अधम सदा दुसह्य
अधम या दुर्जन व्यक्ति अपनी नीचता को त्याग नहीं पाता। इसलिए उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। उसे कितना भी समझा लो, पर किसी दुर्जन को सज्जन बनाना सम्भव नहीं होता। अधम व्यक्ति अपनी ओछी हरकतों से बाज नहीं आता। जैसे संस्कार देने पर भी लहसुन को सुगन्धित नहीं बनाया जा सकता। उसकी दुर्गन्ध बनी रहती है। उसी प्रकार दुर्जन की अपकीर्ति प्रसारित होती रहती है।
किसी कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में कहा है-
रविरपि न दहति तादृग्
यादृक् संदहति वालुकानिकर:।
अन्यस्माल्लब्धपदो नीच:
प्रायेण दु:सहो भवति॥
अर्थात् रेती के कण सूर्य की धूप से गर्मी पाकर जितना जलाते हैं, उतना सूर्य भी नहीं जलाता। दूसरे के पास से उच्च पद प्राप्त करने वाला नीच सदैव दुःसह्य होता है।
यह श्लोक बता रहा है कि यदि अधम व्यक्ति को अपनी योग्यता से बढ़कर कुछ मिल जाता है, तो वह फूला नहीं समाता, उससे सहन करना असह्य हो जाता है। इस श्लोक में रेगिस्तान की रेत का उदाहरण दिया है। वह सूर्य की किरणों की गर्मी झुलसने लगती है, तपाने लगती है। इतना तो स्वयं सूर्य भी नहीं तपाता। ऐसा अधम व्यक्ति अकड़कर टेढ़ा-टेढ़ा चलने लगता है।
यहाँ मुझे रहीम जी का निम्न दोहा याद आ रहा है-
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय॥
अर्थात् रहीम कहते हैं कि ओछे लोग जब प्रगति करते हैं तो बहुत ही इतराते हैं।
वैसे ही जैसे शतरंज के खेल में जब प्यादा फरजी बन जाता है तो वह टेढ़ी चाल चलने लगता है।
मुझे तो शतरंज के खेल की अधिक जानकारी नहीं है। पर कहते हैं कि इस खेल में प्यादा जीवित होकर फरजी बन जाता है। पहले जब वह प्यादा होता है, तब चाल में सीधा चलता है। पर जब वही प्यादा फरजी बन जाता है, तब टेढ़ी चल चलने लगता है। यानी जब प्रोमोशन या तरक्की हो जाती है, तब तो उसकी चाल ही बदल जाती है। वह इतराने लग जाता है। शायद दुनिया में ऐसा ही होता है।
ऐसे मनुष्य के लक्षण निम्न श्लोक में बताए गए हैं-
मुखं पद्मदलाकारं वाणी चन्दनशीतला।
हृदयं क्रोधसंयुक़्तं त्रिविधं धूर्तलक्षणम्॥
अर्थात् धूर्त मनुष्य का तरीका यह है कि उसका मुख पद्मदल के समान होता है, उसकी वाणी चन्दन जैसी होती है और उसका हृदय क्रोध से भरा होता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि ऊपर से अच्छा दिखने वाला होता है और सबके साथ मीठा बोलने वाला होता है, पर उसके दिल में सबके प्रति ही नफरत होती है। इसलिए वह किसी का भी अहित करने से नहीं चूकता। किसी का हित करने की मानो इनकी प्रकृति ही नहीं होती। वह तो केवल अवसर की तलाश में रहता है। ऐसे मौके इन अधम लोगों को मिल ही जाते हैं। इनके लिए मित्र और शत्रु में कोई भी अन्तर नहीं होता।
ये अधम, दुर्जन या नीच व्यक्ति इस समाज में इधर-उधर घूमते हुए दिखाई दे जाते हैं। इनसे कभी न कभी मनुष्य का वास्ता पड़ ही जाता है। इनकी फितरत डंक मारने की होती है। इन लोगों के साथ चाहे कितना भी अच्छा कर लो, ये अवसर आने पर डस लेते हैं यानी अपना हित साधने के लिए दूसरे को नीचा दिखाने से नहीं चूकते। अपने अतिरिक्त इन लोगों को कुछ भी नहीं सूझता।
जहाँ तक हो सके इन दुष्टों की पहचान करने का प्रयास करना चाहिए। इनका यथासम्भव शीघ्र परित्याग कर देना चाहिए। जैसे कोयले की दलाली में मुँह काला हो जाता है, उसी प्रकार इनके साथ दोस्ती करने का अर्थ है, अपना अहित करना। निस्सन्देह अपने हितार्थ इन लोगों से किनारा करने में ही मनुष्य का भला हो सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद