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ऊचांई

28 जनवरी 2016

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ऊँचे पहाड़ पर, पेड़ नहीं लगते, पौधे नहीं उगते, न घास ही जमती है। जमती है सिर्फ बर्फ, जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और, मौत की तरह ठंडी होती है। खेलती, खिलखिलाती नदी, जिसका रूप धारण कर, अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है। ऐसी ऊँचाई, जिसका परस पानी को पत्थर कर दे, ऐसी ऊँचाई जिसका दरस हीन भाव भर दे, अभिनंदन की अधिकारी है, आरोहियों के लिये आमंत्रण है, उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं, किन्तु कोई गौरैया, वहाँ नीड़ नहीं बना सकती, ना कोई थका-मांदा बटोही, उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है। सच्चाई यह है कि केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती, सबसे अलग-थलग, परिवेश से पृथक, अपनों से कटा-बँटा, शून्य में अकेला खड़ा होना, पहाड़ की महानता नहीं, मजबूरी है। ऊँचाई और गहराई में आकाश-पाताल की दूरी है। जो जितना ऊँचा, उतना एकाकी होता है, हर भार को स्वयं ढोता है, चेहरे पर मुस्कानें चिपका, मन ही मन रोता है। ज़रूरी यह है कि ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो, जिससे मनुष्य, ठूँठ सा खड़ा न रहे, औरों से घुले-मिले, किसी को साथ ले, किसी के संग चले। भीड़ में खो जाना, यादों में डूब जाना, स्वयं को भूल जाना, अस्तित्व को अर्थ,
मंजु महिमा

मंजु महिमा

अंशुल जैन जी , माफ़ी चाहती हूँ पर जहाँ तक मुझे याद है यह कविता श्री अटलबिहारी बाजपेयी जी की है...और अधूरी है..

29 जनवरी 2016

प्रियंका शर्मा

प्रियंका शर्मा

बहुत ही बेहतरीन कविता है ... किन्तु ऐसा लगता है की शायदा अभी पूरी लिखी नहीं है ... आखरी के वाक्य देखें !!!! क्या मेरा मानना सही है

28 जनवरी 2016

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.........है अभी !

12 मार्च 2015
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नवीन करने की उमंग रखो, स्वप्नो को पुरा करते रहो।। भुत के भ्रम को देखो नही, भविष्य को भी समझो अभी।।१।। जो हो गया वह फिर नही, आने वाला कल है अभी।।२।। देश भुत मे जा सकता नही,

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aao phir se diya jalaye

9 दिसम्बर 2015
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Bhari dupahri me andhiyara Suraj parchai se haraAntartam ka neh nichode, bhujhi Hui bati sulgaye Aao phir se diya jalayeHim pdav ko smjhe manjhil Lakshya hua aankho se pjhalVartman k moh JAL m, aane vala kal n bhulayeAao phir se diya jalyeAahuti baki yaghya adhuraApni k vighno n gheraAntim jai ka v

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जय हो जय हो राजस्थान

9 दिसम्बर 2015
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कभी पायल की रूनझुन थीकभी खड्को की खनथन थीकभी जौहर की चीखे थीकभी अबला भी हारी थीकभी मीरा सी त्यागी थीकभी जोधा भी ब्याही थीकभी काटे थे शीशो कोकभी पगड़ी लजाई थीजय हो जय हो राजस्थान .....उमापति महादेव रो ध्यान ....

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ऊचांई

28 जनवरी 2016
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ऊँचे पहाड़ पर, पेड़ नहीं लगते, पौधे नहीं उगते, न घास ही जमती है। जमती है सिर्फ बर्फ,जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,मौत की तरह ठंडी होती है।खेलती, खिलखिलाती नदी,जिसका रूप धारण कर,अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।ऐसी ऊँचाई, जिसका परस पानी को पत्थर कर दे, ऐसी ऊँचाई जिसका दरस हीन भाव भर दे, अभिनंदन की अधिकारी

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कवि आज सुना वह गान रे, जिससे खुल जाएँ अलस पलक।

9 मई 2016
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कवि आज सुना वह गान रे, जिससे खुल जाएँ अलस पलक। नस–नस में जीवन झंकृत हो, हो अंग–अंग में जोश झलक।  ये - बंधन चिरबंधन टूटें – फूटें प्रासाद गगनचुम्बी हम मिलकर हर्ष मना डालें, हूकें उर की मिट जाएँ सभी।  यह भूख – भूख सत्यानाशी बुझ जाय उदर की जीवन में। हम वर्षों से रोते आए अब परिवर्तन हो जीवन में।  क्रंदन

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किसी रात को मेरी नींद चानक उचट जाती है

9 मई 2016
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किसी रात को मेरी नींद चानक उचट जाती है आँख खुल जाती है मैं सोचने लगता हूँ कि जिन वैज्ञानिकों ने अणु अस्त्रों का आविष्कार किया था वे हिरोशिमा-नागासाकी के भीषण नरसंहार के समाचार सुनकर रात को कैसे सोए होंगे? क्या उन्हें एक क्षण के लिए सही ये अनुभूति नहीं हुई कि उनके हाथों जो कुछ हुआ अच्छा नहीं हुआ!  यद

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चौराहे पर लुटता चीर प्यादे से पिट गया वजीर

9 मई 2016
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चौराहे पर लुटता चीरप्यादे से पिट गया वजीरचलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़विरक्ति सजाऊँ?राह कौन सी जाऊँ मैं? सपना जन्मा और मर गयामधु ऋतु में ही बाग झर गयातिनके टूटे हुये बटोरूँ या नवसृष्टिसजाऊँ मैं?राह कौन सी जाऊँ मैं? दो दिन मिले उधार मेंघाटों के व्यापार मेंक्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधिशेष लुटाऊँ मैं?रा

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जन की लगाय बाजी गाय की बचाई जान, धन्य तू विनोबा ! तेरी कीरति अमर है।

9 मई 2016
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जन की लगाय बाजी गाय की बचाई जान,धन्य तू विनोबा ! तेरी कीरति अमर है।दूध बलकारी, जाको पूत हलधारी होय,सिंदरी लजात मल – मूत्र उर्वर है।घास–पात खात दीन वचन उचारे जात,मरि के हू काम देत चाम जो सुघर है।बाबा ने बचाय लीन्ही दिल्ली दहलाय दीन्ही,बिना लाव लस्कर समर कीन्हो सर है।मधु ऋतु में ही बाग झर गयातिनके टूट

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दुनिया का इतिहास पूछता, रोम कहाँ, यूनान कहाँ?

9 मई 2016
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दुनिया का इतिहास पूछता,रोम कहाँ, यूनान कहाँ?घर-घर में शुभ अग्नि जलाता।वह उन्नत ईरान कहाँ है?दीप बुझे पश्चिमी गगन के,व्याप्त हुआ बर्बर अंधियारा,किन्तु चीर कर तम की छाती,चमका हिन्दुस्तान हमारा।शत-शत आघातों को सहकर,जीवित हिन्दुस्तान हमारा।जग के मस्तक पर रोली सा,शोभित हिन्दुस्तान हमारा। अटल बिहारी वाजपे

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पन्द्रह अगस्त का दिन कहता - आज़ादी अभी अधूरी है। सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥

9 मई 2016
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पन्द्रह अगस्त का दिन कहता - आज़ादी अभी अधूरी है।सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥  जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई। वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥  कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं। उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥  हिन्दू के नाते उन

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पहली अनुभूति: गीत नहीं गाता हूँ

9 मई 2016
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पहली अनुभूति:गीत नहीं गाता हूँ बेनक़ाब चेहरे हैं,दाग़ बड़े गहरे हैं टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँगीत नहीं गाता हूँलगी कुछ ऐसी नज़रबिखरा शीशे सा शहर अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँगीत नहीं गाता हूँ पीठ मे छुरी सा चांदराहू गया रेखा फांदमुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँगीत नहीं गाता हू

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भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।

9 मई 2016
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भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।इसका कंक

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मैं अखिल विश्व का गुरू महान,

9 मई 2016
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मैं अखिल विश्व का गुरू महान,देता विद्या का अमर दान,मैंने दिखलाया मुक्ति मार्गमैंने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान।मेरे वेदों का ज्ञान अमर,मेरे वेदों की ज्योति प्रखरमानव के मन का अंधकारक्या कभी सामने सका ठहर?मेरा स्वर नभ में घहर-घहर,सागर के जल में छहर-छहरइस कोने से उस कोने तककर सकता जगती सौरभ भय।<!--EndFragmen

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मैंने जन्म नहीं मांगा था, किन्तु मरण की मांग करुँगा।

9 मई 2016
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 मैंने जन्म नहीं मांगा था, किन्तु मरण की मांग करुँगा।  जाने कितनी बार जिया हूँ, जाने कितनी बार मरा हूँ। जन्म मरण के फेरे से मैं, इतना पहले नहीं डरा हूँ।  अन्तहीन अंधियार ज्योति की, कब तक और तलाश करूँगा। मैंने जन्म नहीं माँगा था, किन्तु मरण की मांग करूँगा।  बचपन, यौवन और बुढ़ापा, कुछ दशकों में ख़त्म

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विजय का पर्व!

9 मई 2016
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विजय का पर्व! जीवन संग्राम की काली घड़ियों में क्षणिक पराजय के छोटे-छोट क्षण अतीत के गौरव की स्वर्णिम गाथाओं के पुण्य स्मरण मात्र से प्रकाशित होकर विजयोन्मुख भविष्य का पथ प्रशस्त करते हैं।  अमावस के अभेद्य अंधकार का— अन्तकरण पूर्णिमा का स्मरण कर थर्रा उठता है।  सरिता की मँझधार में अपराजित पौरुष की स

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