1
इतना खाली हो गया कि
आकाश हो गया हूँ
मेरे भीतर ही सब कुछ है..
सूरज, चांद, तारे और ग्रह
शब्द भी और शब्द के बीज भी
2
यक़ीनन तुम खुद को
सबसे ज्यादा प्यार करते हो
वरना आईने और सेल्फियों में
खुद को ऐसे नहीं खींचा करते..!!
3
बहती नदी की धार में
जब चट्टानें टूट कर गिरती हैं
और रोकती हैं रास्ता
तो पत्थरों के साजिशों को समझने
कुछ क्षण तो रुकती हैं सजल धारें
फिर रुकावटों को भी साथ ले
तोड़ती हैं हर पुराने किनारे…!!
4
परीक्षाओं के चंद अंक
मेरे वजूद के प्रमाण नहीं,
दर्जा पहला हो या तीसरा
मेरे उत्साही जोश के लगाम नहीं,
रेस बन जाये जिंदगी
ये जिंदगी के मुकाम नहीं,
परीक्षाओं के चंद अंक
मेरे वजूद के प्रमाण नहीं..!
एक से साँचों में ढली
इम्तिहानों की गली
अपने हाथों ही अपनी बलि
हमें मंजूर नहीं..
5
दुनिया की हर तंग और सकड़ी गलियों से
तुम बेरोक - टोक यूं ही गुजरना..
घरों की देहरी और दीवारों के बाद की दुनिया को भी जीना ….
स्कूली तालिमों के पाठ बेशक पढ़ना,
पर उन्हें बस पढ़ना ही - गढ़ना अपनी तरह से …
स्कूली तालीमों में जो बात सिरे से छूट गई,
वो थी जीवन को गढ़ने की…
हालांकि जल्दी ही ये बात तुम बखूबी समझ जाओगी कि जिन सहेलियों के हाथ में हाथ डाल कर तुम
प्यारी - प्यारी स्वप्निल बातें साझा करती हो,
हंसती हो ,
खेलती हो,
धमाचौकड़ी करती हो..
उन पर हावी हो जाएंगी परीक्षा के चंद अंक….
अक्सर उन्हीं रहनुमा अंकों से
तुम्हारे होने या ना होने की गुंजाइश आंकी जाएगी….
तुम सखियों के अबोध प्रेम पर
प्रतियोगिताएं हावी हो जाएंगी …
बहुत छुटपन ही से
एक उबड़ - खाबड़ दौड़ शुरू हो जाएगी ,
जो कहीं भी नहीं ले जाएगी और
इसी तरह बेशकीमती जिन्दगी पीछे छूट जाएगी …
हां, ये होगा कि तुम्हारे आसपास के लोग
स्कूली शिक्षा से बाजारू हिसाब - किताब सीख कर तथाकथित जिंदगी चलाएंगे …
पर तुम बेशक समझ जाओगी कि ये वो जिंदगी नहीं है,
जो तुमने अपनी प्यारी सहेली के साथ
हाथ में हाथ डाल कर जिया था …
तुम जल्द ही ये भी समझ जाओगी कि
कैसे स्कूल
आत्म- हंताओं और
विश्व विजय का ख्वाब पूरा करने वाले
सिकंदरों को पैदा करता है …
तुम महसूस करोगी कि
चाहे कोई एकाध सिकंदर हो
या हो आत्म - हंताओं की फौज -
सभी घोर पछतावे में मरे
और सारी पढ़ाई गई नैतिकता
इतिहास में उनकी लाशों की अर्थी बन कर रह गई।
इसलिए हर तंग और सकड़ी गलियारों से
निकलते हुए चलना है जिंदगी के उन खाली सड़कों पर
जो सदियों से बेराहगीर हैं…
उन पर निर्भीक दौड़ना..!!
जिन सड़कों आज तक
गिने चुने लिंग - जाति - धर्म के लोग ही चलते रहे…
उन पर बेरोकटोक चलना...
तुम्हें उन हर मूक अल्फाजों को आवाजें देनी है -
जो आसुओं के घूंट के साथ अपनी बेबसी पिया करते हैं..!! सूखती नदी,
उजाड़ पनघट का जायजा लेना,
खेतों की पगडंडियों पर चल कर
उसकी हरियाली से गुफ्तगू करना
क्योंकि उन्हें बेसब्री से तुम्हारा ही इंतजार है …!!
6
मेरे जन्मदिन के केक पर
हर साल एक मोमबत्ती बढ़ जाती है,
मैं अपनी सांसे गिन - गिनकर खुश होता हूं कि
चलो इसी बहाने
एक और लौ तो जल जाती है..!!
7
मेरे दिल की पुकार से जो निकली थी आह ,
सुन कर के सब लोग वाह - वाह कर गए।
मैंने पिजाए जो थे पैने शब्द धारदार,
लोगों के शौकिया तलवार हो गए।
मैंने दी थी जो चुन - चुन के कटु गालियां ,
बजा के तालियां लोग बेमिसाल कह गए।
मैंने शब्दों का जो भी गढ़ा आईना,
वे सब ‘मेकअप’ के अदने औजार रह गए।
कैसे कुछ भी कहूं बात बनती नहीं,
बेड़ियां मन की काटे कटती नहीं,
जाति - धर्मों के ‘ हर्फों ‘ को ही देखकर
अब शरीफों के बीच क़त्लेआम हो रहे..!!
8
कोरोना त्रासदी में पलायन
भूख, बेबसी, लाचारी में
गरीब ही गरीब का होता है,
मजदूरी के भी काबिल हमको
अमीर कहां समझ पाता है,
हम सड़कों पर पांव घिसाएं
वह तो महलों में सोता है..!
ईंट से ईंट जोड़ - जोड़कर
शहर बनाएं हम मिलकर
पर हम अपने जब ख्वाब बसाएं
कोई कहां बसने देता है,
खुलकर हंसना भी चाहे तो
कोई कहां हंसने देता है..!
साफ़ - सफा शहरों की करते
खून - पसीना पानी करके
फिर हमको जब प्यास लगे तो
खरीद के जल पीना होता है
औरों की खुशहाली खातिर
हमको यों जीना होता है..!
शहरों की हंसती दुनिया को
आंसू से सिंचना होता है,
गांवों से ख्वाब लाद कर आते
अपनों से छुटना होता है,
बाबू, बहना, जोरू सबसे
फुसलाकर कटना होता है..!
हाड़ तोड़ मेहनत करके भी
भूख को झुठलाना होता है,
पाई - पाई जोड़ - जोड़ कर
मुश्किल से चलना होता है,
आ जाए जब कोई आपदा
सबकुछ लेकर टलना होता है..!
9
मैं पौधे लगाता जा रहा हूं
मैं हर दिन अपनी जमीं से उखाड़ता जा रहा हूं,
इसलिए पौधों को जमीं में रोपता जा रहा हूं।
मेरे जीवन का सोता रोज सूखता जा रहा है,
इसलिए इनकी जड़ों को सींचता जा रहा हूं।
मेरे भीतर की हरियाली रोज चर जाती है दुनिया,
इसलिए इनकी सुरक्षा में बाड़े लगाता जा रहा हूं।
मेरे आसपास की मिट्टी यों न धखर जाए कहीं,
इसलिए इनकी जड़ों में मिट्टी चढ़ाता जा रहा हूं।
अक्सर खरपतवार उग आते हैं मेरे इर्द - गिर्द,
इसलिए उसे हटाने खुरपी चलाता जा रहा हूं।
मेरी दुनिया बंजर होती जा रही है दिन - ब - दिन,
इसलिए इनकी मिट्टी में खाद मिलता जा रहा हूं।
मुझे मालूम है कि हर किसी को है छांव की जरूरत
इसलिए अपने सहारे की लाठी बचाता जा रहा हूं।
विषैले सांपों को भी पता है कि 'चंदन' शीतल होता है
इसलिए लकड़हारों के लिए भी छांव लगाता जा रहा हूँ।
10
जो ज्यादा तेज बनते हैं
कहते हैं - वे तीन जगह माखते हैं :
पहले पैर , फिर हाथ
और फिर नाक..!
नाक का माख जाना बड़ी बेइज्जती है,
क्योंकि
माखने वाला ये मुहावरा
गोबर , गंदगी या आदमी के विष्टा से जुड़ा है।
मगर पहली बार ये हुआ है कि
माखने वाला ये मुहावरा
आदमी द्वारा सत्ता को पाने की चालाकी , झूठ और
लोभ की परम चेष्टा से जुड़ गया है..
जिसे पा कर वो बना रह जाना चाहता है सरकार में
और अपनी हसरत के लिए
चालाकी, झूठ और लोभ की गंदगी में
अपने साथ - साथ सबको मखा देता है
जिसमें आदमी ही नहीं ,
आदमी द्वारा बनाये गए
सारे ऐतिहासिक ‘किले’ तक माख जाते हैं..!!
जिसके लिए मुँह से निकलता है
बस एक शब्द - ‘ छी:’..!!
11
जय जय मोदी
दो दो बैंक दिवालिया हो गई
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
दिल्ली में ही दंगा हो गया
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
एलआईसी सब धन लै डूबे
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
भारत पेट्रोलियम बिक गया
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
रुपया गिर चुका डॉलर सम्मुख
पर मोदी जी जिम्मदार नहीं,
देश की अर्थव्यवस्था डूब रही
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
बेरोजगारी पैतालीस साल में
परचम लहराए जाए रे..
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
लाखों नौकरियां चली गई
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
लूट रहा ' रिजर्व ' रिजर्व बैंक का
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
नीरव, माल्या, चौकसी भागा
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
उद्योगों पर ताला लग गया
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
हिन्दू - मुस्लिम में देश बंट रहा
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
सत्ता झूठ और नफ़रत बांचे
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
जनादेश का गला घोंटकर
नेता बिके- खरीदे जाएं
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
एनआरसी, CAA करके
जनता भले ही जाए जेल
पर मोदी जी जिम्मेदार नहीं,
अठारह घंटे काम करतकर
देश चलावे मोदी जी पर
खर्ची बेच के ही घर चलवईहैं
तबौ मोदी जी जिम्मेदार नहीं..
अपने को चौकीदार कहत है
पर सच में ये चौकीदार नहीं.!!
12
शब्द के संकर अर्थ से बीमार देश
देश के निज़ाम ने
रात के आठ बजे आकार
फ़रमान जारी कर दिया कि
चार घंटे बाद देशबंदी कर रहा हूं
जो जहां हैं , वहीं रहें
घर से बाहर ना निकलें
और अगर निकल गए तो
हम और हमारा देश
इक्कीस साल पीछे चला जाएगा
अपने घर के मोखे को लक्ष्मण रेखा समझें
आदि - आदि...
चलो हमने मान लिया
हम जहां थे वहीं रह गए
जिन्होंने निकलने की हिमाकत क्या की
खूब डंडे से पीटे गए...
डर गए हम...
कि कहीं हमारी भी धुलाई न हो जाए
क्या मजाल कि हिले अपनी जगह से..
कुछ रह गए मंदिरों में
कुछ रह गए मस्जिदों में
कुछ जो निकले थे गुरुद्वारे...
वे सब अचानक हो गए बेसहारे
तीर्थों में फंसे हुए ही उन्होंने देखा कि
उनके - उनके भगवानों ने भी कपाट बंद कर लिए
देखो न मेरे निज़ाम ताक़त कि
भक्तों को भी भगवान छोड़ गए..!!
अब तुम्हीं बताओ न
जब हालत ऐसी हो जाए तो
अपने - अपने भगवानों से बेदखल भक्त तुम्हें
वैष्णो देवी में ' फसे ' हुए
और निजामुद्दीन में ' छुपे ' हुए
कैसे लग रहे...??
क्यों लग रहे हैं..??
इसलिए न कि तुम्हारी चेतना में ही
भेदभाव के बीज पड़े है..
साम्प्रदायिकता के सांप फन उठा रहे हैं..
पर खैर छोड़ो न
जानता हूं कि मैं मीडिया की भाषा
शब्दों के अर्थ को दोगला बना के रखा है
' सोशल डिस्टेंन्सिंग ' हमारे यहां
कोई आज से थोड़े न है
सदियों से बीमार रहा है ये देश
इसलिए इस महामारी में ' फिजिकल डिस्टेंस ' में ही रहो ना
और
शब्दों से इस तरह ना खिलवाड़ किया करो
देश को बचाना है तो ज़रा चुपचाप ही रहा करो..
13
अपनी माँग पर कायम तो कोई रहता नहीं,
और कहते हैं कि माँगने से कुछ मिलता नहीं।
मैंने तो उससे माँग लिया था सारा आसमाँ,
उतर आया ऐसा कि दिल में अब अटता नहीं।
यों जो मांगने जाते हो मंदिर मजारों पर 'चन्दन',
हाथ फैलाए हुए पीर को मन्नत कभी मिलता नही।
14
होली आई होली आई
होली अाई ,होली आई
रंग - बिरंगी होली आई..
फागुन के संदेशे लाई
रंग - बिरंगी होली आई..
सबके मन को हर्षाई
प्रेम मिलन की होली आई
तितली ताल मिलाने आई
चिड़िया गीत सजाने आई
अमराई में मंजर ले के
रंग - बिरंगी होली आई
होली अाई , होली आई
फागुन के संदेशे लाई..
प्रेम मिलन की होली आई..
आंगन की रंगोली आई
मीठी मीठी बनी मिठाई
गरम गरम जलेबी आई
फूल फूल से रंग चुराकर
अबीर गुलाल की होली आई..
होली अाई , होली आई
फागुन के संदेशे लाई
प्रेम मिलन की होली आई..
नदिया कल- कल बहती आई
पछुआ हवा ने चैता गाई
बैसाखी अब है गरमाई
फसलों संग मुस्काने आई
घर को स्वर्ग बनाने आई
होली आई , होली आई
फागुन के संदेशे आई
प्रेम मिलन की होली आई..
15
डुप्लीकेट लोगों का युग
मैं महसूस करता हूं कि
पुस्तकालय में रखी
मूल किताबें अब कोई नहीं पढ़ता
ये मूल किताबें या पांडुलिपियां
लंबे समय से अनछुए ही रह गई हैं
और अब इन्हें दीमक चाट रहे हैं
दरअसल हुआ ये है कि
इन मूल किताबों के तथाकथित पाठक
जो दावा करते हैं इसे पढ़ने की
उन्होंने उस मूल किताब की
फ़ोटोकॉपियां बेचनी शुरू कर दी है
कुछ लोग बेच ही नहीं रहे
बांच भी रहे हैं… खुद फ़ोटो कॉपी बन कर
मुझे दुख इस बात का है कि
इस सूचना क्रान्ति के युग में
मूल किताबें अपने होने का अर्थ
लगातार खोती जा रही हैं
और फ़ोटो कॉपियों ने तथाकथित
नए और ओछे अर्थों को जन्म दे दिया है
जो युग चेतना में डुप्लीकेट लोग गढ़ रहा है…
मुझे इस बात का भी अंदाजा होने लगा है कि
मौलिक लोग अपने चुप्पी और एकांत के ब्लैक होल में
गायब हो जाएंगे
और फ़ोटो कॉपियों का नया युग शुरू हो जाएगा…
जिस में हर तरफ बोलबाला होगा -
फ़ोटो कॉपियों का और डुप्लीकेट लोगों का
शायद उनमें होड़ भी मचे कि
कौन सबसे बड़ा फ़ोटो कॉपी
या महान डुप्लीकेट है….!!
मैं विश्वस्त हूँ कि
प्रतियोगिता परीक्षाओं का ये युग
मौलिक नहीं डुप्लीकेट लोगों का युग है
फ़ोटो कॉपियों का युग है…!!
16
हम नमामि गंगे गाते हैं
हम नमामि गंगे गाते हैं
अंतरिक्ष में पानी पाने
ऊंची छलांग लगाते हैं
हम नमामि गंगे गाते हैं..
शहर के नाले कूड़ा ढो कर
गंगा जी पहुंचाते हैं
हम नमामि गंगे गाते है
स्वर्ग से आई मा गंगे में
भव का सागर तारने
डुबकी रोज लगाते हैं
हम नमामि गंगे गाते हैं
औद्योगिक अधिनूतन बनने
मां गंगे के सात्विक जल में
अविरल मैल मिलाते हैं
हम नमामि गंगे गाते हैं
अपना अपना स्वर्ग साधने
सब अस्थि कलश बहाते हैं
मां को स्वर्ग पहुंचाते हैं
हम नमामि गंगे गाते हैं।
17
पत्ता- पत्ता हरा - हरा
हर डाली से है टूट रहा
चलती सांसों का तो पता नहीं
हम प्यार के दम खूब भरते हैं।
चिड़ियों के चुनमुन गांव गए
हर शहर में कौए बोल रहे
जीवन के धागे टूट गए
हम कटी पतंग - सा डोल रहे।
ये मिट्टी - पानी त्याग के
मरता जब भी होरी है
तब नेम - धरम गोदान कराके
फिर झुनिया कर्ज में मरती है।
18
मेरे दिल की पुकार से जो निकली थी आह ,
सुन कर के लोग वाह - वाह कर गए।
मैंने पिजाए जो थे शब्द धारदार,
लोगों के शौकिया तलवार हो गए।
मैंने दी थी जो चुन - चुन के कटु गालियां ,
बजा के तालियां लोग बेमिसाल कह गए।
मैंने शब्दों का जो भी गढ़ा आईना,
वे सब ‘मेकअप’ के अदने औजार रह गए।
कैसे कुछ भी कहूं बात बनती नहीं,
बेड़ियां मन की कैसे भी कटती नहीं,
जाति - धर्मों के ‘ हर्फों ‘ को ही देखकर
अब शरीफों के बीच क़त्लेआम हो गए..!!
19
ढाई आखर
प्यार के ढाई अक्षर में
एक तुम हो
दूसरा मैं हूं,
बाकी जो आधा बचा,
उन भावों ने ही
पूरा इतिहास रचा…
क्योंकि सब कुछ देकर भी
कुछ देने को और भी रह जाता है,
क्योंकि सब कुछ पाकर भी
कुछ और की चाहत रह जाती है..!
20
अनंत आसमां की सृष्टि में
ज़र्रों में एक ज़र्रा धरती,
ऐसा छुटपन जान समझकर
मेरी ‘अहम’ भावना मरती..!
21
किसान
भावों की धरती पर
विचारों के बीज बोए
शब्द के अंकुर फूटे
अर्थ के पत्ते निकले
वाणी का पौधा बढ़ा
भाषा का वृक्ष बना..!
22
सुनो आकाश
कुछ तारे सजाओ
हमारे लिए।
23
क्या जादू है
तुम्हारे साथ होते ही
समय को भी पंख लग जाते हैं।
24
एक आम आदमी के मौत से ज्यादा त्रासद होती है
किसी कवि की मृत्यु.!!
किसी अदने आदमी की लाश
कुछ दिन तक ही सड़ - गल कर बदबू फैला सकती है,
किंतु कवि की मौत होने पर
साथ ही साथ मरने लगती है सभ्यता
और उसके बेल बूटे जैसा समाज
और समाज की सत्ताएं भी..
बस एक कवि की लाश ही
कालचक्र के हर युग में सड़ते - गलते
पूरे इतिहास को दुर्गंध से भर दिया करती है।
25
माचिस
तेरी औकात है पचास पैसे की
इसलिए कि
सिवाय आग के
कुछ दिया ही नहीं है ज़माने को तूने।
खुद जल के किसी को जला देने के सिवा
कुछ दिया ही नहीं है ज़माने को तूने।
कम - से - कम
यही गुर सीखा दिया होता
इन तक़दीर के फूटे गरीब को..
जो घिसते - घिसते मिट तो जाते है
पर धधक कर ना जल पाते हैं और न ही
किसी तजुर्बे से
उन्हें जला पाते हैं
जो रोटी के लिए इन्हें घिसने को मजबूर करते हैं।
काश ! ये जख़्मी लोग
तुम्हें देख - समझ कुछ भी सीख पाते
तो तेरा मोल आज अनमोल होता।
ये लोग तुम्हें बस इतना समझते हैं कि
कमजोर लरी पर बारूदी टोपी,
बंद डिब्बे में माचिस की तीली।
… पर खुद भी तो ऐसे ही हैं ये।
है गरीबी माचिस का डिब्बा
तीली उसका है वो,
है बारूदी टोपी भी जज़्बात का..
फिर भी जो जब चाहे रगड़ दे उसको,
जख़्मी भी है पर फिर भी मूक बना है वो.!!
26
जब घर में कोई लोकतंत्र नहीं
फिर देश की क्या बिसात है
चौपड़ बिछी हर परिवार में
हर पाशे पर शह और मात है।
भाई - भाई उलझे हर घर
भीतर भीतरघात है।
अंदरखाने बंटे - विभाजित
कहने को केवल साथ हैं।
भाई - भाई के ये झगड़े
अक्सर ही तब होते हैं,
पढ़ - लिखकर जब बच्चे अपने
बाप के कद के होते हैं।
27
पैदा होता नहीं कि बच्चा
लिंग पड़ताल कराते हैं,
आँगा - पीछा सोच के माँ - पा
बेटा ही जन्माते हैं।
अगर जनम ली बेटी घर में
दोयम दर्जा पाती है
बेटा - बेटा करते माँ - पा
बेटी रोती जाती है।
लिंग भेद के जखम से बच्चा
अगर कभी बच जाता है,
जाति - धरम के भरम जाल से
शायद ही बच पाता है।
कोमल मन के बच्चे का जब
अपना होश संभलता है,
माँ - पा के सपनों का बोझा
वो अपना मान के चलता है।
ऊँगली पर गिनती करके वह
करियर पांच बनाता है,
भीड़ - भाड़ की तरफ़ देख कर
सरपट दौड़ लगाता है।
बच्चे को दौड़ा कर माँ - पा
नाक पर इंच जमाते हैं,
रिश्ते नातेदारों से कह
इज्ज़त खूब कमाते हैं।
प्ले, प्राइमरी, इंटर, मैट्रिक
बच्चा लाए जाए हैट्रिक,
पढ़त - पढ़त बन बरदराज वह
दूध - दही में पाए लैक्टिक..
ऐसे ढ़र्रे चलता बेटा
माँ - पा को बहुत सुहाता है
कमासूत सपूत कहाता
उन्हें उम्मीद बंधाता है..
पर जैसे उसकी शादी होती
और बीबी पर जान छिडकता है
28
एक अग्रज के प्रति
जो बात चलाई है तुमने
तारीफ़ करूँ मैं क्या यारा
शुभ दुआ प्रभु से बस इतनी
जो तुम सोचो, वह सृजन करे
वसुधा ये स्वर्ग समान बने
जो तुम चाहो वह आदर्श बने
माटी की सौंधी खुशबू लौटाए
तेरे जीवन - ज्योति से विस्तृत
युग जीवन आलोकित हो जाए।
हे मीत मेरे यह गीत मेरे
तेरे साथ चलने की गवाही है
कदम - कदम से ताल मिलाकर
पल - पल आगे बढ़ने की
हमने भी इच्छा पाली है।
इच्छाओं की क्या बात कहूँ
जज़्बात सुनाता हूँ दिल की
आसमान की ऊंचाई और
सागर की गहराई जब
हमें चुनौती देती है तब
क्या व्यथा सुनाऊं इस दिल की..!
खैर, जो प्रश्न बने हैं प्रश्नाकार
हल चाहूँ और सपने हों साकार
जीने - मरने की होड़ में
जंगे - जिंदगी की दौड़ में
हम जब भी बनें दिशाहारा
उम्मीद है तुमसे बस यारा
दिशा देना.. दिशा देना.. दिशा देना..
29
आहत ममता
आशाओं और कामनाओं के साथ
माँ की ममता से सराबोर आँचल के नीचे से
कोई आने वाला था जग में,
जिसकी प्रतीक्षा में थे कई खड़े..
फिर एक चीख के बाद
आयी उस नवनीत नवजात की आवाज़…
फिर व्यग्र पिता के बोल फूटे -
"क्या है ?" में
और दाई के उत्तर के साथ ही
जन्म हुआ अनेक सवालिया चिह्नों
और प्रतिबंधों का !
अतः उस अजनबी के साथ
माँ भी बनी अजनबी - सी..
अब कोसते हुए
दोषी ठहराया उन्होंने गर्भ को,
जिनके ' वीर्य ' का परिणाम था बच्चा।
स्नेह - ममता के रुंधे कंठ से
आहत होकर जननी बोली -
मत घबरा ' बेटी '
क्योंकि
शायद इन्हें नहीं पता है कि ये ' मर्द '
किससे और कैसे बने हैं..!!
30
जिंदा रहते जिंदगी से तो दूर रहते हैं,
मौत करीब आती है तो तड़पते हैं।
चलती सांसों से तो अंजान रहते हैं
हम यों ही तो मौत के साथ रहते हैं।
प्यार पाने को अब हम यार रखते हैं,
दिल की दरिया बहाने गुलाब रखते हैं।
टेक - पैसों से यारी की तौल करते हैं,
अपने भावों से ही तो मखौल करते हैं।
पनपे विरवे को दिल में दबा रखते हैं,
चंद हर्फ़ों को ही तो ‘ प्यार ‘ कहते हैं।
31
मंजिल की डगर
जब लगी ठोकरें राह में चलते हुए
तब संभालना बड़ा भारी लगा।
फिर मंजिल ने कहा - ' बेटे '...!
साथ ही धिक्कारा था दिल ने जोश को
तब आँख हुई ऐसी भारी कि
मानो कह रही हो
कंठ की रुखाइयों को
मिटा ले मेरी घूँट से
फिर चल के दिखा ज़रा
रुत कुछ अलग होगा..
तक़दीर की लकीर
चाहे जैसी भी हो
आगे चलना भी कुछ अलग होगा
फिर चाहे डगर भी जैसी हो
उसे नापना भी बेहतरीन होगा।
32
पता नहीं क्यों आदमी
यह मानने को तैयार नहीं कि
वह भी एक जानवर ही है..
ये बात और है कि
आदमी भी कभी - कभी
शेर , सिंह, बाघ, टाइगर , लायन..
कहलाना पसंद करते हैं ,
पर खुद पर आदमियत का रौब
इस कदर ओढ़ लेते हैं कि
ये सुरक्षित वन्य जीव भी
विलुप्ति के कगार पर आ गए..!
हम इंसान ये नहीं देखते कि
एक भेड़िया भी है हमारे भीतर
जो अपनी भूख और वासनाएं मिटाने
कभी भी टूट पड़ता है मासूमों पर..!
एक गिद्ध भी है ,
जो अपने खूनी पंजों से
खुले आकाश में उड़ने वाले
निरीह पंछियों को ‘ बकोट ‘ लेता है..!
माना कि गिद्ध भी विलुप्त हो रहे,
इसलिए “ गिद्ध - दृष्टि “
हमारी नज़रों में शामिल हो गयी..!
हमारे भीतर एक सफ़ेदपोश
काला कौआ भी है ,
जो भूखे लोगों के हाथों से
रोटियाँ लुपचने को
शातिरेनज़र तैयार बैठा है..!
गीदड़ या सियार भी है ,
जो आज भी मीठे ‘अंगूरों’ पर
टकटकी लगाए हुए है…!
एक प्यारा -सा मोर भी है
जो बरसाती घटाओं को देख
अपनी प्रेमिका को रिझाने - मनाने
प्रेमालिंगन में खुद को मिटाने
उन्मत्त होकर नाचता है..!!
पर आखिरकार वह
इतने जानवरों के बीच
अपना अस्तित्व कब तक संभाले..?
सो प्रेमाकुल अपने जानी दुश्मन को
सामने देख
साँप फन उठता है
और मोर के सीने पर कुंडली मारकर
डँसने तैयार हो जाता है..!!
पता नहीं क्यों आदमी
यह मानने को तैयार नहीं कि
वह भी एक जानवर ही है,
जो अब और
विकसित हो गया है..!!
33
मैं अगर सरकार में होता
तो सारे कथित लेखक - कवियों को
लेखन - भत्ता देता..
ऐसा इसलिए कि
लौट आया है समय चारण गायकों का,
लौट आया है समय सजते राज दरबारों का,
जहाँ मुजरा करने लगी है जनता ….!!
अन्यथा न लेना दोस्त मेरी बात का..
मुजरा करने वालियाँ भी जनता के बीच की ही हुआ करती थीं,
अंतर बस ये था कि
वे इक्का दुक्का थीं, वे सज-धज कर जाया करती थीं,
राजाओं संग रास रचाया करती थीं…
करने को तो वो सब करती थीं वे,
जिससे मालिक खुश हो जाया करते थे,
खोल तिजौरी प्रेम लुटाया करते थे..!
पर अबके राजा जब भी दरबार लगाया करते हैं,
पूरी जनता जात, धर्म, क्षेत्र, भाषा के ताल पर
एक पैर पर नाचा करती है…
जी भर रास- रंग रचाया करती है…
कभी जालीदार कपड़ों के नीचे उभरे बदन पर
रीझने वाले राजा
आज भी तो रीझ जाते हैं फटेहाल चिथड़ों को देख कर..
ताकि उन्हीं चिथड़ों से राजनीति की रोटियां जो सेकीं जा सके..
देखो न....आखिर आ गई न बात रोटी पर…
बताओं न...किसे नहीं है रोटी की चिंता..??
इसीलिए तो कहता हूँ :
अगर मैं सरकार में होता
तो सारे कथित लेखक - कवियों को
लेखन - भत्ता देता..
ऐसा इसलिए कि
लौट आया है समय चारण गायकों का,
लौट आया है समय सजते राज दरबारों का,
जहाँ मुजरा करने लगी है जनता..!!
34
अगरबत्तियों का धर्म
मंदिर और मज़ार की धूपदानियाँ
एक ही तरह की हुआ करती हैं,
जिसमें जला करती हैं अगरबत्तियाँ..
हालाँकि अगरबत्तियों ने कभी तय नहीं किया कि
उन्हें कहाँ जलना है..!!
दरअसल ये तो वे तय करते हैं,
जो जिंदगी की खुशहाली ख़ातिर
मन्नत मांगा करते हैं।
मन्नत कबूलना हो या हो मन्नत उतारना..
अगरबत्तियाँ बस औपचारिकतावश
शामिल कर ली जाती हैं.. जलाने के लिए..!!
और सुगंध बिखेरने के लिए भी...
और शायद ईश्वर या अल्लाह को रिझाने के लिए भी..!
इस तरह मंदिर और मज़ारों पर
समान रूप से जलाई जाती रही हैं अगरबत्तियाँ..!
इंसानों की तरह ये अगरबत्तियाँ
न तो हिन्दू हैं और न ही मुसलमान हैं
मगर फिर भी अपने को जलाते हुए
वे ये नहीं सोचती हैं कि वे किसके लिए जल रही हैं..!!
उनका तो मानो बस एक ही धर्म है -
किसी के मन्नतों के लिए जलना...
और सुगंध बिखेरते हुए राख़ हो जाना..!!!
35
शब्द शासन करते हैं
शासन करने वाले शब्दों की
है अपनी एक आभा
शब्दों की ये आभा
अनंत काल से उन्हें अर्थवान बना रही है।
उन्हीं मूल्यवान अर्थों की विरासत से
शब्द लोक - परलोक की यात्रा करते हैं
लोक में जो इन शब्दों के मुहावरे हैं
वे कुम्हार की चाक पर चढ़कर
घूमते हुए आकार लेकर सुंदर घड़े बने
उसी घड़े से प्यासी सभ्यता तर हो पाई।
उन्हीं शब्दों के मुहावरे
धोबी की पाट पर
नदी की छप - छप में
पटक - पटक कर ढोलक की थाप जैसे
विरहा के तान संग गाई गई।
वही शब्द
किसी आदिकालीन किसान की कुदाली से
बीज की तरह मिट्टी में मिलाए गए
फिर उन बीजों से जो पेड़ निकले
उनकी हरियाली से
फिर वही शब्द छितराए
प्राणवंत जंगल बन कर दुनिया भर में..।
उन्हीं जंगलों की सूखी लकड़ियां
लकड़हारों के कंधों से ढोई गई
गांव - देहात और कस्बाई बाजारों तक
फिर वही शब्द
सूखी लकड़ियों के रूप में खरीदे - बेचे गए
क्योंकि उन निसंड लकड़ियों के भीतर
जो खलखलाती आग छिपी थी
उन्हीं को जलनी थी चूल्हों में
उसी से रोटी बननी थी
अब देखो न रोटी तक, आखिर कैसे..
शब्दों की सत्ता आ पहुंची..?
यही सत्ता शासन करती है
कभी पेट की आग बुझाती है
कभी चूल्हों की यही जलती लकड़ियां
मशाल बन कर
अंधियारी में राह दिखाती है…
36
जब कभी सत्ता बदलती है
तब अक्सर बहुत प्रचलित शब्द
उस सत्ता के सम्मुख
सीना तान कर खड़े हो जाते हैं
और करने लगते हैं सत्याग्रह
सत्ता उन शब्दों को
बर्दाश्त नहीं कर पाती
और उनका अस्तित्व मिटाने लगती है..
मैंने देखा कि
शब्दों को भी इस बात का अंदाजा हो गया था
और वे भी निकल पड़े
अपना अस्तित्व बचाने
हर एक शब्दों ने ये तय कर लिया कि
उन्हें उनके अपने मूल अर्थों को
उसी रूप में बचाए रखने हैं
जैसे वे पहले से हैं…
इस क्रम में वे निकल पड़े सड़कों पर
मगर ज्यादातर लोगों ने
उनकी परवाह तक नहीं की,
हुआ तो ये कि सत्ता के डर से
कुछ समझदार लोगों ने भी कन्नी काट ली
और अधिकतर नासमझों ने तो
उल्टे उन्हें ही राजद्रोही कह डाला
अरे नहीं, राजद्रोही नहीं… देशद्रोही कह डाला
शब्द ये सब देख अचरज में थे
पर तब तक शब्द असहाय हो गए थे
उनके हड़ताल को सत्ता ने
आड़े हाथों लिया और
सरकार की बेअदबी समझ
हुक्मरानों के इशारे पर
राजधानी की सड़कों पर लाठीचार्ज हुआ
और वे पीटे गए।
जो शब्द डटे रहे सत्याग्रहियों के संग
उनकी फिर गिरफ्तारियां हुई
विज्ञापन की भाषा के अदालत में
मुकदमा चला
और उन्हें दोषी करार देकर
हथकड़ियां पहना दी गयी।
जब अदालत उन्हें सजा दे रही थी
तो शब्द हतप्रभ नहीं थे
उन्हें पता था कि
विज्ञापन की भाषा का ये अदालत
सरकार का पैरोकार है
आखिरकार उन्होंने
शब्दों को भी सजा दे दी…
पर जिस तरह
सजा दी गई शब्दों को
उससे ये जाहिर भी हुआ
कि
सत्ता ये बहुत अच्छे से जानती है कि
शब्द दीर्घजीवी होते हैं,
जिसे एकबारगी मिटाया नहीं जा सकता,
इसलिए वे कई बार
उन्हें जस का तस
उसी शब्द - शरीर में रहने देते हैं
और उनकी अर्थवन्त आत्मा को
बदलने का तांत्रिक प्रयोग करती हैं
और …
और कुछ शब्दों को तो
यों ही मार देती हैं
साम्प्रदायिक झगड़ों की आड़ लेकर,
दो संस्कृतियों के परस्पर युद्ध में,
किसी का नाम बदलकर,
किसी के विपरीत प्रतिशब्द तैयार कर…
सत्ता उन प्रतिशब्दों को
नायक - शब्दों की भांति प्रयोग करती है
और इसी क्रम में
सत्ता द्वारा शब्दों को मौत की सजा दे दी जाती है..!!
37
मंदिर - मंदिर माथ पटक कर
जीत गई सरकार रे,
जयकारों में भटक गयी है
जनता की दरकार रे,
बंद हो चले विद्यालय भी
बिन घंटी की टंकार रे,
गाओ ,गाओ, गाओ प्यारे
सत्ता की जयकार रे..!
38
कभी बहती हवाओं संग बहना ,
उड़ते परिंदों संग उड़ान भरना ,
समंदर की लहरों संग थिरकना,
नदी की धार में सराबोर भींगना ,
सच, असल में यही तो है जीना …!
वसंत के अमराई की खुशबू में डूब कर फूल बनाना
कोयल की कूक संग वैशाखी के गीत गुनगुनाना
गेंहू की पकी बालियों को किसान की नज़रों से तकना
गोधूलि में लौटती गायों से घर का पता समझना
सच कहता हूं असल में यही तो जीना ..!
माना कि सूरज का उगना , चांद का निकलना
और रात की आंचल में तारों का टिमटिमाना
तुम्हारे लिए जीवन के हर जरूरी मुद्दों से बाहर है
सच में दोस्त इसीलिए तो जिंदगी की खस्ता हालत है..!
39
मैं विश्व - समय में जीता हूँ
अगर मैं कहूँ कि
'मैं समय के साथ चल रहा हूँ '
तो इससे पता चलता है कि
समय और मुझमें कोई फ़र्क - सा है
साथ चलने की कोई स्थिति है
शायद आप ये अर्थ समझें कि
मैं समय की रफ़्तार के साथ कदम मिला रहा हूँ
पर मैं किसी रफ़्तार या गति से
समय को जोड़ नहीं रहा हूँ।
अपनी सुविधा के लिए जो हमने
सेकेण्ड ,मिनट और घण्टों के अंतरालों को
निश्चित गतिशील क्रम में रखा है..
उसके अटूट अंतरालों को न भी विभाजित करें
तब भी कई आकाशीय पिंडों की गति से
जैसे हम समय को गिनने के लिए भ्रमित होते है,
वैसे मैं समय को नहीं देखता
मैं इसे बाँट कर नहीं देख सकता
किन्तु मैं समय के साथ हूँ
या अपनी तरह से कहूँ तो
समय में मैं घुलमिल - सा गया हूँ
अद्वैत की जो स्थिति है
वह मुझे मेरी तरह लगती है।
एक छोटे - से पल में
मुझे काल या महाकाल की पूरी प्रवृति दिखती है
मगर जिससे आप
खुद महाकाल तक को आकार लेता देखते हैं..
वह बस है,
न तो बन रहा है न ख़त्म हो रहा है..!
एक सामान्य पल हमलोगों के लिए चाहे तुच्छ हो पर
उसके बिना काल या महाकाल तक अस्तित्वहीन है..
एक पल ...बस एक छोटा - सा पल
सोचो न कितना अहमियत रखता है -
मेरे होने के लिए..
तुम्हारे होने के लिए..
हम सब के होने के लिए.. और..
सब कुछ के साथ होने के लिए…!!
40
आपको अपने धर्मग्रंथों पर
चाहे कितना भी गुमान हो
यह सोचकर कि
उससे पुराना कुछ लिखा ही नहीं गया अब तक..
चाहे कितना भी गर्व हो आपको
इस बात पर कि
आपकी सभ्यता दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता है,
वो सारा गर्व और गुमान
चकनाचूर हो जाएगा जब
आने वाली पीढ़ियाँ
पढ़ने लगेंगीं उन किताबों को
जिन्हें आप बिना पढ़े पूजते रहे ताखे पर रख कर।
आने वाली पीढ़ियाँ सवाल करेगी आपसे
कि इसे अब तक ठीक से पढ़ा क्यों नहीं गया..?
और यदि पढ़ लिया
तो पूज क्यों रहे हो..?
क्यों नहीं समझ पाए कि
आपके धर्मग्रंथ इतने मनुष्य विरोधी क्यों हैं ..?
और इतने निकृष्टतम कैसे हो सकती हैं ये किताबें कि
मनुष्य के विशाल वंचित वर्ग को ही
मनुष्य भी कहलाने का हक नहीं दे।
आपकी आने वाली पीढ़ी पूछेगी ये बात
कि आखिर ये धर्मग्रंथ ये कैसे तय कर लेते हैं कि
मनुष्य के अभावग्रस्त बदरंग अलग अलग नस्लों को
असुर, राक्षस, दानव, हैवान आदि कहा जा सके..
और उन्हें पूरी सभ्यता के इतिहास से ही
बेदखल कर दिया जाए…
सीमांचल सेट (३)