कार्य की सफलता
अपना कोई भी नया कार्य आरम्भ करते समय मनुष्य को बहुत सावधान रहना चाहिए। पहले उसे भली भाँति विचार करके एक योजना बना लेनी चाहिए। उसके उपरान्त उसका क्रियान्वयन करना चाहिए। जब तक कार्य को व्यवहार में न लाया जाए, तब तक उसे अपने रहस्य को किसी के भी समक्ष प्रकट नहीं करना चाहिए। गुपचुप तरीके से मनुष्य को अपने कार्य का सम्पादन करना चाहिए।
कार्य की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि मनुष्य ने उसके लिए कितना परिश्रम किया है? उसकी बनाई गई योजना फलदायी होगी क्या? उसने पहले ही किसी को बताया तो नहीं? परिस्थितियाँ अनुकूल हैं या प्रतिकूल है, समय का बहाव कैसा है? उसे किस-किस से सहायता मिल सकती है? कौन उसके रास्ते में अड़चन बन सकता है? आदि कुछ प्रश्न मन में आना स्वाभाविक है।
आचार्य चाणक्य ने 'चाणक्यनीति:' में इस विषय में समझाने का प्रयास निम्न श्लोक में किया है-
क: काल: कानि मित्राणि
को देश: को व्ययागमौ।
कस्याहं का च मे शक्ति:
इति चिन्त्यं मुहुर्मुहु:॥
अर्थात् मनुष्य का समय कैसा चल रहा है? कौन उसका मित्र और कौन उसका शत्रु है? उसका देश या निवास-स्थान कैसा है? उसकी आय कितनी है और व्यय कितना है? उसकी शक्ति कितनी है? इन सबके विषय में बार-बार विचार करना चाहिए।
आचार्य चाणक्य ने कुछ बातों का ध्यान रखने के लिए कहा है। समझदार व्यक्ति को हर काम में सफलता मिलती है। वह विवाद और धन हानि से बच जाता है। मनुष्य जानता है कि उसका वर्तमान समय कैसा चल रहा है? अभी उसके सुख के दिन चल रहे हैं या दुख के दिन। इसी के आधार पर जब वह कार्य करता है, तो उसे अपने कार्य को सिद्ध करने में सफलता मिल जाती है।
सफलता की कामना करने वाले मनुष्य को मित्र और शत्रु की परख करनी आनी चाहिए। उसे यह ज्ञात होना चाहिए कि उसका सच्चा मित्र कौन है और मित्र के वेश में शत्रु कौन हैं? मित्र के वेश में छिपे हुए शत्रु को पहचानना बहुत आवश्यक होता है। यदि मित्र की खाल में छिपे हुए शत्रु को मनुष्य नहीं पहचान पाएगा, तो उसे कदम-कदम पर कार्यों में असफलता का सामना करना पड़ेगा।
जिस देश में मनुष्य जा रहा है अथवा जहाँ वह रह रहा है, वह देश कैसा है? जहाँ वह काम आरम्भ करने जा रहा है, उस स्थान के हालात की पूरी जानकारी उसे ले लेनी चाहिए। कार्यस्थल पर काम करने वाले लोगों के बारे में भी उसे पता लगा लेना चाहिए। इन बातों को ध्यान रखते हुए कार्य करने पर मनुष्य के असफल होने की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं।
मनुष्य को अपनी आय और व्यय का ठीक से ज्ञान होना चाहिए। किसी भी कार्य-व्यवसाय के लिए धन की बहुत आवश्यकता होती है। व्यक्ति को अपनी आय और व्यय में सामञ्जस्य स्थापित करना चाहिए। आय से अधिक खर्च करने पर कर्ज लेना पड़ता है। कभी कभी तो दिवाला निकल जाता है। आय से कम खर्च करने पर धन का संचय होता है और फिर उसकी पूँजी बढ़ती है।
संस्थान का प्रबन्धन इतना सुचारु होना चाहिए कि अधीनस्थ लोग ठीक वैसा ही काम करें, जिससे संस्थान को लाभ मिल सके। हानि की गुँजाइश ही न रहे। यदि संस्था लाभ कमाएगी, तभी तो वहाँ कार्यरत कर्मचारियों को भी लाभ मिलगा। वे सन्तुष्ट रहेंगे, तो व्यपार के प्रगति करने की सम्भावनाएँ बढ़ती हैं।
सबसे आवश्यक बात यह है कि मनुष्य को अपनी सामर्थ्य का ज्ञान होना चाहिए। उसे ज्ञात होना चाहिए कि वह क्या-क्या कार्य कर सकता है? उसे उन्हीं कार्यों को हाथ में लेना चाहिए, जिसे वह सरलता से सम्पन्न कर सकता है। यदि वह अपनी शक्ति से अधिक कार्य हाथ में ले लेगा, तो उन्हें पूरा नहीं कर सकेगा। इस तरह उसे असफलता का मुँह देखना पड़ सकता है।
समझदार और सफल व्यक्ति वही है, जिसे अपने सभी प्रश्नों का उत्तर हमेशा मालूम रहता है। किसी भी कार्य को शुरू करने से पहले ये सब बातें मनुष्य के चिन्तन और मनन का केन्द्रबिन्दु होनी चाहिए। इन सबका विश्लेषण कर लेने के उपरान्त कार्य करने वाले को ही सफलता पूर्णरूप से सिद्ध होती है। यानी इन्हें ध्यान में रखकर आचरण करने वाला मनुष्य जीवन में कभी असफलता का मुख नहीं देखता।
चन्द्र प्रभा सूद