जीवन शतरंज का खेल
जीवन शतरंज के खेल की तरह है। निश्चित मानिए कि यह खेल आप ईश्वर के साथ ही खेलते रहते हैं। मनुष्य की हर सही या गलत चाल के बाद ही वह मालिक अपनी अगली चाल चलता है। अब देखना यह होता है कि मनुष्य की चली गई चाल के बदले में चली उस प्रभु की चाल से उसे कितनी हानि होती है अथवा कितना लाभ होता है।
वास्तविक जीवन में कई अपने भाई-बन्धु मनुष्य के साथ शतरंज का खेल खेलते हुए दिखाई दे जाते हैं। जीवनकाल में मनुष्य को जाने-अनजाने उनकी सीधी या टेड़ी चालों का जवाब देना पड़ जाता है।
इसलिए जो कुछ भी मन में आए उसे साफ-साफ शब्दों को दूसरे के समक्ष कह देना चाहिए। इससे अपने मन का सुकून बना रहता है। सच बोलने से हमेशा फैसले होते हैं और झूठ बोलने से फासले अधिक बढ़ जाते हैं। अतः दूसरों की प्रसन्नता के लिए अपने मन का चैन खोना उचित नहीं होता।
इस प्रकार दुनिया के व्यवहारों को देखकर मनुष्य बहुत कुछ सीख जाता है। जीवन का वास्तविक पाठ यही होता है जिसे ज़िन्दगी हर कदम पर उसे पढ़ाती है। जीवन की आखरी साँस तक इन अनुभवों का संग्रह करना चाहिए। इन्हीं अनुभवों का खजाना अन्ततः उसकी पूँजी बनता है। इसी की बदौलत वह समाज में एक सफल और समझदार व्यक्ति कहलाता है। मनुष्य को इसलिए चाहे मंजिल मिले या अनुभव दोनों को ही जुटाने में रत्तीभर भी संकोच नहीं करना चाहिए। ये दोनों जीवन के लिए बहुत उपयोगी चीजें हैं।
आज स्वार्थ इतना हावी होता जा रहा है कि मनुष्य को अपने और अपने परिवार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दिखाई देता। जन्म-जन्मान्तरों से टूटे हुए रिश्ते भी उस समय जुड़ जाते हैं जब किसी का स्वार्थ आड़े आने लगता है। यदि किसी का कोई काम अटक जाए तो मनुष्य गधे को भी बाप बनाने में देर नहीं करता।
इन्सान कुछ लोगों को अपनी जिन्दगी मानता हैं, पर कुछ लोगों के कारण उसकी जिन्दगी होती है। इनके अतिरिक्त यदि कुछ और विशेष लोग होते हैं तभी तो उसकी जिन्दगी होती है। ये सब अपने जब किसी भी कारण से परायों जैसे बनने लगते हैं तब अपने और पराए का भेद ही समाप्त हो जाता है। मनुष्य दुनिया में स्वयं को निपट अकेला मानने लगता है।
परन्तु जब ये सारी जिन्दगियाँ अपने-अपने अहं और स्वार्थ के कारण परस्पर गडमड होने लगती हैं तो सभी रिश्ते तार-तार हो जाते हैं। आपसी विश्वास दरकने लगते हैं। मनमुटाव बढ़ जाने के कारण उनमें शत्रुता तक पनपने लगती है। जो किसी भी तरह स्वस्थ रिश्तों को जन्म नहीं दे सकती। तब मनुष्य को यह दुनिया ही शतरंज की चालों की तरह टेढ़ी-टेढ़ी चलती हुई दिखाई देने लगती है।
जीवन में मिलने वाले कटु अनुभवों के कारण उसे अपने अन्तस में सब टूटता और बिखरता हुआ-सा लगता है। सारे सम्बन्धों के साथ ही दुनिया से भी उसे वितृष्णा होने लगती है। तब उसकी किसी से मिलने की, बात करने की इच्छा ही नहीं रह जाती।
इस प्रकार मनुष्य दुनिया के साथ जीवन की शतरंज खेलते हुए बहुत कुछ सीख जाता है। दूसरों द्वारा चली जाने वाली सारी सीधी व टेढ़ी चालों को धीरे-धीरे समझने लग जाता है। समय बीतते-बीतते वह चाहे-अनचाहे उन चालों का माकूल जवाब देना भी सीख जाता है।
ईश्वर के साथ चाल चलने में किसी तरह का कोई आनन्द नहीं आता। अपने को मनुष्य कितना भी तीस मारखाँ क्यों न समझ ले, हार तो उसी के खाते में ही आती है। उस मालिक से जीत जाना या पार पा सकना इस क्षुद्र मनुष्य नमक जीव के बस की बात नहीं है। मनुष्य तो गलतियों का पुतला है। वह कितना ही चौकस क्यों न रह ले, अवश्य ही कहीं-न-कहीं चूक कर देगा। यहाँ उसकी मात सौ प्रतिशत निश्चित होती है। मनुष्य को उसके भाग्य के अनुसार समय पर ही मिलता है। न उससे रत्तीभर कम और न ही उससे अधिक। उसके भाग्य में जो होता है, वह बिना कहे ही पता नहीं कैसे भी करके उसके पास आ जाता है। परन्तु जो उसके भाग्य में नही होता, वह उसके पास आकर भी हाथ से निकल जाता है। वह बस मूक दर्शक की तरह देखता और बिलबिलाता रह जाता है।
बचपन में एक कथा सुनी थी कि किसी राजा की एक बेटी ने उससे कहा था कि पिता उसे नमक की तरह अच्छा लगता है, तो वह नाराज हो गया था। पिता ने उस नाराजगी के कारण उसे दण्ड देने का निश्चय किया। राजा ने उसकी शादी एक राह चलते किसी भिखारी जैसे दिखने वाले किसी इन्सान से करवा दी।
माँ तो आखिर माँ होती है, उसे बेटी के दुर्भाग्य पर बहुत रोना आया। उसने राजा से छिपाकर कुछ धन उसे दे दिया। ताकि उसे शादी के एकदम बाद उसे किसी तरह से परेशान न होना पड़े।
वह राजकुमारी अपने पति के साथ नया जीवन आरम्भ करने के लिए निकल पड़ी। कोई ठिकाना नहीं था, कोई आसरा नहीं था। एक-दो दिन बाद ही माँ द्वारा दिया गया धन भी चोरी हो गया। अब उन दोनों के पास अपना कहने के लिए कुछ भी नहीं बचा था।
राजकुमारी बहुत हिम्मत वाली थी। उसने हार नहीं मानी और अपने पति के साथ मिलकर बहुत श्रम किया। अन्ततः उन्होंने अपना मनचाहा प्राप्त कर लिया। यानि एक सुन्दर-सा महल बना लिया और अपने राजसी ठाठ-बाठ जुटा लिए। फिर एक दिन बिना अपना परिचय दिए, पति को भेजकर अपने पिता को भोजन के लिए आमन्त्रण भिजवा दिया।
पिता बेटी का वह ऐश्वर्य देखकर प्रभावित हुए बिना न रह सका। अब भोजन करने की बारी थी। सामने न आते हुए बेटी ने बहुत सारे व्यञ्जन खाने के लिए भेजे। उनमें एक भी नमकीन खाद्य नहीं था। राजा इतने सारे मीठे व्यञ्जन खाकर उकता गया और पूछ बैठा कि नमकीन कुछ भी नहीं है क्या?
तब वह बेटी बाहर आई और पिता से बोली कि मैं आपकी वही बेटी हूँ, जिसने आपको कहा था कि आप मुझे नमक की तरह अच्छे लगते हो तो आपने मुझे घर से बाहर निकल दिया था। केवल मीठा कोई नहीं खा सकता पर नमकीन कितना भी हो खाया जा सकता है। जब तक मीठे के साथ नमकीन न हो, तो वह नहीं खाया जा सकता।
उसकी बात सुनकर पिता को अपनी उस गलती का अहसास हुआ और पश्चाताप भी। उसने बेटी से अपने उस कुकृत्य के लिए क्षमा माँगी और उसे अपने गले से लगा लिया।
कहने का तात्पर्य यही है कि जब राजकुमारी के भाग्य में नहीं था तो राजा की बेटी होते हुए भी सभी सुखों-ऐश्वर्यों से उसे वंचित होना पड़ा। इससे भी बढ़कर माँ के द्वारा की गई सहायता भी उसके काम न आ सकी। जब भाग्य देने पर आया तो उसने उस राजकुमारी को सब कुछ दे दिया और मालामाल कर दिया।
इसे हम भाग्य का फेर भी कह सकते हैं जिसने राजकुमारी को बैठे- बिठाए भिखारिन जैसी स्थिति में पहुँचा दिया। और फिर समय बीतते राजमहल के सारे ठाठ दे दिए। जैसे भगवान श्रीराम का अगली प्रातः राज्यतिलक होना था पर होनी ने उन्हें दरबदर कर चौदह वर्ष के लिए वनवास दे दिया।
इसी प्रकार रजा हरिश्चन्द्र को पत्नी और पुत्र सहित राज्य से बेदखल होकर चाण्डाल के यहाँ नौकरी करनी पड़ी। उन्हें अपनी पत्नी और पुत्र को दास की तरह बेचना पड़ा। उनके इस कार्य के समर्थन मैं नहीं कर रही।
राजा हरिश्चन्द्र के जीवन की घटना लिखने का उद्देश्य मात्र इतना ही है कि भाग्य कैसे-कैसे खेल इन्सान को खेलने के लिए विवश करता है। मनुष्य बस कठपुतली बना उसकी डोर पर नाचता रहता है। उसके पास इसके अतिरिक्त और कोई चारा भी तो नहीं है। वह चाहकर भी इसका प्रतिवाद नहीं कर सकता।
चन्द्र प्रभा सूद