मूर्खता का ढोंग
मूर्ख को प्यार से, मान-मनव्वल से, कभी डाँट-फटकार से समझाने का प्रयास मनुष्य कर सकता है। मूर्ख मनुष्य की तो विवशता होती है क्योंकि उसमें बुद्धि की कमी होती है, उसका आईक्यू अपनी आयु के लोगों के बराबर नहीं होता। इसलिए वह सबके सदा ही बीच हँसी का पात्र तथा चर्चा का विषय बनता रहता है। लोग उसे मोहरा बनाकर अपना मनोरञ्जन करते हैं। उसका अपमान हो रहा है या उसकी तारीफ हो रही है, वह यह अन्तर समझने की योग्यता नहीं रखता। इसलिए वह मूर्ख व्यक्ति दोनों स्थितियों में एकसमान ही रहता है।
इसके विपरीत जो मनुष्य मूर्ख न होते हुए भी मूर्खता का ढोंग करे उसे सुधारा नहीं जा सकता। विचारणीय है कि कोई मनुष्य मूर्खता का आडम्बर आखिर करता क्यों है? शायद इसके पीछे उसका स्वार्थ हावी रहता है। वह सोचता है कि मूर्खता का प्रदर्शन करके अपना हित साध लेगा। हो सकता है वह अपने उद्देश्य में आंशिक सफलता प्राप्त भी कर ले। परन्तु इसके बाद उसके नाम पर मूर्ख व्यक्ति होने की जो मोहर लग जाती है, उसका क्या? हो सकता है उसके परिणाम की परवाह करने के स्थान पर उसे अपना हित साधना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता हो।
भर्तृहरि ने अपने ग्रन्थ 'नीतिशतकम्' में ऐसे मूर्ख के विषय में बहुत ही सुन्दर शब्दों में कहा है-
शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण सूर्यातपो।
नागेन्द्रो निशिताङ्कुशेन समदौ दण्डेन गोगर्धभौ
व्याधिर्भेषजसंग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषम्।
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्।।
अर्थात् अग्नि को जल से बुझाया जा सकता है, तीव्र धूप से छाते के द्वारा बचा जा सकता है, जंगली हाथी को भी एक लम्बे डण्डे (जिसमें एक हुक लगा रहता है) की सहायता से नियन्त्रित किया जा सकता है, गायों और गधों से झुण्डों को छड़ी से नियन्त्रित किया जा सकता है। यदि कोई असाध्य बीमारी हो तो उसे औषधियों के प्रयोग से ठीक किया जा सकता है। यहाँ तक की जहर दिए गए व्यक्ति को मन्त्रों और औषधियों की मदद से ठीक किया जा सकता है। इस संसार में हर व्याधि या बीमारी का इलाज किया जा सकता है परन्तु किसी भी शास्त्र या विज्ञान में मूर्खता का कोई उपाय अथवा इलाज नहीं मिलता।
इस श्लोक में कवि ने बहुत से उदाहरण हमारे सम्मुख रखे हैं। उनके अनुसार अग्नि तथा धूप से रक्षा की जा सकती है। हाथियों, गायों व गधों को वश में किया जा सकता है। व्याधि से भी छुटकारा मिल सकता है। परन्तु मूर्खता को ठीक करने का कोई उपाय न शास्त्रों में मिलता है और न विज्ञान ही सूझता है। अर्थात हर समस्या से मुक्ति का कोई-न-कोई उपाय करके मनुष्य सुखी व प्रसन्न हो सकता है। मूर्खता ऐसा दुस्साध्य रोग है जो मनुष्य का पिण्ड ही नहीं छोड़ता।
मूर्ख व्यक्ति के लिए 'मिट्टी का माधो', 'गोबर गणेश', 'दिमाग में भूसा भरा', 'काठ का उल्लू', ‘कूड़ मगज’ आदि मुहावरों का प्रयोग किया जाता है। इनके अतिरिक्त गधा, उल्लू आदि सम्बोधनों से उसे पुकारते हैं। ऐसा मूर्ख अन्य लोगों के लिए खिलौने की तरह बन जाता है। जिसे हर कोई अपने मनोरञ्जन के लिए उपयोग करता है। उसे गधे से अधिक नहीं मानते, अपना बोझ उस पर डालते रहते हैं। इस बात की परवाह लोग नहीं करते कि उसे भी इन सब हरकतों से कष्ट होता होगा अथवा वह भी रोता होगा। मूर्खतापूर्ण व्यवहार करने वाला व्यक्ति ही मूर्ख कहलाता है।
अपवाद सर्वत्र उपलब्ध रहते हैं। यहाँ इस संदर्भ में मुझे संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य कवि कालिदास का स्मरण हो रहा है। अपने यौवनकाल तक वे इतने मूर्ख थे कि उन्हें यह भी पता नहीं होता था कि पेड़ की जिस टहनी पर बैठकर वे उसे काट रहे हैं, उसके कटते ही गिर जाएँगे। कुछ विद्वानों ने परम विदुषी के साथ उनका विवाह करवा दिया था। उनकी मूर्खता को जानकर उसने पहली ही रात्रि को उन्हें घर से निकल दिया था। इससे अपमानित होकर वे घर से निकलकर काशी चले गए। वहाँ ईश्वर की आराधना और विद्वानों की संगति में रहकर वे उच्चकोटि के विद्वान बन सके।
कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि जब तक मनुष्य स्वयं न चाहे उसके लिए कोई कुछ नहीं कर सकता। दूसरों के हाथ की कठपुतली बनने से उसे कोई नहीं रोक सकता। अपने पैर पर वह स्वयं ही कुल्हाड़ी मारने का कार्य करता है। जब तक वह स्वयं होकर समझदार बनने का संकल्प नहीं लेता, उसे मूर्खों की श्रेणी में ही गिना जाता हैं।
चन्द्र प्रभा सूद