इस जहान में सब कुछ मिट्टी है,
यह कहीं रोड़ी है कहीं गिट्टी है....
यही जीवन के रीड की हड्डी है,
यहां सब कुछ मिट्टी हैं...
यही अंकुर है यही शक्ति है,
यह मिट्टी ही जीवन की उत्पत्ति है...
यही है सृजन करता,
यही रूह का अंत भी...
यह शून्य भी है और अंत भी,
यह आदि है और अनंत भी...
यही जड़ है और जड़ की चेतना भी,
यही है पत्ती फूल और तना भी...
यही अकाल है बर्फ है और पाला भी,
झेलती है बारिश और ओला भी....
कहीं सुखी है कहीं गीली भी,
कहीं सीधी है कहीं पथरीली भी...
यही अन्नदात्री यही जन्मदात्री भी,
और यह मिट्टी मुक्तिदात्री भी...
दबी हुई है बोझ तले,
जिसमें हर प्राणी पले....
इसमें दफन होते हैं शरीर,
और इसी से पैदा होने वाली लकड़ी से जले...
इसने तो सिर्फ बनाया इंसान था,
हमने मानचित्र बना दिया....
इसने बनाए थे वृक्ष,
हमने वनो को काट दिया....
सबका आधार यही है,
सबका आकार यही है...
इसी पर बढ़ते हैं हम,
हर पल जीवन बरकरार रख रही है....
पर जाने किस दौड़ में भागे जा रहे हैं मानव,
किसी के मन में रुकने की इच्छा कहां है....
दूषित करते जा रहे हैं प्रकृति को,
प्रकृति को बचाने का प्रयास कहां है....
अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर,
किसी को फर्क पड़ता ही कहाँ है....
खनिजों के दोहन के बाद,
मानव मिट्टी के बारे में सोचता है कहां है....
आखिर यह बस मिट्टी ही तो है,
पैरों के नीचे रहने वाली धूल...
सिर्फ मिट्टी....
★⋆★⋆★⋆★⋆★⋆★⋆★⋆★⋆★⋆★⋆★⋆★
कॉपीराइट एवं लेखिका - विदुषी मालपानी "वीणा"