माँगने की जरूरत नहीं
परमात्मा सारी शक्तियाँ उसी व्यक्ति को देता हैं, जो सच्चे मन से उसकी पूजा-अर्चना करता है। यदि हम मन की गहराई से उसे याद करें तो मनुष्य को कुछ भी माँगने की जरूरत नहीं पड़ती। वह मालिक तो स्वयं ही सब कुछ दे देता है। परमात्मा से कुछ माँगो नहीं और उससे दूरी भी मत बनाओ। बल्कि उसे सदा अपने हृदय में बसाकर याद करो।
दुःख आने पर तो उस मालिक को सभी याद करते हैं परन्तु सुख के समय तो उसे भूल जाते हैं। उसे सदा स्मरण करते रहना चाहिए। कबीरदास बहुत सुन्दर शब्दों में कहते हैं-
दुःख में सिमरन सब करें सुख में करे न कोय।
जो सुख में सिमरन करें तो दुःख कहे को होय।।
कबीरदास जी स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि दुःख में तो ईश्वर को सब याद करते हैं पर सुख के समय कोई स्मरण नहीं करता। यदि सुख के समय परमपिता परमात्मा का पूजन-अर्चन किया जाए तो दुःख अपनी दाल गलती न देखकर मनुष्य के पास फटकते ही नहीं हैं, दूर भाग जाते हैं।
दुःख मनुष्य को उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार अवश्य मिलते अवश्य हैं। ईश्वर का स्मरण करते रहने से मनुष्य में बहुत अधिक आत्मशक्ति आ जाती है। तब उसे दुःख शूलों या काँटों की तरह नहीं प्रतीत होते बल्कि वे फूलों की तरह लगने लगते हैं। इन्सान के मन से सुख और दुःख दोनों का ही भेद मिट जाता है। वह सुख-दुःख के द्वन्द्व को एक समान रूप से मानने लगता है।
एक छोटा बच्चा जब किसी कारण से परेशान होता है, तब अपनी माँ के पास जाता है। वह माँ अपने बच्चे के बिना कुछ कहे ही, केवल उसका चेहरा देखकर समझ जाती है कि उसका बच्चा किसी शारीरिक या मानसिक कष्ट से गुजर रहा है। वह उसे बड़े प्यार से अपने पास बैठाकर उसके सिर पर अपना हाथ रखती है। उसका निस्वार्थ प्रेम उसके दुःख-दर्द को दूर करने में सहायक है।
ईश्वर जो जगज्जननी है, उसकी भी अपने बच्चों से कुछ अपेक्षाएँ होती है। वह भी तो अपनी सन्तान मनुष्य को हर परिस्थिति में अपनी शरण में लेने के बाहें फैलाए प्रतीक्षा करता रहता है। जिस प्रकार सागर नदी को उसके उदगम से वहाँ पहुँचने तक की यात्रा के सारे कष्टों से मुक्त करने के लिए, उसकी प्रतीक्षा अपनी बाहें फैलाकर करता है।
इस भौतिक संसार के माता-पिता के पास हम अपनी सभी समस्याओं को लेकर जाते हैं। इसी तरह उस मालिक की भी इच्छा होती है कि उसके बच्चे सदा अपनी हर समस्या को उससे साझा करें। उसके पास आकर वे अपनी व्यथा-कथा का बखान करें। उससे उस कष्ट से मुक्त करने के लिए गुहार लगाएँ।
गर्मी के ताप से तपा हुआ मनुष्य पंखे से हवा माँगता नहीं है, अपितु बटन दबाता है और उसके सामने बैठ जाता है। उस समय स्वयं ही हवा उसे मिलने लगती है और उस ताप से मुक्ति देती है।
उसी तरह दुनिया के सन्तापों से तपे हुए मनुष्य यदि बिना आडम्बर के उसका ध्यान करते हुए बैठ जाएँ, तो वह निश्चित ही उनके त्रिविध तापों को दूर करता है। त्रिविध ताप - आधिभौतिक (सांसारिक वस्तुओं या जीवों से प्राप्त कष्ट), आधिदैविक (दैवीं आपदाएँ या पूर्व में स्वयं के किए गए कर्मों से प्राप्त कष्ट) और आध्यात्मिक (अज्ञानजनित) होते हैं।
संसार के सभी कार्यव्यवहार करते हुए, उनमें जल में कमल की तरह लिप्त न होते हुए, प्रभु को पाने की स्वाभाविक तड़प ही मनुष्य को उस मालिक के करीब ले जाती है। तब वह उसी का चिन्तन करता है और उसी का भजन करता है। तभी यह स्थिति बनती है कि मनुष्य आगे-आगे चलता है और सिद्धियाँ उसके पीछे-पीछे भागती हैं।
परमात्मा की निष्काम उपासना का यही सार है कि मनुष्य को बिना माँगे ही वह सब कुछ मिल जाता है, जो उसके हर प्रकार के अज्ञान को दूर करके उसे भवसागर से पर उतारता है।
चन्द्र प्रभा सूद