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सीमांचल सेट (४)

14 अक्टूबर 2022

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1
सुनो ना..
जहाँ सिर्फ हम तुम हों
ऐसी रेडीमेड जगह कभी भी नहीं होगी।
प्रेम करने वालों को
खुद अपनी जगह बनानी होती है।
बने बनाए रस्तों और जगहों पर
प्रेम का आडंबर हनकोटीै
प्रेम नहीं होता है।
जिस समाज में ही प्रेम की जगह नहीं है
वहां प्रेम करने वालों की
आखिर जगह होगी भी तो कितनी .?
मगर जहां भी सिर्फ़ हम तुम होंगे
वहां जोख़िम लेकर ही सही
कुछ तुम मेरे लिए जगह बनाना
कुछ मैं तुम्हारे लिए जगह बना दूंगा..
हमारे द्वारा निर्मित इसी स्पेस में
हमारा प्यार चमकेगा सितारा बन कर..!
2
जिसे तुम शुद्र कहते हो
जिसे तुम शूद्र कहते हो,
जिसे अछूत कहते हो,
हो सकता है उनका खून
ज्यादा पवित्र हो तुमसे...
ज्यादा संभावनाएं हैं कि उनके खून में
किसी और जातियों के खून की
मिलावट ही न हुई हो शुरू से...
क्योंकि उन्हें छुआ तक नहीं है किसी ने
अछूत को अछूत ही रखा है सभी ने..
पर उनका इस तरह अछूत रह जाना ही
तुम्हारे द्वारा तय किये गए
पवित्रता के पैमाने पर
उनकी श्रेष्ठता है।
मगर उनमें इतना आडंबर नहीं है कि
वे रक्त - शुद्धता के पैमाने पर खुद को पाकर
श्रेष्ठता - बोध से पीड़ित रहें ;
जैसे कि तुम हो…
3
लिंग भेद की धारणा
एक औरत
जब अपनी बेटी को
खूब दुलार - प्यार कर रही होती है
तब वो उसे ' बेटा ' कहती है।
वही औरत
जब अपने बेटे को
खूब दुलार - प्यार कर रही होती है
तब उसे ' बेटी ' कहती नहीं देखी जाती है।
जबकि बेटी प्रेम की कोमलता को
ज्यादा वहन करती हैं..
कभी सोचता हूँ तो पाता हूँ कि
मर्दों की सत्ता के साथ जीती माँएं
चुपचाप ही मर्दों की सत्ता को
इतने करीने से पाल - पोष कर बड़ा बना देती है कि
उनकी बेटियों से जुड़े सुंदर शब्द
अर्थ खो देते हैं बेटों के सामने..!
4
बस प्रेम में होने भर से
बस प्रेम में होने भर से
दुनिया भर के बने - बनाए ढाँचे
टूटने लगते हैं,
दरकने लगते हैं..
कहीं जात की दीवारें गिर जाती हैं,
कहीं धर्म के मजबूत स्तंभ ही
धस जाए हैं जमीन में..
कोई भला बेटा बुरा हो जाता है,
किसी की शर्मीली बेटी
बेहया हो जाती है
कोई बाप अपने बिरादरी में
मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहता
किसी की माँ के
भाग फूट जाते हैं
बस उनके बच्चों के
प्रेम करने भर से…
देखो न.. कितना कोसती जाती है
वो अपने ही कोख को..
बस प्रेम में होने भर से
कितना कुछ बदल जाता है ना
जंगल का फूल
गजरा बन जाता है
सड़कों पर खिल उठते हैं गुलमोहर
बाग़ के पेड़
गर्म सांसों को ठंडी छाँव देने लगते हैं
होंठों की फड़फड़ाहट
शब्द बनने लगते हैं
सीना फाड़ कर
उफ़ान मारने लगता है कुछ
बस प्रेम में होने भर से
कविता बन जाती हैं रातें
और लय और छंद बन जाते हैं
सुबह - शाम..!
5
सुख नदी की तरह
किनारों में बंधा होता है,
दुःख समंदर की तरह
इतना विस्तार लिए होता है कि
उसके एक किनारे पर खड़े भी हो जाएं
तो दूसरा किनारा नहीं दीखता..!
सुख की मिठास हमें बहा ले जाती है
समय का पता ही नहीं चलता..
दुःख ठहरे हुए खारे समंदर की तरह होता है,
जिसमें नदी की मिठास
लगातार घुलती - मिलती रहती है..
हमें सुख चाहिए होता है पर
उसके सिकुड़े किनारे आख़िर
दुःख के सागर की ओर बहा ही ले जाते हैं
सुख में बहता हुआ मन
ऐसे बहता है कि संवाद संभव नहीं होता..
दुःख में घुलता हुआ मन
इतना ठहरा - सा लगता है कि
व्यथा की कथा लंबी हो जाती है..!!
6
तीनों बन्दर बापू के
अंततः नहीं ही बोलेंगे...
पहले वाला जो कान बंद किये है,
वह कुछ सुना नहीं तो बोले क्या..?
दूसरा आँखें बंद कर के
केवल कान की बात पर भरोसा करके
बोलने की जहमत उठाए क्यों..?
और तीसरा हर हाल में
चुप ही रहने की ही कसम खाए है।
सच पूछो तो बापू के ये तीनों बन्दर,
भेड़चाल में मस्तकलंदर।
7
कोई चुनाव लड़ रहा है
कोई आईपीएल खेल रहा है
पैसों के ख़ातिर
कोई नेता बिक रहा है
कोई खिलाड़ी बिक रहा है
चाहे चुनाव हो या आईपीएल
पानी की तरह पैसा देखो कैसे बह रहा है
जिन्हें जरुरत थी सांसों की
वे खरीद न पाए ऑक्सीजन
जिन्हें जरुरत थी जिंदगी की
उन्हें अस्पताल में जगह नहीं मिल रही है
दवाओं की दुकान से खरीदी जा रही मौतें
लाशों के लिए लकड़ियाँ और
ख़रीदे जा रहे कफ़न...
पैसा पानी की तरह बह रहा है
पर पैसों वाला यह पानी विपरीत धारा में
एक - दूसरे धार को काट कर
आख़िर कैसे बह रहा है..?
8
पेड़ की शाख से
पत्ता टूटा
पेड़ तटस्थ रहा।
टूटे पत्ते को
हवाओं ने उठा - उठा कर पटका
पेड़ देखता रहा।
पत्ता रेशा - रेशा होकर
घिसटता रहा जमीं पर
पेड़ चुप रहा।
पत्ता रगड़ खा -खा कर
मिल गया मिट्टी में
पेड़ खुश हो रहा कि
चलो मिट्टी में मिलकर पत्ता खाद तो बना।
9
आँसुओं के टघार को
शब्द दे दे मौला
आखिर
किसी अर्थ और प्रभाव से
मेरे दर्द के दबाव को क्यों न जाय तौला
मेरे कफ़सियों और उसांसों को
दे न रे...
शब्द दे दे मौला..!!
10
मेरे शब्दों के हर पौधे देखो
ख़ून से सींचें जाते हैं,
वे आह - वाह करके ही बस
फ़सल उड़ाए जाते हैं..!
11
शादी के बाद वो मिली जब
वो मिली थी
दुबारा उसी मोड़ पर
जहाँ कभी हम मिलते थे
हलस के हमने बातें की
हालचाल एक - दूजे की ली
प्यासी आँखें जो बोल रही थी
उसे समझ सकुचाई वो
मैंने कहा चलो घर मेरे
टाल ज़रा मुस्काई वो
फिर मुझे देख हतप्रभ - सी बोली
क्या तुमने भी शादी कर ली ?
हां कहकर मैं बोला उसको
तुम्हारे हिस्से के आंसू जब
बह निकले दो धारे बन
तब उन धारों की सजल तरलता
भरे भाव से संजो के 'कर' पर
आयी जो जीवन संगी बन
कपाट दिल के खोल के मुझको
आसमान भर आजादी दे दी
इसलिए मैंने शादी कर ली..!
12
इश्क
इश्क़ में यारा ऐसे डूबा,
मन को दूजा रास न आया।
दुनिया पूछे पैसा - कौड़ी,
वो क्या जाने इश्क़ निगोड़ी।
दुनियादारी हम ना जाने,
फिर दुनिया की हम क्यों माने।
हम बौराए इश्क़ में यारा,
पिय संग मोहे लागे न्यारा।
दुनिया दौड़े मारन हमको,
पर मर के मैं बचाऊं पिय को।
हमें मार ये दुनिया सोची,
इश्क़ के पर पे चला ली कैंची।
पर दुनिया को कहाँ पता री,
इश्क़ में मैं मर अमर ही हो ली.!
13
समय की अविरल धारा को
हमने बाँट दिया खेमों में,
अपने अक्ष पे घूम के धरती
दिवस बदलती रैनों में।
समय का कोई टुकड़ा लेकर
मील का पत्थर माना उसको
समय की जिसने की है सवारी
परमपिता सम जाना उसको।
तारीखों के मील का पत्थर
उस पैगम्बर से जुड़ता है,
जिसके संकल्पों से सजकर
तवारीख़ बदलता है।
समय का कतरा - कतरा देखो
बिना रुके बस बहता है,
तुम चाहो तो बाँटों उसको, पर
वह बिना बँटे बस चलता है।
समय को इसकी फ़िक्र नहीं कि
किस पल को तुम अच्छा बोलो
अपनी छोटी बुद्धि से तुम
उसको चाहे जैसे तौलो।
समय उसी के साथ है रहता
जो समय - सवारी करता है,
काल के भाल पे वही चमकता
जो विश्व - समय में जीता है।
14
दाल - भात, रोटी - सब्जी
मैं हिंदी का ही खाता हूं,
हिंदी के संग जीते - मरते
अपनी पहचान बनाता हूँ।
15
अपनी प्रेयसी,
हरे - भरे पहाड़,
फेनिल दूधिया झरने
और कलकल बहती नदी की याद में
जब - जब वह छलक जाता है,
तब - तब उसकी छलछलाहट को देख कर
मेरे भीतर का
जमा हुआ बर्फ़ पिघल जाता है..!!
16
दर्पण मन
जैसे भोर की किरणें जगकर
चिड़ियों को चहकाती है..
जैसे सुबह का सूरज, शीतल
किरणों संग निकलता है..
जैसे शबनम की बूंदें, दुभरी को
नहलाकर खुश होती है..
जैसे शीतल मंद पवन की
ठंडक प्यारी लगती है..
वैसे उठो तभी ये दुनिया
मोहक प्यारी लगती है..!!
17
किताबों से रिश्ता है
किताबों से दोस्ती,
जीवन के जलधार में
यूं चलती मेरी कश्ती..!
18
तिनके भर सच्चाई का हम
गला घोंटते जाते हैं,
झूठ का बोझा लाद के सर पे
सच को कुचलते जाते हैं,
झूठ को लाखों बार बयां कर
सच को ही झुठलाते हैं,
सत्य खरीद जो नहीं सके तो
झूठ का दाम लगाते हैं,
दाएँ - बाएँ हर तिकड़म कर
वो अपना काम बनाते हैं,
पेशानी पर शिकन नहीं है
शर्म नहीं आती है उनको
कहने को तो कुछ भी नहीं वे
पर खुद को बॉस बताते हैं..।
19
तुम्हें मुबारक रिमझिम सावन
सतरंगी आकाश मुबारक
श्यामल - श्यामल मेघ मुबारक
कल- कल बहती नदिया के बीच
लहर पे तिरती नाव मुबारक..!
सुबह का सूरज रोज तू देखे
हर रात को चंदा रूप सँवारे
मलय पवन - सा यौवन महके
जीवन भर मुस्कान मुबारक..!
साथ मेरे हर डगर चले तू
आठों पहर की ताल मुबारक
उबड़ - खाबड़ रस्ते पर प्रिय
धरती - सी तुझे क्षमा मुबारक
महादेव की बिटिया को हो
सावन का मधु मास मुबारक
जनम दिवस पर मेरी कामना
तुम्हें खुशियों का संसार मुबारक..!!
20
लड़ते राजनेता हैं
और तुम कहते हो देश लड़ता है
बेगुनाह सैनिकों को क्या मालूम
राजा के अहंकार को अपने खून से सींच कर
वह अपने सपनों के साथ बेमौत मरता है..!
21
चाल चौरासी चल कर आये
अब मानव योनि पाए हैं
पर इतने भटकन बाद भी भैया
हम अछूत कहलाए हैं..!
ध्यान, धारणा, योग , समाधि
अधिकार नहीं हमारा है
दंडित करते पंडित हमको
गर कोई वेद उचारा है..!
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की
अखंड - अटूट कहानी है
मूंछ कतरते, घोड़ी छिनते
ये बात नहीं पुरानी है..!
जड़ - जमीन से उखड़ के आए
शहर की गलियां झांक रहे
एक बीमारी ऐसी आई कि
धूल सड़क की फांक रहे..!
कहर ढहाते ये आई बंदी
भाड़े का घर भी उजाड़ा है
चलते - चलते फटी बिवाई
ना गांव, ना शहर हमारा है..!
चौरस्ते पर पुलिस पीटती
सरकार मूंद ली आंख है
अपनी भूख गरीबी में सच
संसद की गिरवी साख है..!
22
तेरी नज़्म में जो आह दर्ज है
उस पर वाह कहूँ कैसे !
अक्षर - अक्षर पीड़ा को पढ़
दर्द से दूर रहूं कैसे !
बिन भोगे कविता पर बोलो
'इरशाद जनाब' कहूँ कैसे !
कहो तो आऊं गली तुम्हारे
तुमसे दूर रहूं कैसे !
बात अनकही जो भी रह गई
बिना सुने जिऊँ कैसे !
तुमसे मैं हूँ, मुझसे तुम हो
चिथड़े सुख को सिऊँ कैसे !!
23
जिनकी संख्या सौ में सत्तर
उनकी नहीं ये सत्ता है,
भूख गरीबी लाचारी में
साफ हो रहा पत्ता है,
मौत कहर बन आयी जबसे
लौटा भूखा जत्था है,
ताल ठोकते मूंछ पे नेता
अंधी बहरी जनता है,
विकट काल है फिर भी वो तो
चाल चुनावी चलता है,
लोकतंत्र में मस्त है नेता
हाल लोक का खस्ता है..
24
कलम चले.. बस क्रांति करे
शब्दों से किसी की प्यास बुझे
कोई वाक्य सिरज लो जब भी तुम
बेबस को आस - विश्वास मिले..!!
तुम प्यार लिखो तो फूल खिले
तुम फूल लिखो तो सुगंध बहे,
कोई हाथ पसारे जब सम्मुख
तब अक्षर - अक्षर प्राण बने..!!
25
आपन को बड़भागी, बोलत है हर कोय ।
दुख में जे धीरज धरे, वही विजेता होय ।।
26
सोये लोगों को अरे, जगाओ ना मसाज़ से,
क्रांति की एक चिंगारी, भड़काओ मशाल से।
27
कभी आकाश की तरह
खुद से खाली होकर देखना
चांद, सूरज और अरबों सितारे भी
उस खालीपन को कभी भर ना सकेंगे..
28
रात से गले मिलकर
उसके ओठों पर ओठ रख दिए
मोतियों से चमकते सितारे
आलिंगन में टूटकर बिखर गए
उनके बिखर जाने को तुम
क्यों टिमटिमाना कह गए..??
अरे वो तो धमनियां फड़क रही थी हमारी
जिसमें हम घुलमिल गए..!!
हमारे इस मिलन को क्यों नींद कह रहे
सच कहता हूं वो नींद नहीं थी..
विसर्जित होता हुआ मेरा " मैं " था..
जिसे लूटा देना चाहता था..
उसकी पनाहों में एकमेव हो..!
ये खुद को लूटा देना ना
खुद की भार से हल्का हो जाना है,
खुद को भुलाकर सुबह के पास हो जाना है..!
29
कोरोना काल और निजाम
देश के निज़ाम ने
रात के आठ बजे आकार
फ़रमान जारी कर दिया कि
चार घंटे बाद देशबंदी कर रहा हूं
जो जहां हैं , वहीं रहें
घर से बाहर ना निकलें
और अगर निकल गए तो
हम और हमारा देश
इक्कीस साल पीछे चला जाएगा
अपने घर के मोखे को लक्ष्मण रेखा समझें
आदि - आदि...
चलो हमने मान लिया
हम जहां थे वहीं रह गए
जिन्होंने निकलने की हिमाकत क्या की
खूब डंडे से पीटे गए...
डर गए हम...
कि कहीं हमारी भी धुलाई न हो जाए
क्या मजाल कि हिले अपनी जगह से..
कुछ रहे गए मंदिरों में
कुछ रह गए मस्जिदों में
कुछ जो निकले थे गुरुद्वारे
वे अचानक हो गए बेसहारे
तीर्थों में फंसे हुए ही उन्होंने देखा कि
उनके - उनके भगवानों ने भी कपाट बंद कर लिए
देखो न मेरे निज़ाम की ताक़त कि
भक्तों को भी भगवान छोड़ गए
अब तुम्हीं बताओ न
जब हालत ऐसी हो जाए तो
अपने - अपने भगवानों से बेदखल भक्त तुम्हें
वैष्णो देवी में ' फसे ' हुए
और निजामुद्दीन में ' छुपे ' हुए
कैसे लग रहे...??
क्यों लग रहे हैं..??
इसलिए न कि तुम्हारी चेतना में ही
भेदभाव के बीज पड़े है..
साम्प्रदायिकता के सांप फन उठा रहे हैं..
पर खैर छोड़ो न
जानता हूं कि मैं मीडिया की भाषा
शब्दों के अर्थ को दोगला बना के रखा है
' सोशल डिस्टेंन्सिंग ' हमारे यहां
कोई आज से थोड़े न है
सदियों से बीमार रहा है ये देश
इसलिए इस महामारी में ' फिजिकल डिस्टेंस ' में ही रहो ना
और
शब्दों से इस तरह ना खिलवाड़ किया करो
देश को बचाना है तो ज़रा चुपचाप ही रहा करो..
30
भावों के श्यामल बादल
उमड़ - घुमड़ जब भी छाते हैं
वर्षा - बूंदी ले आते हैं,
टप - टप बूंदा - बांदी में तब
शब्द टपक कर आ जाते हैं,
जमीं का कागज़ गीला होकर
अर्थ अंकुरित कर जाते हैं,
अंकुर अकुर के पौधे - सा हो
हरियाली बन छा जाते हैं,
फिर हरियाली में मलयानिल
पुष्प - कली महका जाते हैं,
उस सौरभ में भंवरे गाकर
जीवन गीत सुना जाते हैं..!!
31
भावों के महासागर में
अनुभवों के झंझावातों से
उठते विचारों के ज्वार-भाटों में
शब्दों के फेनिल बुलबुले
कैसे उमड़ - उमड़ कर
कविताओं की पंक्तियों में
उतर - उतर आते हैं...
कैसे जीवन को सहजता से
बिना बोले बयां कर जाते हैं...
ये देखना खुद एक कविता है,
और ये जो कविता है न...
वही मेरी वनिता है..!!
32
ईश्वर हम गढ़ते हैं, हम ही उसे आकर देते हैं,
धर्मों के संदेशों को हम लिखते हैं न कि कोई भगवान,
हम ये तय करते हैं कि क्या पाप है क्या पुण्य है,
हम ही अपने यत्नों से गढ़ते हैं भगवत रूप।
हमारे सबसे मूल्यवान क्षण हो जाते हैं ईश्वरीय,
और उसी समय हमें लगता है कि
हमारी कोई प्रार्थना फलीभूत हुई।
झुक जाते हैं हम
अपने ही घनीभूत भावनाओं के सामने..
बह जाया करते हैं आँसूओं संग हम ...
और हो जाते हैं इतने खाली .. इतने खाली..
कि आसमान की तरह फैल जाते हैं सुदूर क्षितिज तक..
उस आसमां की तरह जो इतना खाली है कि
समा लेता है अपने में सूरज-चांद- सितारे तक..
जिसके आगोश में आकाशगंगाऐं भी खो जाती हैं..
ऐसे ही जब खोने लगती है
अंधकार और प्रकाश की सारी सीमाएँ..
तब उसी निःशब्द खालीपन से
आकार लेता है एक रूप
जिसे कहते हैं सब ईश के स्वरूप..!!
33
बेटियाँ हार जाती हैं
अपनी माँओं के कारण,
बहुएँ हार जाती हैं
अपनी सासों के कारण
और अक्सर पलटवार में
मांऐं और सासें भी हार जाती हैं -
बहू - बेटियों के कारण...
रास्ता रोक देती है एक स्त्री दूसरी स्त्री का
और इसी तरह कई बार
सृष्टि के शक्ति - केंद्रों को चलाने वाली
ये महिलाएँ हार जाती हैं, महिलाओं के कारण..!
34
सोचता हूँ, तेरी हर लफ्ज़ में उतर आऊँ,
लिखो जो ग़ज़ल तो हर हर्फ़ में उतर आऊँ।
35
इतने बारूद से कब और कैसे भर गया आदमी,
ज़रा-सी बात से ही जाने कैसे फट गया आदमी।
36
ये कैसा किरदार बना कि
पाट दिए गए थे
रोने - बिलखने के..
टूटने कपसने के ..
पर हम न जाने कब
अपने किरदार से ऐसे जुड़ गए कि
जार - जार रोने लगे..
टूट - टूट बिलखने लगे..
दिखाने आये थे तमाशा
पर न जाने कब
खुद तमाशा बन गए..!
37
उबल - उबल कर भाप बन उड़ जाता है जो,
जाने कब बादल बनकर, टूट के बरसेगा वो.!
38
नोटों की लंबाई से, नप जाता इंसान,
लिए कटोरा खड़ा है, अब देखो ईमान।
39
अपने हाथों से अपना बजट बनाएंगे,
परिवार क्या, समाज क्या, देश क्या,
बंजर जमीन भी हरा - भरा बनाएंगे।
हमें जो जानती नहीं वो सरकार क्या
हाथ से हाथ जोड़ आओ हल चलाएंगे,
अपने हाथों से अपना बजट बनाएंगे..!
40
किसी के ज़मीन पर
कोई कब्ज़ा कर ले,
उसे छुड़ाना आसान है।
किसी देश की अर्थव्यवस्था पर
कोई काबिज़ हो जाये,
उससे छुटकारा संभव है।
मगर किसी के दिल और दिमाग को
कोई गुलाम बना ले तो
फिर उससे आज़ादी नामुमकिन है।
41
जो काम कभी गोली न करती,
वो बोली कर जाती है..
मन के बेरंग भावों पर
वो होली कर जाती है..!!
टूटे टूटे रिश्तों में भी
हमजोली कर जाती है..
जो काम कभी गोली न करती
वो बोली कर जाती है..!!
दुनिया भर के हथियारों में
यही पलीता बन जाती है,
गोली जब तक चले कि पहले
बोली आग लगा जाती है..!!
42
ये देश मेरा अलबेला है,
जहाँ रंग - बिरंगा मेला है,
उस रंग - बिरंगे मेले में
हम सबकी शान तिरंगा है!!
मिट्टी में जो खून सना है,
आजादी के वीरों का...
गूंज रहा है ऐसा कि वह
अनहद नाद अभंगा है..!
यहाँ सबकी आन तिरंगा है!!
43
मिट्टी हूँ ,
मिट्टी की याद रह जाये..
हिस्सा हूँ धरती का,
बस इतना ख्याल रह जाये..
किसी ढेले का कोई नाम रह गया तो क्या..?
बस इतने से वो दरकिनार न रह जाये..!!
मिट्टी हूँ,
मिट्टी की याद रह जाये...
हिस्सा हूँ धरती का,
बस ये ख्याल रह जाये...!!!
44
जब फूल प्रेम का खिलता है,
चहुँदिस सुगंध महकता है,
सौंदर्य खींचता है हर को ,
जो सृजन सीखाता है जग को..
सच ये भी कि इश्क़ इबादत है,
झम - झम बरसाता सावन है,
ये अखियाँ बादल बन के जब,
जब कभी भी खूब बरसती है
बूँदों में शब्द टपकते हैं, जो
हर दिल को लेकर बहते हैं
उस बही भाव की गंगा से
धरती का सिंचन करते हैं...
औ’ सींच- सींच धरती को हम
सागर की प्यास बुझाते हैं..!
कोशिश में उसको पाने की
हम सींच आये दुनिया सारी,
फिर दुनिया ये गुलज़ार हुई,
हरियाली से ये धरा सजी,
संसार सजा, जीवन निखरा,
रस-रूप-गंध से मन महका,
फिर मन के झीने पर्दे पर
प्रियतम की सूरत झलकी..!!
45
मेरा काम
मेरे आते ही लोगों ने
मुझे मेरा काम बता दिया।
उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि
आये हो तो
कम- से - कम अपने नाम से
उस दीवार पर
कुछ ईंटें जोड़ देना।
मैंने पूछा -
क्यों...??
किंतु अनसुना करते हुए उन्होंने कहा -
यहाँ जो भी आते हैं,
उनका एक ही मकसद होता है
कि
कैसे ये दीवार ऊँची हो...
मैंने फिर पूछा -
आखिर क्यों..???
तब उन्होंने हिदायती नज़रों से देखते हुए कहा -
क्योंकि..
एक सिसकती दुनिया
इसके पीछे रह सके,
जिसे कोई न देख पाए...।
46
ऐसा अलख जगाना चाहूँ-
जिसके तले अंधेरा न हो,
लौ में लिपटा धुंआ भी न हो,
वह दीपक मैं बनना चाहूँ..!
47
भीड़ में भेड़ा चले
मुक्त चले वनराज,
पंखों पर करके यकीं
उड़े गगन खगराज..!
48
अपने प्रेम के विरुद्ध
कोई कैसे हो ?
कुछ कहे तो किसे ?
प्रिय , अगर प्रेम है
तो बाकी क्या रहा
कुछ कहने को ?
इंतजार और शिकायत
दूरियों के लक्षण ही तो हैं।
तितली के पर हों या
फूलों के दल
देखो...
कितने लचीले हो गए
प्रेम की एकमयता में..!
ऐसे में किसी के विरुद्ध
कहने को कुछ रहा कहाँ-
शाश्वत मौन आकार ले रहा जहाँ!
49
जिनके सपनों में आग होती हैं
वे खुद को जलाया करते हैं..
दहकते आग का गोला बन
खुद को तपाया करते हैं..
अपनी अगन में तपते -तपते
पीड़ा के परबत पर जमते
बरफ़ गलाया करते हैं..
फिर पिघले बरफ़ से गंगा- जमनी
रसधार बहाया करते हैं..
जिनके सपनों में आग होती है
वे खुद को जलाया करते हैं।
50
प्रियतम,
छः वसंत बीत गए एक दूजे के साथ
समय कल- कल बहता रहा
हम दोनों के साथ
गुदगुदाता है बीता हुआ हर वक्त
जो हमारे बीच हो कर भी कभी उपस्थित ही न हुआ
शायद इसलिए कि
हमारे एकांत प्रेम में
जरा भी खलल न पड़े…
अशेष धन्यवाद मेरे उन बेशकीमती पलों का...
जो कितनी सहजता से मौन साधे रहे
ताकि हमारे बीच निःशब्द प्रेम को
‘मा पंछी’ की तरह ‘सेया’ जाए
…..
पल, महीने, बरस बीते
बीते हैं खामोशी से हर दिन - रात भी
वक्त कभी भी पहरेदार बना नहीं
यही उपलब्धि रही हमारे प्यार की...
और ये भी कि
उस निर्वात में हम एक- दूजे के भीतर
घुलते - मिलते
कितने सांद्र हुए…
कितने गाढ़े हुए…
वक्त इसका भी तो साक्षी ना रहा…
इसे क्या कहूँ -
आजादी या इससे भी बहुत कुछ ज्यादा..
मेरे पास तो शब्द ही नही है प्रिय…
पर तुम इस मिलन में हमारे होने को,
इस जुड़ाव के विस्तार को.. अपना कह
खुद को ‘पूर्णांगिनी’ कहती हो …!!
51
प्रिय,
तुम्हें रुलाने के लिए
गर पूरी धरती है तो
हंसाने के लिए
है पूरा आसमां..
शिकायत उस मिट्टी से क्या
अपने मन के किसान से पूछो
जो न जाने कौन से
भावों के बीज को
जमीन में है बोया..!!
52
नाम, रूप, पद और पंथ,
चारों अहंकार के यार ।
घर में इनको त्याग दे,
तब बरसे रसधार ।
53
लिये लुकाठी हाथ कबीरा,
खड़े रहे इंतजार में ।
बिकने वाले भक्त बिके,
अब सरे- राह बाज़ार में।।
54
क़ब्र पर भी नाम के पत्थर लगाए जाते हैं,
औक़ात तो मौत के बाद भी दिखाए जाते हैं।
55
इतिहास ही ऐसा रहा है ,
इश्क़ के समंदर का, कि
हर डूबने वाले आशिक़ को
लहरें किनारे लगा देती है..!
56
पसीना पोछने की भी जिन्हें मोहलत नहीं मिलती,
उन्हीं के पेट को रोटी और सोने को छत नहीं मिलती।
57
शाम सूरज को ढलना सिखाती है,
शमां परवाने को जलना सिखाती है।
null

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"आज़ाद आईना"अंजनी कुमार आज़ाद

"आज़ाद आईना"अंजनी कुमार आज़ाद

अतिसुन्दर, उत्कृष्ट अभिव्यक्ति👌👌👌👌👌

14 अक्टूबर 2022

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रचनाएँ
सीमांचल
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मेरी इस पहली कृति का नाम 'सीमांचल' है। 'सीमांचल' शब्द का अर्थ सीमा के आसपास के भूखंड या अंचल से जुड़ता है। पहले यह स्पष्ट कर दूं कि इस कृति का नामकरण 'सीमांचल' करते हुए मेरे मन में कहीं भी कोई राजनीतिक नक्शा नहीं रहा है, बल्कि इस कृति के लिए यह नाम मेरे रचनात्मक व्यक्तित्व के भूगोल की अलग-अलग सीमाओं को लगातार विस्तार देने की कोशिशों का परिचायक है।
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प्रस्तावना

14 अक्टूबर 2022
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मै शायद पहली बार चन्दन जी से अभय जी के किराया के घर में मिला था I वह एक मेघावी छात्र कि तरह अभय जी का व्याख्यान सुन रहे थे I बात समाजिक न्याय और धार्मिक उलझाओ की पेचीदा गलियों से गुज़रती हुई जीवन की द

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भूमिका

14 अक्टूबर 2022
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मेरी इस पहली कृति का नाम 'सीमांचल' है। 'सीमांचल' शब्द का अर्थ सीमा के आसपास के भूखंड या अंचल से जुड़ता है। पहले यह स्पष्ट कर दूं कि इस कृति का नामकरण 'सीमांचल' करते हुए मेरे मन में कहीं भी कोई राजनीत

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सीमांचल सेट (१)

14 अक्टूबर 2022
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1किससे दिल की बात कहें जब अपने ही लूट गए,लोकतंत्र में लोक को जिंदा लाश बना कर छोड़ गए।2इतिहास ही ऐसा रहा है ,इश्क़ के समंदर का किहर डूबने वाले आशिक़ कोलहरें किनारे लगा देती है2 aपसीना पोछने की भी जिन्हें

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सीमांचल सेट (२)

14 अक्टूबर 2022
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1इतना खाली हो गया किआकाश हो गया हूँमेरे भीतर ही सब कुछ है..सूरज, चांद, तारे और ग्रहशब्द भी और शब्द के बीज भी2यक़ीनन तुम खुद को सबसे ज्यादा प्यार करते होवरना आईने और सेल्फियों मेंखुद को ऐसे नहीं खींचा

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सीमांचल सेट (३)

14 अक्टूबर 2022
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1खुशी की उड़ानबुलंद हौसलों से संकल्प लेऔर सिद्धि का आगाज़ करफड़फड़ाते सपनों को नया आयाम देऔर खुला आकाश करजब तक हलक में साँस बाकी हैतब तक अनंत आसमां में मेरी उड़ान बाकी हैचलो चलें मेरे मितवा खुशी की उड़ान बा

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सीमांचल सेट (४)

14 अक्टूबर 2022
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1सुनो ना..जहाँ सिर्फ हम तुम होंऐसी रेडीमेड जगह कभी भी नहीं होगी। प्रेम करने वालों को खुद अपनी जगह बनानी होती है।बने बनाए रस्तों और जगहों परप्रेम का आडंबर हनकोटीैप्रेम नहीं होता है।जिस समाज में ही प्र

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