाता" के रूप में स्वयं को स्थापित किया. ट्रस्ट के संविधान में यह धारा जोड़ी गयी कि यद्यपि "मुख्य दानदाता" का ट्रस्ट पर स्वामित्व नहीं रहेगा, पर ट्रस्ट की सारी आय व्यय में "मुख्य दानदाता" की सहमति लेनी ही पड़ेगी. तो ट्रस्ट के नाम पर संपत्ति जुड़ना आरंभ हो गया. भारत में आयकर से बचने के लिये इस प्रावधान का प्रयोग आज भी किया जाता है.
अब ट्रस्ट ने अपना प्रसार करना आरंभ किया. ट्रस्ट चूंकि "धर्मार्थ" था, यह जरूरी था कि "धर्म" को आगे रख कर पीछे से "अर्थ" साधा जाये. ट्रस्ट दस रुपये खर्च करता तो अंधश्रद्धालु बीस रुपये दे डालते. रामू का गधा भी अब उँची बोलियों पर बिकने लगा. कुल मिलाकर रामू तो एक गधे का मालिक ही रहा, पर ट्रस्ट मालामाल होता जा रहा था.
रामू को कतिपय आवश्यकताओं के लिये एक निजी सचिव की सेवाएँ प्रातः से शाम तक मिल जाती थीं. कोमल नाम्ना निजी सचिव ना सिर्फ सुंदर व कोमल थी, "मुख्य दानदाता" के प्रति तन मन से समर्पित भी थी. इस समर्पण का ही प्रतिफल था कि वह शीघ्र ही पुत्रवती हो गयी. शायद "मुख्य दानदाता" ट्रस्ट के अलावा भी, कहीं और, कुछ और भी दान करते थे.
ट्रस्ट ने अपनी कर्मचारी सुश्री कोमल को पुत्रवती होने पर जिस तरह सुविधाएँ दे दीं, वे ना सिर्फ अन्य प्रतिष्ठानों के लिये अनुकरणीय हैं, वरन् बड़े बड़े उद्योगपतियों को भी नसीब नहीं हो सकतीं थी. उसका ही परिणाम था कि सुश्री कोमल का पुत्र अमन, धनाढ़्यपुत्रोचित व्यवहारी हो गया, जिसे भदेस में "बिगड़ैल" की संज्ञा दी जाती है.
अठारह वर्ष के होते ही अमन ट्रस्ट का अध्यक्ष बन बैठा व अपनी माता की शह पर “मुख्य दानदाता” से जबरन कुछ इस प्रकार निर्णय करवा लिये कि ट्रस्ट के कारनामे उजागर होने लगे. अब "मुख्य दानदाता" का कुपित होना स्वाभाविक ही था, अतः उन्होंने ट्रस्ट की सामान्य सभा बुलाकर श्री अमन वल्द नामालूम को ट्रस्ट से बेदखल करने का प्रस्ताव पारित करवा लिया.
श्री अमन वल्द नामालूम ने इस कार्यवाही के विरोध में न्यायालय के समक्ष दया याचना प्रस्तुत की. साथ ही अपना रक्त नमूना देकर, "मुख्य दानदाता" को पितृव्य परीक्षण हेतु ललकारा. न्यायालय ने श्री रामू को रक्त का नमूना दान देने को कहा, जिसे देने में "मुख्य दानदाता" भी थोड़ा हिचकिचा रहे थे.
खैर, लब्बोलुआब यह रहा कि, वैज्ञानिक परीक्षण में दोनों रक्त के नमूनों में साम्य स्पष्ट हो गया और न्यायालय ने श्री अमन को श्री रामू का पुत्र सिद्ध कर दिया. साथ ही चल रहे दूसरे मामले में धर्मार्थ ट्रस्ट का सरकार ने अधिग्रहण कर सारी चलाचल संपत्ति को राजकीय संपत्ति घोषित कर दिया.
शाम ढ़ल रही थी और रामू के जीवन की शाम भी ढ़लान पर थी. न्यायालय का आदेश लेकर श्री अमन अपने जैविक पिता के पास पँहुचे व चरण स्पर्श किया. रामू शायद अपने नवघोषित पुत्र से इतने आदर की अपेक्षा नहीं कर रहे थे. श्री रामू ने अपने पुत्र को गले लगाया तो सारी की सारी कड़वाहट धुल गयी, आशीष देकर प्रेम से कहा, "बेटा, इतनी सी बात के लिये इतना बखेड़ा? तुझसे बड़ा गधा कौन होगा?"
इतना कहना सुनना था कि अपने पांच सितारा वातानुकूलित अस्तबल में बँधा रामू का असली गधा गिरा और दम तोड़ गया. अब रामू के पास फिर से एक गधा ही था, पुत्ररूपी.
सन्देश: अपने पुत्र को गधा कहने से पहले जरा सोच लें.