विनम्रता कमजोरी नहीं
मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए विभिन्न प्रकार के आडम्बर करता रहता है। उसमें आन्तरिक विनम्रता सहज होती है और उसके संस्कारजन्य होती है। विनम्रता का यह गुण अहंकार से रहित होता है।
दूसरों का आदर करना, शिष्टाचार का पालन करना, मधुर भाषण करना, लज्जा, संकोच, आज्ञाकारिता आदि गुण विनम्रता के सहचर हैं। ऐसे व्यक्ति को घर-परिवार, बंधु-बांधव और समाज शील-सदाचरण वाला मानता है।
विनम्रता मनुष्य का चारित्रिक गुण है। मनुष्य के हाव-भाव और शारीरिक चेष्टाओं से उसकी विनम्रता सबके समक्ष प्रकट होती है। बड़ों के प्रति सम्मानभाव, छोटों की गलतियों पर उन्हें क्षमा कर देना विनम्र व्यक्ति की पहचान होती है। कभी अपने से कोई भूल हो जाए तो निसंकोच रूप से क्षमा याचना करना मनुष्य का एक बहुत बड़ा गन होता है। यह स्वाभाविक गुण विनम्र व्यक्तियों को एक अलग पहचान देता है।
परन्तु जहाँ दूसरों की चापलूसी करना, उनके आगे बिछ जाना, किसी के पैर अपने मतलब के लिए पकड़ लेना, जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बना लेना आदि स्वार्थ की पराकाष्ठा है। यह किसी मनुष्य की चरित्रगत गिरावट कहलाती है। ऐसे व्यक्ति का समाज में कोई भी आदर नहीं करता।
शिष्य की अपने गुरु के प्रति सादर विनम्रता, सन्तान का अपने माता-पिता के प्रति विनयशील होना, पति-पत्नी का परस्पर विनययुक्त व्यवहार, कार्यालय में नम्रता आदि भौतिक संबंधों का मूल होता है। विनयी की विनम्रता बिना किसी भेदभाव के अपने-पराए सभी के लिए ही होती है।
भाग्य पर विश्वास करने वाले इस गुण को जन्मजात मानते हैं। उनका कथन है कि यह विलक्षण संस्कार अन्य गुणों की भाँति ही मनुष्य को उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार पूँजी के रूप में मिलता है। कई बार अपने आसपास की या बाहरी परिस्थितियाँ भी उस पर अपना प्रभाव डालती हैं पर वह क्षणिक होता है। उनके घर-परिवार और भाग्य से मिले संस्कार उन्हें वापिस सन्मार्ग पर लेकर आ जाते हैं।
वैसे दूसरों की दया पर निर्भर रहने वालों मनुष्यों में जबरदस्ती वाली विनम्रता आती है। किसी की चाकरी करने वाले सेवक से, बॉस अपने अधीनस्थ कर्मचारी से हमेशा विनम्रता की अपेक्षा करते हैं। जहाँ उन्होंने पलटकर जवाब दिया वहीँ उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है। कितना भी प्रिय व्यक्ति का भी उत्तर देना कोई सहन नहीं कर सकता।
सज्जनों की संगति, स्वाध्याय और ईश्वर भजन के कारण आने वाली विनम्रता वास्तविक होती है। वैसे विद्यार्जन या विद्वत्ता की पहली शर्त होती है विनम्रता-
विद्या ददाति विनयम्।
अर्थात विद्या विनय को देती है।
इसी कड़ी में निम्न श्लोक देखते हैं जिसमें कवि ने कहा है कि -
नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति गुणिनो जनाः
शुष्कवृक्षाः च मूर्खाश्च न नमन्ति कदाचन।।
अर्थात फल वाले वृक्ष और गुणीजन झुकते हैं परन्तु मूर्ख और ठूँठ हुए पेड़ कभी नहीं झुकते।
कवि का स्पष्ट कथन है कि मूर्ख अपनी बेवकूफियों के कारण अकड़कर रहते हैं। दूसरी ओर ठूँठ हुए पेड़ भी तनकर खड़े रहते हैं और न झुक पाने के कारण टूट जाते हैं। पेड़ वही झुकते हैं जिन पर फल लगे होते हैं। उसी प्रकार मनुष्य वही विनम्र होते हैं जिनके पास गुण होते हैं।
विनम्रता मनुष्य का आभूषण है। कुछ लोग इस गुण को मनुष्य की कमजोरी मान लेते हैं जो उचित नहीं है। संसार के प्रति सहिष्णुता या विनम्रता को अपनाने वालों को ईश्वर के प्रति भी विनम्र होना चाहिए। वही मनुष्य को सर्वविध सुख-सुविधाएँ देता है। उसका तिरस्कार करने का स्वप्न में भी नहीं सोचना चाहिए।
इस विनम्रता रूपी गुण को सदा यत्नपूर्वक अपनाना चाहिए, इसका त्याग करके हठी अथवा उद्दण्ड नहीं बनना चहिए।
चन्द्र प्रभा सूद