1
किससे दिल की बात कहें जब अपने ही लूट गए,
लोकतंत्र में लोक को जिंदा लाश बना कर छोड़ गए।
2
इतिहास ही ऐसा रहा है ,
इश्क़ के समंदर का कि
हर डूबने वाले आशिक़ को
लहरें किनारे लगा देती है
2 a
पसीना पोछने की भी जिन्हें मोहलत नहीं मिलती,
उन्हीं के पेट को रोटी और सोने को छत नहीं मिलती।
2b
शाम सूरज को ढलना सिखाती है,
शमां परवाने को जलना सिखाती है।
03
हिंदी तू मेरी हिंदी है
भारत माता की बिंदी है
एकांत प्रेम बस तुमसे से है
और ना कोई हमसे है
दुनिया के सारे काम - धाम
है बाद , बाद सब परम धाम
ये देश तो मेरा न्यारा है
है और ना कोई प्यारा है
इसके रज कण में पलता हूं
सिवा ना इसके जीता हूं..!!
हुंकार ये मेरी सुनले तू
अंग्रेज़ है गर तो टर ले तू...!!
शत कोटि मनुज का साथी हूं
इस देश का जिंदा वासी हूं...!!
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04
जाति - धरम और लिंग - भेद के
सारे खाल उतार के फेंको
आंख खोल कर
खुद को खोकर...
सब में खुद को पाकर देखो
मन पर पड़े परत अवसादी
परत - परत उधड़ना सीखो..!!
कुदरत ने क्या कभी किसी को
रख सांचा एक बनाया है..??
मुंडे - मुंडे मति - मति भिन्ने
सबको गले लगाना सीखो..!!
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05
प्यार के ढाई अक्षर में
एक तुम हो
दूसरा मैं हूं
बाकी जो आधा बचा
उन भावों ने ही
पूरा इतिहास रचा...!
क्योंकि सब कुछ देकर भी
कुछ देने को और भी रह जाता है..!!
क्योंकि सब कुछ पाकर भी
कुछ और की चाहत रह जाती है..!
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04
हमारे मां - पिता हमेशा हमें आशीष देकर पालते - पोषते हैं कि हम न केवल अच्छे बच्चे बने
बल्कि उनका और देश का नाम रौशन करें..
किताबें हमेशा हमें अच्छी बातें पढ़ने को देती हैं
शिक्षक हमेशा अच्छी बातें ही पढ़ाते हैं
विद्यालय हमेशा हमारे सपनों को
नया आकाश देना चाहता है…
पर फिर भी ऐसा क्यों है कि दुनिया
आज भी बारूद के ढेर पर बैठी है..!!
हर घर महाभारत का रंगमंच बना हुआ है
हर देश के भीतर का समाज बंटा हुआ है
और हर आदमी एक - दूसरे से कटा - कटा हुआ है..
××××××××××××××××××××
05
अपनी पत्नी से पूछा -
आज ' शनिच्चर ' है न ?
पत्नी बोली -
नहीं , आज 'शनिवार' है।
तनिक औचक हो हँसते हुए पूछा -
क्यों, 'शनिच्चर' शब्द अच्छा नहीं लगा ?
पत्नी बोली -
'शनिवार' ही न शुध्द शब्द है, इसलिए कहा।
मैंने कहा -
मैं देहात का आदमी हूँ,
मेरे पास शुद्ध और पवित्र जैसा कोई शब्द नहीं है।
पत्नी बोली -
पर भाषा के शिक्षक के लिए
शुद्ध शब्द का इस्तेमाल जरूरी है न।
मैंने पूछा - कैसा शुद्ध ?
संयोग से उस समय
वो रसोई में दूध और शहद मिला रही थी
छूटते ही कहा - इस दूध और शहद की तरह शुद्ध…
मैंने कहा - लेरू का जूठन होकर भी
अगर दूध शुद्ध है और
मधुमक्खी का उच्छिष्ट होकर भी
यदि शहद शुद्ध है
तो मेरी देहाती भाषा
फिर गंवई होकर अपने में शुद्ध क्यों नहीं हो सकती है ?
पत्नी चुप हो गई और
मुझे प्रश्नवाचक नजर से एकटक से देखने लगी…
मैंने प्यार से इठलाते हुए कहा -
मिला लेने दो न मुझे
तुम्हारी शुद्ध भाषा में अपनी देहाती भाषा
ताकि मेरी संस्कृति और मेरा गांव बच जाए
तुमसे यूं ही बातें करते - करते…!!
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06
मैं सिमट गया उसकी बाहों में
एक हो गई वो मुझ में खोकर
सीने से अलग हुई जब
कहती है -
मैं स्त्री हूँ..
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07
लड़के ने अपनी माँ से कहा -
"एक जमीन खरीदना चाहता हूं।"
माँ बोली किसके नाम से ?
लड़के ने कहा - " अपनी बीबी के नाम से .."
फिर माँ के भीतर से एक 'मर्दाना' बोली - " क्यों ? "
सामने वाली इस औरत का सवाल
दूसरी औरत के विरोध में था,
जो दूसरी औरत को
उसके जमीन से वंचित करना चाहती थी…!
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08
छल से तोता पकड़ के लाया
डाल के उसको पिंजरे में बोला
राम नाम का रट्टा मार
कृपा करेंगे करुणावतार
जन्म मरण से मुक्ति मिलेगी
भव - भय टारन युक्ति मिलेगी
बंधन से छूटेगी काया
मोक्ष मिलेगी छटेगी माया
बोलो बेटा राम - राम
सधेंगे सारे काम - धाम..
तोता बोला पिंजरा खोलो
अपने को फिर मुझसे तौलो..
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09
बहुजन, बहन, बेटियों आओ
आओ कलम संभालो,
पुस्तक से यारी कर लो तुम
ज्ञान की अलख जगा लो।
समय पलटने लगा देख लो
प्रोफेसर ठोके गोइठा,
ज्ञान की अलख जलाने वाले
देखो कहाँ है बैठा..
ऐसा नहीं कि तुम्हरे तल पर
आए ये अनजाने,
मैला ढोने वालों संग ये
गटर में उतरें तो माने।
तुमको ज्ञानहीन करने का
ये इनका शगल पुराना,
इन चेहरों के पीछे देखो
पण्डितवाद पुराना…
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10
पहर-पहर मेरी कटती रही
वो वक़्त के पहरों में कैद रही !
सच है कि इश्क़ इबादत है,
झम - झम बरसाता सावन है,
ये अखियाँ बादल बन के जब,
जब कभी भी खूब बरसती है
बूँदों में शब्द टपकते हैं, जो
हर दिल को लेकर बहते हैं
उस बही भाव की गंगा से
धरती का सिंचन करते हैं...
औ’ सींच- सींच धरती को हम
सागर की प्यास बुझाते हैं..!
कोशिश में उसको पाने की
हम सींच आये दुनिया सारी,
फिर दुनिया ये गुलज़ार हुई,
हरियाली से ये धरा सजी,
संसार सजा, जीवन निखरा,
रस-रूप-गंध से मन महका,
फिर मन के झीने पर्दे पर
प्रियतम की सूरत झलकी..!!
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11
एक बड़ी दुनिया की खोज में
मैं हमेशा अपनी छोटी - सी दुनिया से
थोड़ी - सी जगह निकालना चाहता हूं…
जाने क्यों मुझे लगता है कि
अपनी छोटी सी दुनिया से
अगर मैं थोड़ी सी जगह बचा लूं
तो शायद ये दुनिया बड़ी हो जाए…
मैं जिस दुनिया में रहता हूँ अभी
वहाँ बेहद छोटी - छोटी बातें होती रहती हैं,
बातें.. इतनी छोटी होती हैं कि
उन बातों से बस दुहराई गई बातें ही निकल पाती हैं
और ये दुहराई गई बातें
मुझे अक्सर किसी पहले वक्ता के जूठन जैसी लगती है।
और ऐसा लगते ही मेरा मन
खुद से ही सवाल कर बैठता है कि
अगर तुम किसी का उच्छिष्ट नहीं खा सकते हो तो फिर
बातों का जूठन क्यों …??
इसी अंतराल में
फिर यहीं से शुरू हो जाती है वह यात्रा
जो पिछले यात्रियों के सफर के बाद की है..
जहां कोई दुहराए न शब्द हैं , न दुहराई बातें..
कदम कदम चल कर
टक - टक देख कर
मैं अपनी छोटी - सी दुनिया की
उन जूठी बातों को नजरअंदाज करता हूँ,
उन्हें दरकिनार करता हूँ,
जिससे ये दुनिया अटी पड़ी है और
जिससे सड़ांध बास आते रहती है।
ऐसा करते ही
जैसे ही बातों के उन अवशिष्टों को हटाता हूँ,
वैसे ही मेरी छोटी - सी दुनिया से
थोड़ी और बड़ी दुनिया निकल आती है और फिर
उस बड़ी दुनिया में मलय पवन महकने लगता है।
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12
ज़रा - सी सर्द हवा बही कि
अकड़ गई मेरी चारपाई
जमीन से एक पाँव उठा के ये
बन गई है तीनपाई।
ज़रा - सी सर्द हवा बही कि
अकड़ गई मेरी चारपाई।
सर्द हवाओं की वजह से
डोर इसकी तन गई है।
बेतरह की तान - खींच में
चौथी पाई उठ गई
जमीन ऐसे छोड़ दी कि
चारपाई अकड़ गई।
श्रम, अर्थ, काम की
तीन पाई जमी रही
मोक्ष की जो चाहते थी
जमीन छोड़ उठ गई,
यों जो चौथी पाई उठ गई कि
चारपाई अकड़ गई।
ज़रा - सी सर्द हवा बही कि
मनवा श्रम - अर्थ से गई
शिथिलता के बर्फ़ में
धरम - जाल में फंसीं
यों ही धरम - भरम जाल में
चौथी पाई उठ गई औ'
जमीन छोड़ के अकड़
आकाशगामी हो गई।
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13
अरे यार,
तुम्हें तो फ़िक्र पड़ी है दुनिया - जहांन की
हिंदुस्तान - पाकिस्तान की
हिन्दू - मुसलमान की
रूस - अमेरिका - चीन की
ट्रेडवार की और धर्म युद्ध की
पर देखो न... मेरा घर भी कहाँ बचा है..!!
मेरा तो घर ही टूट रहा है..!!
दीवारें ही दीवारों से टकराकर
सपनों के घरों को खंडहरों में तब्दील किये जा रहे हैं..
हर घर के भीतर पता नहीं क्या चल रहा है..
बताओ न ऐसा कोई घर
जिसके आँगन में युद्ध नही चल रहा है..?
आँगन की मिट्टी को अहंकार की कुदाली से
उलीच कर फेंक रहे हैं भाई - भाई
बताओ न ऐसा कोई रिश्ता
जिसमें द्वंद्व नहीं चल रहा है…??
पड़ोसियों के आँगनों की तरफ
खुलने वाली खिड़कियों से
झकझोर कर पूछो न ज़रा.. कब से बंद पड़ी हैं ये..?
पर इनकी जंग लगी कब्जों की कड़कड़ाहट पूछेगी कि
हिंदुस्तान पाकिस्तान के फ़र्जी लड़ाकों -
अरे बताओ न ऐसा कोई पड़ोसी
जो अपने बगल वालों से त्रस्त नहीं चल रहा है..??
अपने मन्नतों के लिए अगरबत्तियां जलाने वालों
क्या पता है तुम्हें अगरबत्तियों का धर्म ..??
नहीं न…!!
तो फिर क्या बात करते हो हिन्दू - मुसलमान की..
अरे बताओ न ऐसा कोई धर्म
जिसके भीतर ही षडयंत्र नहीं चल रहा है..??
बताओ न दोस्त ऐसा कोई घर..
जिसके आँगन में ही युद्ध नहीं चल रहा है…???
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14
हे मेरी भारतमाता
मैं किससे लड़ूं -
अपनों से या दुश्मनों से ?
क्यों सौंपा है मुझ पर रक्षा का भार ?
इसलिए ये सोचने को मजबूर हूँ कि
कई दुश्मन हैं तेरे -
कुछ घर के ही, कुछ बाहर के भी।
घर में हैं -
कुछ जेहादी, कुछ हिंदुत्ववादी;
बाहर हैं पड़ोसवाले
वे भी हैं सम्प्रदायवादी,
पर अंदर - बाहर जो भी हैं
सभी के मुखौटे हैं इंसान वाले।
हे माँ ! मुझे तालीम दे पहचान करने की
इंसानियत की और हैवानियत की
और इंसान के चेहरे में छिपे भेड़िये की भी
साथ ही मुझे उस किलेबंदी में भी लड़ने की शक्ति दे
जिसमें कोई दिखने वाला सरहद नहीं है।
देखो न माँ…
कैसे - कैसे पक्ष हैं इस लड़ाई के
एक ईश्वर के कई नाम पर बँटे लोगों की भीड़ में
कोई पक्ष 'राम' का है
कोई पक्ष ' अल्लाह ' का
कोई ' गॉड ' का
कोई ' गुरु ' का
अच्छी बातों को दिन - रात रटने वाले
इन अनुयायियों की लड़ाई कितनी बुरी है..
इसे देखो न माँ..
बोलो न माँ कि एक सैनिक क्या केवल बंदूक तान कर
इन धर्मान्धों से लड़ सकता है…
नहीं ना
इसलिए मुझे कोई ऐसी हुनर सीखा
धर्मान्धों के अंतस को
धर्मनिरपेक्षता की तलवार से छिन्न - भिन्न कर सकूँ..!
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15
मुझे अच्छा नहीं लगता
जब मेरे परिचय में मेरा गाँव छूट जाता है
मुझे खाली - खाली सा लगता है
जब मेरे रास्ते में
भरी हुई नदी और नाव नहीं होता है..!!
मुझे कुछ खोया खोया - सा लगता है
जब खेतों की हरियाली से गुजरते हुए
बरगद का छांव नज़र नहीं आता है..!!
उबर - खाबड़ रास्तों पर चलते हुए
मैं हताश हो जाता हूं
जब थकन मिटाने को
पीपल का ठांव नजर नहीं आता है..!!
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16
मैं एक अभागा बेटा हूँ
बस अपनी स्वार्थ में जीता हूँ
माँ मेरी देखो रूठी है,
धुँए के घर में बैठी है,
जो आग जलाना चाहूँ भी
तो लकड़ी सारी गीली है..
गीले - से मेरे हाथों में
ये चिंगारी भी भींगी है..!
दे दो मुझको कोई आग ज़रा
धुँए में कुछ सुलगाने को
अंधेरे को लहकाने को
औ’ रूठी माँ को मनाने को..!
बात है ये बस इतनी की
धरती माँ के इस कमरे की
कोई सुधि कहाँ अब लेता है.?
परदेसी इसका बेटा है,
जो अपनी स्वार्थ में जीता है..!
जिसे अपनी घर की ठौर नहीं
और गैर जमीं पर रहता है।
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17
कविताई
किसी ने पूछा -
यार कैसे लिखते हो कविता ?
मैंने कहा -
उठाओ कलम,
सामने रखो कागज़ कोरा
और सामने रखो ज़माने को
फिर जीवंत कर दो उस कोरे कागज़ को।
बेगाने ज़माने की ज़द्दोज़हद से
यदि तुम नहीं हो वाकिफ़ तो
ढूंढों किसी हल्कू और मुन्नी को
और याद करो 'पूस की रात' को
फिर जीवंत कर दो उस कोरे कागज़ को,
यदि 'पूस की रात' को याद कर
ठिठुरने लगते हो तो
छोड़ो गरीब की बात को।
लाओ सामने किसी
'खाकी' या 'खादी' वाले को
और कुरेदो अपनी जज़्बात को
फिर जीवंत कर दो उस कोरे कागज़ को
यदि तुम डरते हो या खीझते हो
खाकी या खादी वालों से तो
छोड़ों उस घूसखोर और हरामखोर की बात को।
लाओ सामने बलात्कार से कलंकित
किसी अबला नारी को
और खुद पर झेलो उसकी पीड़ा को
फिर जीवंत कर दो उस कोरे कागज़ को,
यदि नहीं समझ सके उसकी वेदना को तो
छोड़ो 'अबला' की बात को।
लाओ सामने किसी आत्मघाती हमलावर को
और महसूस करो उसके सांप्रदायिक आतंकी इरादे को
फिर जीवंत कर दो उस कोरे कागज़ को
यदि नहीं याद कर सकते उस असह्य घटना की बात को
तो छोड़ो उन रोने वाले परिजनों के प्रलाप - विलाप को।
लाओ सामने ईश्वर - अल्लाह के लिए लड़ने वाले
अंधविश्वासी हिन्दू - मुसलमान को
और समझो उनके अंधेपन की धार्मिक वर्चस्व की लड़ाई को
फिर जीवंत कर दो उस कोरे कागज़ को
यदि नहीं देख सकते रंगीली तलवार के सामने
चित्कारती मानवता को तो
छोड़ो उन दंगे और दंगाइयों की बात को।
लाओ सामने किसी देशभक्त शहीद को
और याद करो देश के खातिर
उसके मर - मिटने की बलिदानी चाहत को,
फिर जीवंत कर दो उस कोरे कागज़ को,
पर यदि नहीं परख सकते उसके दिली जज़्बात को
तो छोड़ो सरहद की बात को।
लाओ सामने किसी सुंदर - सलोनी लड़की को
एवं जगाओ उसके प्रति अपने प्यार को,
मगर मिलन की उत्कंठा और विछोह के दर्द से
यदि तुम रह जाते हो वंचित
तो छोड़ो प्रिया व प्रेम की बात को…
और याद रखो -
यदि इन सब पर नहीं लिख सकते हो तो
रख दो कलम
कोरा ही रहने दो कोरे कागज़ को
और छोड़ो कविता वाली बात को..!!
**************************
18
एक बेहद मार्मिक कविता का बनना
एक बहुत सुंदर कविता तब शुरू होती है
जब रंग - बिरंगे कपड़ों में सजे लोग
अपने गाँव से शहर के लिए निकलते हैं
उम्मीदों के बेलबूटे लगा कर जब कोई लड़की या
कोई लड़का निकल रहा होता है गाँव से शहर की ओर
तब उस समय दिल के किसी कोने में जन्म ले रही होती है एक बेहद सुंदर कविता …!!
जो पीछे छूट जाते हैं घरों में
माँ - पिता या छोटे भाई - बहन
उनकी सजल आँखें और
विदाई में हिलते हाथ
उस कविता के बेशकीमती छंद बन जाया करते हैं…!!
जिस समय हम अपने घरों से निकल रहे होते हैं…
किसी लंबी दूरी की रेलगाड़ी के लिए
उस समय हम भले ही
अपनी यात्रा की शुरुआत कर रहे हों
मगर तभी कई रंग - बिरंगे ख़्वाब
अपनी लंबी यात्राओं से अपने घरों की ओर लौट रहे होते हैं और इसी के साथ
मन के किसी आकुल कोनों में बन रही होती है एक बेहद सुंदर कविता…!!
एक बेहद सुंदर कविता
तब भी आकार ले रही होती है
जब ट्रेन की खिड़की से पीछे छूट रही
गाँव की हरियाली
दूर - दूर तक फैली हुई नजर आ रही होती है
कितने कचोट भरे विछोह से भर जाता है मन
जब हमारी ट्रेन आगे जा रही होती है
और पीछे छूट रहा होता है
अपना हरा - भरा गाँव , घर ,खेत - खलिहान..!!!
*********************
19
मैं कई कहानियों से घिरा रहता हूं
मैं कई कहानियों से घिरा रहता हूं
किसी किरदार - सा जिए जाता हूं
कभी हंसता हूं, कभी रोता हूं
तो कभी बदहवास - सा चले जाता हूं
मैं कई कहानियों से घिरा रहता हूं
किसी किरदार - सा जिए जाता हूं..!
हर रंग के रिश्तों में खुद को पिरोए जाता हूं
किसी के काम आता हूं
कोई मेरे काम आता है
इस लेन - देन में
कुछ लिए जाता हूं
कुछ दिए जाता हूं...
मैं कई कहानियों से घिरा रहता हूं
किसी किरदार - सा जिए जाता हूं..!
किसी की उम्मीद का सितारा हूं
घनी रात में दूर ही सही
पर जुगनुओं - सा टिमटिमाता हूं
जहां को रौशन तो करता नहीं
पर अंधेरी रात को बूंद भर उजाले से सजाता हूं
मैं कई कहानियों से घिरा रहता हूं
किसी किरदार - सा जिए जाता हूं..!
मेरे कथाकार ने कई परतों में ढाला है मुझे
बात पूरी ही नहीं होती है
जात - मजहब और
देश - काल बिना
लिंग और भाषा के भेदभाव बिना
कोई बांटे तो कई फांक में बंटे जाता हूं..
मैं कई कहानियों से घिरा रहता हूं
किसी किरदार - सा जिए जाता हूं..!
सोचता हूं कि कभी कुछ पूछूं उस कलमकार से
दिल के रिश्तों में हो अलगाव क्यों अपने दिलदार से
खुद हम ही क्यों परेशान हों अपनी सरकार से
टूटकर दूर क्यों चला जाए कोई परिवार से
क्या कभी कोई रिश्ते भी बने हैं केवल काग़ज़ात से.??
एक से एक सवालों से रोज गुजर जाता हूं
मैं कई कहानियों से घिरा रहता हूं
किसी किरदार - सा जिए जाता हूं..!
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20
प्रियतम,
छः वसंत बीत गए एक दूजे के साथ
समय कल- कल बहता रहा
हम दोनों के साथ
…
गुदगुदाता है बीता हुआ हर वक्त
जो हमारे बीच हो कर भी कभी उपस्थित ही न हुआ
शायद इसलिए कि
हमारे एकांत प्रेम में
जरा भी खलल न पड़े…
अशेष धन्यवाद मेरे उन बेशकीमती पलों का...
जो कितनी सहजता से मौन साधे रहे
ताकि हमारे बीच निःशब्द प्रेम को
‘मा पंछी’ की तरह ‘सेया’ जाए
…..
पल, महीने, बरस बीते
बीते हैं खामोशी से हर दिन - रात भी
वक्त कभी भी पहरेदार बना नहीं
यही उपलब्धि रही हमारे प्यार की...
और ये भी कि
उस निर्वात में हम एक- दूजे के भीतर
घुलते - मिलते
कितने सांद्र हुए…
कितने गाढ़े हुए…
वक्त इसका भी तो साक्षी ना रहा…
इसे क्या कहूँ -
आजादी या इससे भी बहुत कुछ ज्यादा..
मेरे पास तो शब्द ही नही है प्रिय…
पर तुम इस मिलन में हमारे होने को
‘पूर्णांगिनी’ कहती हो …!!
विवाह के छः वर्ष होने पर ये कविता लिखी थी।********************************
21
अगर सामाजिक बनना चाहते हो
अगर तुम सामाजिक बनना चाहते हो तो
ज्योतिबा फुले की तरह सोचना
अगर तुम राजनीतिक रुचि रखते हो तो
भीम राव अंबेडकर को पढ़कर आगे जाना
अगर तुम दार्शनिक बनाना चाहते हो तो
बुद्ध और कबीर का रास्ता राजमार्ग - सा लगेगा
अगर अराजक समाज में तुम्हें क्रांति लानी है तो
पेरियार बुलाते नज़र आएंगे
अगर तुम्हें अपनी बहन - बेटियों की चिंता है तो
सावित्रीबाई फुले शिक्षा के दीप जलाती दिखेंगी
अगर राजनीतिक बगावत को हवा देना चाहते हो तो
तिलकामांझी और बिरसा मुंडा जैसे तीर चलाने होंगे
सत्याग्रह के लिए जब तुम अपने आपे से निकलोगे
गांधी साथ चलते नजर आएंगे
बलिदानी तेवर लेकर जब जोश से छाती फुल रही हो
तो भगत सिंह सर पर कफ़न बांधते दिख जाएंगे...
कुछेक नहीं यहां हजारों कुर्बानी की गाथा है
रोज शहीदी तिलक लगाता सीमा पर सागरमाथा है,
बहरहाल
अंत में एक बात याद रखना
कविता में जिन लोगों का नाम आया है
उनकी भी कभी फोटोकॉपी नहीं बनना
हो सके तो उनके रास्तों से गुजरते हुए
अपने समय को देखना और समझना...
ये तय मानो कि समय कभी भी तुम्हें
किसी महापुरुष की तरह दोहराएगा नहीं
समय वैसे भी कभी किसी को दोहराता नहीं है
इसीलिए हर रास्ते से तुम्हें चलना होगा
मगर फिर भी तुम्हें तुम जैसा ही बनना होगा..!
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22
मानसून के बदरा
मानसून के बदरा
बरसे हौले - हौले
रिमझिम बूंदाबांदी
संग हवा के डोले
सनसन हवा की लहरों में
बूंदे झूला झूले
इस बारिश में भींगभींग के
सरस जरा तू होले.!
मानसून के बदरा
पानी ले के आते
गरम से प्यासी धरती को
खूब - खूब नहलाते
प्यास बुझा कर धरती की
हरियाली फैलाते..!
मानसून के बदरा
आसमान में छाते
आसमान में छाकर ये
परबत से टकराते
परबत से टकराकर ये
गुपचुप हैं बतियाते
बात - बात में ही देखो
झरना तेज बहाते..!
मानसून के बदरा
देख के मेंढक आते
टरटर करते मेंढक मानो
खर्राटे लगाते
अपनी खर्राटों से ये
झींगुर को बुलाते
झींगुर - मेंढक बोल - बोलकर
बदरे को फुसलाते..!
********************
23
सुख नदी दुख समंदर की तरह
सुख नदी की तरह
किनारों में बंधा होता है,
दुःख समंदर की तरह
इतना विस्तार लिए होता है कि
उसके एक किनारे पर खड़े भी हो जाएं
तो दूसरा किनारा नहीं दीखता..!
सुख की मिठास हमें बहा ले जाती है
समय का पता ही नहीं चलता..
दुःख ठहरे हुए खारे समंदर की तरह होता है,
जिसमें नदी की मिठास
लगातार घुलती - मिलती रहती है..
हमें सुख चाहिए होता है पर
उसके सिकुड़े किनारे आख़िर
दुःख के सागर की ओर बहा ही ले जाते हैं
सुख में बहता हुआ मन
ऐसे बहता है कि संवाद संभव नहीं होता..
दुःख में घुलता हुआ मन
इतना ठहरा - सा लगता है कि
व्यथा की कथा लंबी हो जाती है..!!
चन्दन
17. 05. 2021
*******************************
24
सैनिक
हे मेरी भारतमाता
मैं किससे लड़ूं -
अपनों से या दुश्मनों से ?
क्यों सौंपा है मुझ पर रक्षा का भार ?
इसलिए ये सोचने को मजबूर हूँ कि
कई दुश्मन हैं तेरे -
कुछ घर के ही, कुछ बाहर के भी।
घर में हैं -
कुछ जेहादी, कुछ हिंदुत्ववादी;
बाहर हैं पड़ोसवाले
वे भी हैं सम्प्रदायवादी,
पर अंदर - बाहर जो भी हैं
सभी के मुखौटे हैं इंसान वाले।
हे माँ ! मुझे तालीम दे पहचान करने की
इंसानियत की और हैवानियत की
और इंसान के चेहरे में छिपे भेड़िये की भी
साथ ही मुझे उस किलेबंदी में भी लड़ने की शक्ति दे
जिसमें कोई दिखने वाला सरहद नहीं है।
देखो न माँ…
कैसे - कैसे पक्ष हैं इस लड़ाई के
एक ईश्वर के कई नाम पर बँटे लोगों की भीड़ में
कोई पक्ष 'राम' का है
कोई पक्ष ' अल्लाह ' का
कोई ' गॉड ' का
कोई ' गुरु ' का
अच्छी बातों को दिन - रात रटने वाले
इन अनुयायियों की लड़ाई कितनी बुरी है..
इसे देखो न माँ..
बोलो न माँ कि एक सैनिक क्या केवल बंदूक तान कर
इन धर्मान्धों से लड़ सकता है…
नहीं ना
इसलिए मुझे कोई ऐसी हुनर सीखा
धर्मान्धों के अंतस को
धर्मनिरपेक्षता की तलवार से छिन्न - भिन्न कर सकूँ..!
******************************
25
चायवाला
कभी मलाई मार कर चाय पिया करता था
फिर थोड़ी महंगाई बढ़ी कि
चाय से मलाई गायब हुई
और केवल दूध की चाय बनी
फिर थोड़ी और महँगाई बढ़ी कि
चाय निच्छछ दूध में न बन कर
महुए दूध में बनी
फिर थोड़ी और महँगाई बढ़ी कि
चाय से गोरस विदा हो गई
और नींबू ने जगह ली
और गाय को 'माय' कहने वालों ने
दूध में ही नींबू निचोड़ दी…
फिर थोड़ी और महँगाई बढ़ी कि
अब नींबू वाली चाय बनी,
जिसे अक्सर सब सस्ता जान कर
पूरे ग्लास भरकर पीते थे,
पर ये क्या
उस पर भी महंगाई की मार पड़ी…
नींबू हो गया खट्टा
ये लो - बीस रुपये का जोड़ा हो गया,
चाय का पूरा निम्बू देखो
अब आधा ही देना पड़ गया ।
हाय रे … हाय चाय वाला
दुहाई है दुहाई जी…
पता नहीं था कि एक चाय वाला ही
चाय तक से इस कदर समझौता करा देगा
कि एक समय चाय भी नसीब नहीं हो पाएगी।
************************************
26
लोकतंत्र और उसकी जनता
लोकतंत्र का दम घुटने लगता है,
जब जनता
किसी सत्तालोलुप, विचारहीन और ग़ैरजवाबदेह नेता के लिए
जिंदाबाद - जिंदाबाद के शोर मचाती है।
लोकतंत्र के फेफड़े सूज जाते हैं,
जब जनता
किसी नक्कारे और भ्रष्टाचारी नेता के जीत का दम भरती है।
लोकतंत्र के प्राण निकलने लगते हैं,
जब जनता
किसी नेता को चंद सिक्को के बदले
अपना मत बेच देती है।
लोकतंत्र की लाश ढेर हो जाती है,
जब जनता
किसी नेता के इशारे पर अपने ही कुनबे से
जात, धर्म, क्षेत्र और भाषा के नाम पर
खून - खराबा कर बैठती है।
लोकतंत्र की अर्थी उठ जाती है,
जब जनता
किसी नेता या किसी पार्टी के
झंडे बुलंद करते हुए
चुनावी चंदों के चंद पैसों से गुलछर्रे उड़ाती है।
लोकतंत्र की कब्र खुद जाती है,
जब जनता
किसी नेता के मुखौटे से अपना चेहरा ढक लेती है
और … और
और … जनता होने की अपनी सारी पहचान छुपा लेती है।
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27
मेरे परिचय का हिस्सा
मुझे अच्छा नहीं लगता
जब मेरे परिचय में मेरा गाँव छूट जाता है
मुझे खाली - खाली सा लगता है
जब मेरे रास्ते में
भरी हुई नदी और नाव नहीं होता है..!!
मुझे कुछ खोया खोया - सा लगता है
जब खेतों की हरियाली से गुजरते हुए
बरगद का छांव नज़र नहीं आता है..!!
उबर - खाबड़ रास्तों पर चलते हुए
मैं हताश हो जाता हूं
जब थकन मिटाने को
पीपल का ठांव नजर नहीं आता है..!!
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28
पता नहीं क्यों आदमी
यह मानने को तैयार नहीं कि
वह भी एक जानवर ही है..
ये बात और है कि
आदमी भी कभी - कभी
शेर , सिंह, बाघ, टाइगर , लायन..
कहलाना पसंद करते हैं ,
पर खुद पर आदमियत का रौब
इस कदर ओढ़ लेते हैं कि
ये सुरक्षित वन्य जीव भी
विलुप्ति के कगार पर आ गए..!
हम इंसान ये नहीं देखते कि
एक भेड़िया भी है हमारे भीतर
जो अपनी भूख और वासनाएं मिटाने
कभी भी टूट पड़ता है मासूमों पर..!
बाज़ और गिद्ध भी है ,
जो अपने खूनी पंजों से
खुले आकाश में उड़ने वाले
निरीह पंछियों को ‘ बकोट ‘ लेता है..!
माना कि गिद्ध भी विलुप्त हो रहे,
इसलिए कि “ गिद्ध - दृष्टि “
हमारी नज़रों में शामिल हो गयी..!
हमारे भीतर एक सफ़ेदपोश
काला कौआ भी है ,
जो भूखे लोगों के हाथों से
रोटियाँ लुपचने को
शातिरेनज़र तैयार बैठा है..!
गीदड़ या सियार भी है ,
जो आज भी मीठे ‘अंगूरों’ पर
टकटकी लगाए हुए है…!
एक प्यारा -सा मोर भी है
जो बरसाती घटाओं को देख
अपनी प्रेमिका को रिझाने - मनाने
प्रेमालिंगन में खुद को मिटाने
उन्मत्त होकर नाचता है..!!
पर आखिरकार वह
इतने जानवरों के बीच
अपना अस्तित्व कब तक संभाले..?
सो प्रेमाकुल अपने जानी दुश्मन को
सामने देख
साँप फण उठता है
और मोर के सीने पर कुंडली मारकर
डँसने तैयार हो जाता है..!!
अपने भीतर
इतने मानवेतर जीव होने के बावजूद
पता नहीं क्यों आदमी
यह मानने को तैयार नहीं कि
वह भी एक जानवर ही है,
जो अपनी असहजता के साथ
अब और विकसित हो गया है..!!
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29
हम तो जले
चिराग़ की तरह
अंधेरे पर।
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30
अपने बच्चों के आसपास
ढेर सारे खिलौने बिखेर दीजिए
और उन खिलौनों में से
यदि आपका बच्चा
खिलौने वाला बंदूक उठा ले
तो समझना अहिंसक गांधी पर
गोलियाँ चलती रहेंगी।
आपका बच्चा जब तक मौका देख कर
उठाता रहेगा आपका मोबाइल
और खेलता रहेगा
आभासी दुनिया के
टैंक, बम, मिसाइल और
अत्याधुनिक मशीनगनों से
तब तक रूस - यूक्रेन जैसे युद्धों के बीच
उकसावों की भेंट
चढ़ती रहेगी शांति।
आपके घर में जब आपका बच्चा
देखेगा कि पापा - मम्मी का
पड़ोस के अंकल - आंटी से
अनबन है और
घर में
शीतयुद्ध का वातावरण है
तब तक आप समझिए कि
आने वाले दिनों में
देश की विदेशनीति में
पड़ोसियों से रिश्ते सुधरने की जगह
और बिगड़ने वाले हैं।
आपका बच्चा जन्म से जवानी तक
जब देखेगा कि
उसके दादा या पापा ही
घर के सारे निर्णय लेते हैं
तब ये तय मानिए कि
आपने औरतों के विरोध में
एक मर्द को सींचा - संवारा है
और घर में ही लोकतंत्र की हत्या कर
रोपे हैं राजतंत्र के बीज.
अपने बड़े होते हुए बच्चे को
जब आप मिट्टी छू लेने पर डांटते हैं,
बिना जूते के जमीन पर चलने से रोकते हैं,
जंगल में बारे में डरावनी बातें करते हैं,
बहती नदी का पानी पी लेने पर
डांटते हुए बताते हैं कि
प्रकृति की सारी चीजें
'अनहाईजेनिक ' है…
तब आप यह तय मानिए कि
आने वाले दिनों में
जल , जंगल और जमीन को
सीमेंट और कंक्रीट से ढकने वाले हैं।
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31
ना मैं भूत, ना मैं भविष्यत,
काल आरूढ़ हम ही हैं शाश्वत..!
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32
हम किरदार निभाने आये
जीवन- मरण के द्वार बीच
काहे मन तरसाये रे
ये मौसम आये जाए रे..
क्षणिक खुशी के लप्पो - चप्पो
काहे मन हरषाये रे
ये मौसम आये जाए रे..
पतझड़ में रोये क्यों पगले
फिर आये वसंत बाहर रे,
काहे मन पछताए रे
ये मौसम तो आये जाए रे..!
अपनी खुशी है भीतर अपने
काहे मनवा भुलाय रे
ये मौसम तो आये जाए रे ..!
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33
गांव का वो जीवन -
जब कभी बाहर से आते थे
बिना हाथ - पांव - मुंह धोए
न तो चौके में जाते थे
और न ही कुछ भी खाते थे,
एस्नो - पाउडर पूछे कौन
मिट्टी मल के नहाते थे,
नहा - धुआ के सरसों तेल
देह - गात लगाते थे,
धूप सुनहरी उगती थी जब
खुद को खूब सेंकाते थे,
दिन - दुपहरी गैया लेकर
दीरा - दहार चराते थे,
कोई अटकन - मटकन खेले
कोई बुढ़िया कबडी खेले
कोई खेले छूर - छूर पर
हम तो पुल्ली उड़ाते थे,
गोधूलि की बेला होते
सांझ पड़े घर आते थे,
चिड़िया - चुनमुन संग लौटते
बारहमासा गाते थे...!
रात सुलाती हमको जब तो
तारे गिन सो जाते थे..!
अब जब से हैं शहर में आए
गांव - देहाती कहलाते हैं,
शहरी चाल - चलन में हम तो
बेढंग ही रह जाते हैं,
जल, वायु , आकाश, जमीं से
मन को नहीं जुड़ाते हैं,
कहां दिशाओं के घर में थे
अब फ्लैटों में सिमटे रह जाते हैं!
धूल - धुंआ में रोगग्रस्त हो
जीवन रोज छीजाते हैं..!
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34
तुम जनता हो
जनतंत्र तुमसे है
पर ये कैसा दौर है
कि जैसे जन का तंत्र
झूठ के झंझावातों से
है टूट चुका..
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35
समय की पैदाइश
अच्छा था कि समय
चलना नहीं जानता था
मैंने क्यों इसकी उंगली पकड़ कर
इसे चलना सिखाया
क्या इसलिए कि यह
आज मुझ से भी तेज चले
क्या इसलिए कि
मैं स्वयं ही
इसके पीछे दौड़ने के लिए मजबूर हो जाऊं
और क्या इसलिए कि
मेरे किए कराए पर इसके नामोनिशान हो जाए
और मैं बेवजूद तख़्ती रह जाऊँ
अच्छा होता कि इसे पैदा ही नहीं होने देता
बहुत उपाय थे मेरे पास इसे नहीं पैदा करने हेतु
क्योंकि अब तो लगता है
ये समय ही
मेरे मौत को साथ लेकर जल्दी करीब आएगा।
36
दोस्ताना
खुली किताब है मेरी
जिसे कोई भी पढ़ लिया करता है
हवा में उड़ते हुए पन्ने
जो पुरवाई में पश्चिम की ओर
और
पछुआ में पूरब की ओर
खुद - ब - खुद पलट पढ़ते हैं।
कोई जरूरतमंद
जो नजदीक आकर
अक्सर पढ़ लिया करते हैं मुझे
फिर ऐसे पलट जाते हैं
जैसे मेरे पलटते हुए पन्ने
न जाने क्यों साथ छोड़ देते हैं
साथ रहते हुए वे .?
37
हँस दो ना
दुनिया के इस रंगमंच पर
नवरस के किरदार हैं हम
हँसना है, कभी रोना है
कभी वीर भाव से जीना है
कभी क्रोध का झोंका आता
कभी तरल मन बह जाता
कभी चकित आंखों से सुंदर
दुनिया में ये मन रम जाता
भाव - भक्ति से भरकर मनवा
ईश प्रेम में खो जाता
मां की वत्सल लोरी सुनकर
मन परी लोक में उड़ जाता…
जब मन की इतनी परतें हैं
तब जाने क्यों ऐसा लगता है
हँसना तो सबको आता है पर
सब गंभीर बने क्यों दीखते हैं
बस एक या दो ही भाव में जीकर
सायास उदास बने रहते हैं
किसी भी मिलने वाले से ये
सीरियस बन कर मिलते हैं
जरा - सी हल्की बात को देखो
बोझ बना कर रखते हैं
जब भी बात हो हंसने वाली
ओठ को इंच से नपते हैं
खुल कर हंसने वाले देखो
ऐसों को झक्की कहते हैं
ऐसे गंभीर मुखौटे वाले
अक्सर ये सोचा करते हैं -
सहज हँसी हँसने वालों को
लोग ही हल्के में लेते हैं…
इससे अच्छा बस इतना है
हँसना सबसे बस उतना है
कि कोई घेरा टूटे ना
मुझ तक कोई पहुंचे ना
मेरी दुनिया बस मुझ तक है,
जिसमें कोई भी घूसे ना
समझे दुनिया मुझको बड़का
अल - बल मिलने वाला मुझसे
बस नजर - नजर जाए टरका..
अब सोचो ऐसे हों लोग जहां
खुशी भला ठहरेगी कहाँ
होंगे खिलने वाले भी फूल अगर
भँवरों का मरघट होगा वहां..
ऐसे जीने वालों से
विनती बस मेरी है इतनी है
हमको तो हँसके जीने दो
जीवन का रस तो पीने दो
अपने उतरे चेहरे से तुम
इसमें बाधा पहुंचाओ ना
अपने लिए तो ना ही सही
पर मेरे लिए तो हँस दो ना.!!
38
एक हिन्दू से बातचीत में
मैं एक कट्टर हिन्दू राष्ट्रवादी हूँ।
मेरी देशभक्ति तब और उफ़ान मारती है
जब मुझे अपने धर्मग्रंथों की
'लाखों - लाख' साल पुरानी कहानियाँ
ये बताती हैं कि ये देश इतना पुराना है कि
सतयुग में हमारे आर्य जन इतने सभ्य थे कि
केवल सच ही बोलते थे
जिनकी सारी सच्ची बातें वेद - वाणियों में पिरोई गई है।
वेदों की ऋचाएँ,
जिसमें दर्ज है शक्ति संचय की प्रार्थनाएं
ताकि
लड़ी जा सके जमीन को हड़पने की लड़ाई
पर यहां केवल दो राजाओं के बीच की लड़ाई नहीं होती है
संघर्ष होता है दो संस्कृतियों के बीच
इसमें जीतने वाला राजा ये अफवाह उड़ाता है कि
वह ईश्वर है
और उसका विपक्षी अधर्मी असुर दैत्य दानव है।
इस देवासुर संग्राम में
एक जीतने वाला राजा इंद्र 'पुरंदर' कहलाता है,
जो दानव और दैत्यों के किले और घरों को तोड़ कर
उनकी जमीनें हड़पकर
देव संस्कृति को विस्तार देता है।
आगे
देव संस्कृति के उत्थान के क्रम में
जमीनें हड़पने की लड़ाई को
देव और दानवों का चित्रित कर इसे धर्मयुद्ध कहा गया,
जिसकी अटूट परंपरा - सी बन गई
जिसकी अगली कड़ी में
त्रेता नामक युग आता है
इसी युग में
भगवान राम पुष्पक विमान में चला करते थे,
जो विभीषण और वानरों के सहयोग से
राक्षस राज रावण को परास्त कर उन्होंने पाई थी।
हमारा धर्म तो रावण को जीतने के बाद ही
उर्ध्वगामी हो चुका, तदन्तर
द्वापर में कृष्ण ने पांडव और कौरवों के बीच
धर्म युद्ध की विध्वंसक लड़ाई के बाद
धर्म की सत्ता को स्थापित की थी,
हाँ, ये और बात है कि इस लड़ाई के धर्मराज ने भी
'अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा' कह कर
चालाकी से झूठ बोला था।
अब कलयुग है
जब मैं देख रहा हूँ अपनी दुनिया को
और मैं उपरोक्त पूरे आख्यानों को जानने के बाद
वर्तमान की तमाम जड़ों को वहीं से फैलाव पाते देखता हूँ।
आज की दुनिया चाहे कितनी भी चीजें खोज ले
पर मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि
इसी देश में उन सारी चीजों का आविष्कार हुआ है,
जो दुनिया में आज खोजी जा रही हैं।
इसी देश में किले और घरों को तोड़ने के काम में आने वाले
बुलडोज़रों का भी इतिहास सुरक्षित है वरना
पुरन्दर को कौन जान पाता,
जिसके सम्मान में सबसे अधिक ढाई सौ वैदिक ऋचाएं हैं।
मेरे देवता सोमपायी स्वर्गाधिपति इंद्र ने भी
अपने प्रतिद्वंद्वियों को
अनास कहा, असुर कहा, राक्षस, दानव और दैत्य कहा
और कहा कि ये भारत की मूलजातियाँ
पापी, असभ्य, दुराचारी और नशेड़ी हैं,
जो देवों का धर्म नहीं मानती इसलिए अधार्मिक हैं,
जिनका पापा योनि से मोक्ष
उनकी हत्या के बाद ही होनी है…
अब ये बात
हमने अपने उसी धार्मिक कथाओं से सीखी है कि
जो तुम्हारे धर्म को न माने वो अधर्मी
और जो अधर्मी है
उसके लिए एक धर्मयुद्ध फिर जरूरी है…
उस धर्मयुद्ध में उन तमाम अधर्मियों के
किले और घर ढहाये जाएंगे,
जिसके लिए बुलडोज़र काम में आएंगे
और उस बुलडोज़र को चलाने वाले
धर्मध्वजवाहक राजा 'पुरन्दर' कहलाएंगे
जिनके सम्मान में हम पुनः नई ऋचाएं गाएँगे।
39
बनावटी
दिल के अधूरेपन के साथ
न जाने कैसे जी लेते हैं लोग,
जो ना चाहते हुए भी
बंदिशों में रहते हैं ऊबकर,
परिधि के बाहर यदि झाँक लें तो
उस खुलेपन से
न जाने क्यों नज़र मोड़ हैं लोग,
खुल के अच्छा क्या
बुरा भी नहीं बन पाते हैं लोग,
अपने को ईमानदार दिखाने के लिए
बेईमानी भी करते हैं बड़ी ईमानदारी से लोग
पर
उस परिधि के बीच में ही
न जाने कैसे जी लेते हैं लोग !
40
प्यार कितना भी गहरा क्यों ना हो,
आँखों पर आँसुओं का पहरा रहता है।
समंदर कितना भी गहरा क्यों ना हो,
किनारा प्यास से रेत बना रहता है..!
सीमांचल सेट (२)