मनुष्य का आभूषण
सुसंस्कृत वाणी ही मनुष्य का वास्तविक आभूषण होती है। यदि बोलते समय ध्यान न रखा जाए अथवा अभद्र भाषा का प्रयोग किया जाए या गाली-गलौच किया जाए, तो उसे वाणी का संस्कार कदापि नहीं कहा जा सकता। वाणी की सरलता और शुद्धता उसके संस्कारों पर निर्भर करती है।
भर्तृहरि जी ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में सुसंस्कृत वाणी का महत्त्व बताते हुए व्याख्या की है -
केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला।
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालंकृता मूर्धजा।।
वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते।
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषमम्।।
अर्थात् न बाजूबन्द आदि आभूषण मनुष्य को सजाते हैं और न ही चन्द्रमा के समान चमकते हुए हार। सुगन्धित जल से स्नान करने, लेप लगाने, फूलों से बाल सजाने से भी कोई सुन्दर नहीं बन जाता। मनुष्य केवल संस्कारित वाणी से सुशोभित होता है जिसे वह धारण करता है। सभी भौतिक आभूषण नष्ट हो जाते हैं परन्तु वाणी रूपी आभूषण कभी नष्ट नहीं होता।
यह श्लोक हमें चेतावनी दे रहा है कि सम्पूर्ण भौतिक ऐश्वर्य, धन-सम्पत्ति नश्वर हैं। इन सबका कुछ भी पता नहीं रहता कि ये कब तक साथ निभा सकेंगे। मनुष्य की वाणी चाहे कौए की तरह कर्कश हो अथवा कोयल की भाँति माधुर, हमेशा दूसरों को याद रहती है। उसी के अनुसार लोग उस व्यक्ति विशेष के बारे में अपनी राय बना लेते हैं और फिर उसी के अनुरूप व्यवहार करते हैं।
इसी भाव को दर्शाती हुई एक कथा को यहाँ साझा करना चाहती हूँ जो मूलरूप से संस्कृत भाषा में लिखी गई है। एक राजा अपने मन्त्री और सेवकों के साथ जंगल में विहार के लिए गया। जब वे थक गए तब आराम करने लगे। राजा को बहुत जोर की प्यास लगी। सामने एक झोंपड़ी थी जिसमें एक अन्धा फकीर रहता था।
राजा ने अपने सेवक को पानी लाने के लिए भेजा। उसने वहाँ जाकर उस फकीर से कहा, ‘‘अरे अन्धे! एक लोटा जल देना।”
उसने कहा, ‘‘भाग जा, मैं तुझ जैसे मूर्ख सेवक को जल नहीं देता।”
सेवक यह सुनकर निराश होकर वापिस लौट गया। फिर राजा का मन्त्री वहाँ जल लेने पहुँचा और कहा, ‘‘अन्धे, भाई एक लोटा जल शीघ्रता से दे दो राजा को प्यास लगी है।”
अन्धे ने उसे भी पानी देने से इन्कार करते हुए कहा, "मैं तुझ मन्त्री को भी जल नहीं दूँगा।"
यह सुनकर राजा उन दोनों के साथ स्वयं उस झोपड़ी में पहुँचा और अभिवादन करते हुए बोला, ‘‘बाबा जी! बहुत प्यास लगी है, गला सूख रहा है, थोड़ा-सा जल दे सकते हैं।”
अन्धे फकीर ने कहा, "महाराज! बैठिये अभी जल पिलाता हूँ।"
राजा ने पूछा, ‘‘महात्मन्! आपने चक्षुहीन होकर भी कैसे जान लिया कि पहला सेवक है, दूसरा मन्त्री है और मैं तीसरा राजा हूँ।”
अन्धे फकीर ने हँसते हुए कहा, ‘‘महाराज! व्यक्ति की पहचान उसकी वाणी से होती है, उसके लिए आँखों से देखने की आवश्यकता नहीं होती। आप तीनों के बोलने के तरीके से ही मैंने पहचान लिया कि पहला सेवक है, दूसरा मन्त्री और तीसरे आप स्वय हैं।”
मनुष्य बातचीत के माध्यम से अपनी पहचान और स्थान बनाता है। जितना वह उन्नति के शिखर पर चढ़ता जाता है उतनी ही उसकी वाणी संयमित होनी चाहिए। अन्यथा वह दूसरों का स्वार्थ साधने के माध्यम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं रह जाता। अपने आसपास लोगों से बातचीत करके, उनके बोलने के लहजे से बहुत कुछ उनके विषय में जान सकते हैं।
बच्चों को अनुशासन की शिक्षा देने के लिए वाणी की कठोरता आवश्यक होती है, परन्तु आम व्यवहार में नहीं। मनुष्य की वाणी की मधुरता ही, उसे सबके सिरों पर विराजमान कर देती है और उसकी कठोरता दूसरों की नजरों से गिरा देती है। इसीलिए वाणी को मनुष्य का वास्तविक आभूषण माना गया है।
चन्द्र प्रभा सूद