त्रिगुणात्मक सृष्टि
यह सृष्टि त्रिगुणात्मक है, जो तीन गुणों अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण पर आधरित है। इस सम्पूर्ण सृष्टि में कोई भी तत्व ऐसा नहीं है, जो इन त्रिगुण तत्वों से परे हो। ये तीनों गुण इस संसार के समस्त प्राणियों में विद्यमान रहते हैं। मनुष्य शरीरधारी जीवात्मा को छोड़कर किसी और प्रकार के शरीरधारी जीवात्मा को तीन गुणों वाली प्रकृति को जानने और समझने का अधिकार ही नहीं है।
भगवान श्रीकृष्णजी अर्जुन को त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुण धर्म के विषय में समझाते हुए गीता में कहते हैं-
सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत। ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत।।
अर्थात् हे अर्जुन! सत्त्व गुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में लगाता है तथा ज्ञान को छोड़कर तमोगुण के कारण मनुष्य प्रमादी बन जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण के कथन का यह तात्पर्य है कि प्रकृति के तीनों गुण सत्त्व, रज और तम स्थूल प्रकृति के हर अंश में विद्यमान हैं। परन्तु जब प्रकृति के सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म और स्थूल रूपों को एकसाथ जानने-समझने की बात आती है, तो केवल मनुष्य शरीरधारी जीवात्मा ही इस रहस्य को समझ पाता है। अर्थात् प्रकृति का सम्पूर्ण ज्ञान हम मनुष्य शरीर के द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं।
मनुष्य जन्म से ही इन तीनों गुणों से प्रभावित होता है। कोई भी मनुष्य इन तीनों गुणों से बच नहीं पाया है। प्राणी में जिस गुण की प्रधानता होती है, उसका चरित्र भी उसी प्रकार का हो जाता है। मनुष्य को सदैव अपने तमोगुण यानी तामसी प्रवृत्ति का त्याग करना चाहिए। उसे रजोगुण यानी राजसी प्रवृत्ति को अपने अनुकूल करना चाहिए। सतोगुण या सात्त्विक प्रवृत्ति को ही जीवन भर अपनाना चाहिए।
यद्यपि तीनों गुण सृष्टि में विद्यमान हैं, परन्तु सतोगुण के दर्शन बड़ी कठिनता से होते हैं। सत्त्वगुण को प्राप्त करके ही जीवात्मा को सुख की प्राप्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि यदि कोई व्यक्ति सुख भोग रहा है, तो यह समझ लेना चाहिये कि वह प्रकृति के सत्त्वगुण के प्रभुत्व में है। इस सत्त्वगुण के विकसित होने पर ही ज्ञान उत्पन्न होता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य मोक्षगामी बन जाता है।
राजसी प्रवृत्ति की कामना में मनुष्य सुख, ऐश्वर्य एवं अधिकाधिक धन प्राप्त करने में लगा रहता है। यदि कोई व्यक्ति दुःख भोग रहा है, तो यह कह सकते हैं कि वह प्रकृति के रजगुण के अधीन हो चुका है। रजोगुणी व्यक्ति निष्क्रिय नहीं बैठ सकता। रजोगुण का प्रधान लक्षण सक्रियता ही है। रजगुण विकसित होने पर ऐश्वर्य प्राप्ति की कामना बलवती होती है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य विभिन्न प्रकार के भौतिक सुख-सुविधा के साधनों का संग्रह करता है।
तामसी प्रवृत्ति आलस्य, प्रमाद , क्रोध एवं नकारात्मकता को प्रकट करती है। आज यह अधिक देखने को मिल रही है। जब मनुष्य युवावस्था में प्रवेश करता है तो संगति-कुसंगति में पड़कर नकारात्मक होकर कर्म-कुकर्म करने लगता है। तब उसमें तमोगुण प्रभावी होते हैं। जीवन भर दुर्दान्त बनकर वह तमोगुण से घिरकर ही जीवन यापन करता है। यदि कोई व्यक्ति हमेशा आलस्य का अनुभव करता है; और आज का काम कल पर टालता रहता है तो ऐसी स्थिति में हमें यह समझ लेना चाहिये कि वह प्रकृति के तमगुण के प्रभाव में अपना जीवन-यापन कर रहा है। तमोगुण प्रधान व्यक्ति की बुद्धि उसे सुख में दुःख का और दुःख में सुख का अनुभव कराती है।
सतोगुण सुख का, रजोगुण दुःख का और तमोगुण मोह का प्रतिनिधित्व करता है। सतोगुण की न्यूनता चिन्ता का विषय कही जा सकती है। मनुष्य के जीवनकाल में तीनों गुण विद्यमान रहते हैं। जिसकी जो इच्छा हो उसे अपना सकता है। लोग अपनी-अपनी बौद्धिक क्षमता से ही सुख प्राप्ति का प्रयास करते हैं। यद्यपि ये तीनों गुण एक ही शरीर में विद्यमान रहते हैं। फिर भी एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं।
मनुष्य इन तीनों गुणों को जानता हो या न जानता हो इस बात से त्रिगुणों के आपसी व्यवहार में कोई अन्तर नहीं पड़ता। हम यह भी कह सकते हैं कि प्रकृति के तीनों गुणों का सम्पूर्ण ज्ञान रखने वाला व्यक्ति प्रकृति के तमोगुण और रजोगुण को नियन्त्रित करके सभी दुःखों से स्वयं को मुक्त कर सकता है और केवल सुख भोगते हुए ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। तभी मनुष्य अपने इस जीवन को सार्थक बना सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद