लोकप्रियता की कामना
लोकप्रियता की कामना हर व्यक्ति अपने जीवनकाल में करता है। लोकप्रिय होना व्यक्ति विशेष की महानता का प्रतीक होता है। हर व्यक्ति की यह हार्दिक इच्छा होती है कि समाज में उसका अपना एक स्थान हो। लोग उसे इज्जत भरी नजरों से देखें। जब भी उन्हें कोई समस्या हो, तब अपनी परेशानी की अवस्था में वे उसके पास आकर निदान लिए उसका परामर्श लें।
ऐसा सोचकर ही कितना अच्छा लगने लगता है कि वह समाज की नजरों में आम आदमी न रहकर एक खास व्यक्तित्व बन गया है। तब उसका मन मानो बल्लियों उछलने लगता है, प्रसन्नता के कारण वह हिरण की तरह कुलाँचे भरने लगता है।
इसका यह अर्थ कदापि नहीँ लगाया जा सकता कि तब उसे पाने के लिए मनुष्य सस्ती लोकप्रियता हासिल करने लग जाए अथवा ओछे हथकण्डे अपनाने लगे। जैसे कि आजकल कुछ लोग ऐसा करते हैं। इस तरह करके वे स्वयं अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का काम कर डालते हैं यानि वे स्वयं ही अपने शत्रु बन जाते हैं। अपनी हानि तो वे करते ही हैं, उस पर जग हँसाई जो होती है सो अलग।
लोकप्रिय होने के लिए लोक की भलाई के लिए कुछ विशेष कार्य करने होते हैं, लोकरंजन के नहीं। लोकरंजन करते समय मनुष्य को कई प्रकार के समझौते करने पड़ते हैं। इसलिए ऐसे कार्य जन साधारण के हित के लिए न होकर स्वयं अपना हित साधने वाले अधिक बन जाते हैं। इन कार्यों को किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता।
देश, धर्म और समाज की भलाई के कार्यों को निस्वार्थभाव से करने वाले ही वस्तुतः इस संसार में लोकप्रिय होते हैं। मोमबत्ती की तरह स्वयं को तपाकर गलाने वाले ही वास्तव में परोपकारी कार्य कर सकते हैं। अन्यथा प्रदर्शन कर्त्ताओं की इस दुनिया में कोई कमी नहीं है जिन्हें देखते ही सबके मन में आक्रोश उत्पन्न होने लगता है। ये ढकोसला करने वाले समाज में कभी अपना स्थान नहीं बना पाते चाहे लाखों रुपए क्यों न खर्च कर दें।
उन लोगों की मानसिकता यही होती है कि पैसे से वे हर जिन्स की तरह यश, मान और लोकप्रियता खरीद सकते हैं। परन्तु यह उनकी सरासर भूल होती है। यदि पैसे से सब कुछ खरीद जा सकता, तो यह सब धनवानों की ही जागीर बन जाते। साधारण मनुष्य तो कभी इन्हें कमा ही नहीं सकता था।
लोकप्रिय बनने के लिए मनुष्य का व्यवहार सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। यदि परोपकार करने वाला अहंकारी हो, तो अपने सम्मान को बचाने के लिए लोग उससे कन्नी काटने लगते हैं। उसे व्यक्ति को दूसरों को भी मान देना चाहिए। सबको समदृष्टि से देखते हुए बिना पक्षपात किए, उन सबकी समस्याओं का निदान करना चाहिए।
दूसरों का हित साधने के नशे में आने के स्थान पर बादलों की तरह हमेशा नीचे देखते हुए देने वाला बनना चाहिए। उसके व्यवहार की सरलता, सहजता, मधुरता और उसकी सहृदयता आदि गुण ही सबको प्रभावित करते हैं। अपनी इन अच्छाइयों का त्याग मनुष्य को कभी नहीं करना चाहिए।
बोलते समय भी उसे अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए। ऐसा न हो की उसकी वाणी की अखड़ता किसी को भी आहत कर जाए और उसकी लोकनिन्दा का कारण बन जाए। ऐसे लोकप्रिय होते होते उसे अपमान का पात्र न बनना पड़े, इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए।
दूसरों को सम्मानजनक शब्द आप या तुम से सम्बोधित करना चाहिए। अहं के द्योतक मैं शब्द का उपयोग यथासम्भव नहीं करना चाहिए। इस तरह वाणी और व्यवहार का संयम, दूसरों की चिन्ता और उनके प्रति सहानुभूति का भाव मनुष्य को दूसरों के हृदय में स्थान दिला देता है। फिर उसे लोकप्रिय बनने से संसार की कोई शक्ति नहीं रोक सकती।
चन्द्र प्रभा सूद