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तारे और सितारे

22 अक्टूबर 2015

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featured imageमेरे बचपन में, सम्पूर्ण गगन में छाये रहते थे तारे जिन्हें देखते ताकते गिनते रहते थे हम कभी किसान के हल जैसे कभी कवि की कलम जैसे तो कभी प्रश्नचिह्न बनकर असलियत बताते जिन्दगी की और न जाने कितने चित्र दिखाते थे तारे फिर अकिंचन मुझे आराम देने के लिए भेज देते थे प्यारी सी निंदिया रानी को हम सो जाते अनेकों प्यारी सी कहानी देखकर चाँद खिलखिलाकर हँसता था जैसे तारों के साथ रहकर महफिल में;,,,,, समय व्यतीत होता गया,, कम होते गये तारे आसमान में हर टूटा तारा विरह की नयी गाथा सुनाता चला जाता है सूना-सूना सा लगता है अब वो आसमान जो सम्पूर्ण रहता था तारों से खाली-खाली है वो अनगिनत तारे होते हुये भी चाँद भी उदास हैं उन तारों के बीच शायद कोई हमदर्द नहीं है चाँद का क्योंकि तारे सितारे हो गये हैं अब -:सुशान्त मिश्र
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रचनाएँ
sushantmishra7
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सुशान्त मिश्र
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तारे और सितारे

21 अक्टूबर 2015
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मेरे बचपन में, सम्पूर्ण गगन में छाये रहते थे तारे जिन्हें देखते ताकते गिनते रहते थे हम कभी किसान के हल जैसे कभी कवि की कलम जैसे तो कभी प्रश्नचिह्न बनकर असलियत बताते जिन्दगी की और न जाने कितने चित्र दिखाते थे तारे फिर अकिंचन मुझे आराम देने के लिए भेज देते थे प्यारी सी निंदिया रानी को हम सो

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तारे और सितारे

22 अक्टूबर 2015
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मेरे बचपन में, सम्पूर्ण गगन में छाये रहते थे तारे जिन्हें देखते ताकते गिनते रहते थे हम कभी किसान के हल जैसे कभी कवि की कलम जैसे तो कभी प्रश्नचिह्न बनकर असलियत बताते जिन्दगी की और न जाने कितने चित्र दिखाते थे तारे फिर अकिंचन मुझे आराम देने के लिए भेज देते थे प्यारी सी निंदिया रानी को हम सो

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तुम्हारे बग़ैर ।..

22 अक्टूबर 2015
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सुनो ज़रा,,,, एक छोटी सी दास्ताँ अधूरी है ठहरो तो सुन भी लो न जाने क्या क्या अधूरा है तुम्हारे बग़ैर.... सचमुच मैं मेरा मन मेरी तन्हाई बस इतना सा ही रह गया सिमट कर मेरा जहाँ तुम्हारे बगैर.... सुनो तो और भी बहुत कुछ टूटे पत्तों की तरह रह गया सूखकर बिखरकर तुम्हारे बगैर.... सुन भी लो अध

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ग़ज़ल

25 अक्टूबर 2015
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कर खुदाया खैर अब कुर्वत नही इश्क़ करने से हमें फुर्सत नही सारी दुनिया धुल रही है चादरेलेकिनअपने ज़हन के तोहमद नही आज फिर उजड़ा हुआ घर बस गया जोड़ ले दिल को है ये हिम्मत नही हम बिछड़कर मिल गए फिर से तो क्या जो जलाये थे मिले वो खत नही प्यार से मांगो हमारी जान हाज़िर  डर से मेरा सर झुके आदत नही क्या कमाया

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मुक्तक

25 अक्टूबर 2015
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लिहाफ़ों से ढके चेहरों को मैं पहचानता कैसे  मोहब्बत तो हक़ीक़त है फ़साना मानता कैसे  तेरी शोहरत तेरा ये इश्क़ और ये जिश्म ही तो है, मैं कुछ भी दे नही सकता मैं सबकुछ मांगता कैसे                          सुशांत मिश्र  

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