जीवन की अवस्थाएँ
तीन अवस्थाएँ ऐसी हैं जो जन्म और मृत्यु के मध्य अनवरत चलती रहती हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। यानी जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति यह क्रम इस प्रकार चलता रहता है। जागता हुआ व्यक्ति जब शय्या पर सोता है, तो पहले स्वप्न अवस्था में चला जाता है। फिर उसकी नींद गहरी हो जाती है, तब वह सुषुप्ति अवस्था में होता है। व्यक्ति एक ही समय में उक्त तीनों अवस्था में भी रह सकता है।
कुछ लोग जागते हुए भी स्वप्न देख लेते हैं अर्थात् वे जागते हुए कल्पना और विचार में खोए रहते हैं। यह स्वप्न की अवस्था कहलाती है। भविष्य की कोई योजना बनाते समय मनुष्य वर्तमान में न रहकर कल्पना लोक में चला जाता है। कल्पना लोक यथार्थ नहीं होता, एक प्रकार का स्वप्न-लोक होता है। अतीत की किसी याद में खो जाने पर मनुष्य स्मृति लोक में चला जाता है। यह भी एक प्रकार का स्वप्न लोक ही होता है।
उल्टे क्रम में प्रातः होने पर मनुष्य पुन: जाग्रत अवस्था में आ जाता है। इस अवस्था में मनुष्य अपनी दैनिक क्रियाएँ करता है। वर्तमान में रहना ही चेतना की जाग्रत अवस्था है। उसमें मनुष्य को अपना, अपने परिवार और अपने बन्धु-बान्धवों का ज्ञान रहता है। उसे अपने कार्य का भी ध्यान रहता है। इसी अवस्था में रहता हुआ मनुष्य चैतन्य रहता है और सांसारिक कार्यकलापों से जुड़ा रहता है।
प्रायः लोग स्वप्न में जीते हैं, अपने वर्तमान जीवन में सिर्फ दस प्रतिशत ही जी पाते हैं। वर्तमान में रहना ही चेतना की जाग्रत अवस्था है। कोई व्यक्ति जागता हुआ भी सोया-सोया-सा दिखाई देता है। पर उसकी आँखें खुली रहती है। किन्तु कुछ लोग बेहोशी में जीते हैं। यह बहुत विचित्र बात है कि उन लोगों का यह जीवन कब गुजर जाता है, इसका उन्हें भान ही नहीं होता।
स्वप्न अवस्था जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था होती हैं। निद्रा में गहरे डूब जाना सुषुप्ति अवस्था कहलाती है। स्वप्न में व्यक्ति थोड़ा जागता है और थोड़ा सोया रहता है। इसमें अस्पष्ट अनुभवों और भावों का घालमेल रहता है, इसलिए व्यक्ति कब कैसे स्वप्न देख ले कोई भरोसा नहीं। व्यक्ति झाड़ी के हिलने को भूत मानने लगता है। इसी प्रकार रस्सी में साँप की कल्पना करने लगता है।
मनुष्य के स्वप्न उसके दिनभर के जीवन, विचार, भाव और सुख-दुख आदि पर आधारित होते हैं। वे किसी भी तरह के संसार की रचना कर सकते हैं। गहरी नींद को सुषुप्ति अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में पाँच ज्ञानेंद्रियों चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा और पाँच कर्मेंद्रियों वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और गुदा सहित मनुष्य की चेतना विश्राम करती है। सुषुप्ति अवस्था चेतना की निष्क्रिय अवस्था है।
यह अवस्था मनुष्य के सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। इस अवस्था में किसी प्रकार का कष्ट या पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न उसकी सम्भावना होती है। इस समय गहरी नींद होने के कारण मानो मनुष्य का सम्पर्क संसार से कट जाता है। उसे किसी का भी भान नहीं रहता। मृत्यु काल में अधिकतर लोग इससे और अधिक गहन अवस्था में चले जाते हैं।
छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार आत्मा जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्थाओं के अतिरिक्त चौथी तुरीय अवस्था का अनुभव करती है, इसे तुरीय चेतना कहते हैं। यह अवस्था व्यक्ति के अथक प्रयासों से प्राप्त होती है। चेतना की इस अवस्था का कोई गुण और रूप नहीं है। यह अवस्था निर्गुण है, निराकार है। इसमें न जागृति है, न स्वप्न है और न सुषुप्ति है। यह अवस्था निर्विचार और अतीत व भविष्य की कल्पना से परे पूर्ण है।
यह उस साफ और शान्त जल की तरह है जिसका तल दिखाई देता है। यह पारदर्शी काँच या सिनेमा के सफेद पर्दे की तरह है जिसके ऊपर कुछ भी प्रोजेक्ट नहीं हो रहा है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति चेतनाएँ तुरीय के पर्दे पर जैसी घटित होती हैं, वह उन्हें हू-ब-हू मनुष्य के अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है, जहाँ से आध्यात्मिक यात्रा का आरम्भ होता है। तुरीय अवस्था के इस किनारे संसार की दुःख-परेशानियाँ हैं, तो उस किनारे मोक्ष का आनन्द होता है।
मनीषी कहते हैं कि जीव जब गर्भ में प्रवेश करता है, तब वह गहरी सुषुप्ति अवस्था में होती है। जन्म से पूर्व भी वह इसी अवस्था में ही रहती है। गर्भ से बाहर आकर उसकी चेतना पर से सुषुप्ति दूर होने लगती है तब वह स्वप्निक अवस्था में प्रवेश कर जाता है। लगभग सात वर्ष की आयु तक इसी अवस्था रहने के बाद वह होश सम्भालने लगता है।
मनीषी कहते हैं कि जन्म एक जाग्रत अवस्था है और जीवन एक स्वप्न है तथा मृत्यु एक गहरी सुषुप्ति अवस्था में चले जाना है। अपने जीवन में जिन लोगों ने नियमित रूप से 'ध्यान' किया है उन्हें मृत्यु मार नहीं सकती। ध्यान की एक विशेष दशा में मनुष्य तुरीय अवस्था में पहुँच जाता है। समझने के लिए इस तुरीय अवस्था को पूर्ण जागरण की अवस्था कह सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद