पाप-पुण्य की दुविधा
पाप क्या है और पुण्य क्या है? मानव मन में इनके विषय में सदा से ही जिज्ञासा रही है। इस दुविधा का समाधान करते हुए विद्वान ऋषियों ने अपने ग्रन्थों के माध्यम से हमें अपने-अपने तरीके से समझाने का सफल प्रयास किया है।
साररूप में हम इतना कह सकते हैं कि देश, धर्म, समाज और घर-परिवार के लिए बनाए नियमों का पालन करते हुए जो कार्य किए जाते हैं वे पुण्य कहलाते हैं। इनके विपरीत किए जाने वाले सभी कार्य पाप की श्रेणी में आते हैं।
यह स्पष्ट है कि जनहित में किए जाने वाले कार्य मनुष्य को सफलता और ख्याति देते हैं। मानवता विरोधी किए गए सारे कार्य उसे अपयश दिलाते हैं और अन्ततः उसे परेशानी में डाल देते हैं।
वैसे तो क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है, जो उसके विवेक का हरण कर लेता है। मनीषियों का कथन है कि किया गया क्रोध उस समय पुण्य बन जाता है, जब धर्म व मर्यादा के लिए उसका उपयोग किया जाए।
यदि मनुष्य ऋषि के उपदेश के कारण साँप की तरह आवश्यकता पड़ने पर क्रोध का प्रदर्शन नहीं करेगा, तो वह कायर कहलाएगा। उसका समाज में कोई सम्मान नहीं करेगा। सभी उसे अनदेखा करते रहेंगे। यह ठीक है कि क्रोध के वशीभूत वह किसी का अहित न करे, किन्तु समय पड़ने पर उसे अन्याय का प्रतिकार तो अवश्य करना चाहिए।
रामायण काल का एक उदाहरण देखते हैं। पक्षीराज जटायु के जीवन का पुण्य यही था कि भगवती सीता का हरण करके जाते हुए रावण पर उसने क्रोध किया। उसका मुकाबला यथाशक्ति किया। इस पुण्य के फलस्वरूप उसे प्रभु श्रीराम की गोद मिली।
इसके विपरीत सहनशीलता मनुष्य का एक गुण है, परन्तु उस समय यह पाप बन जाता है, जब वह धर्म और मर्यादा को बचाने में असफल होने लगता है। और भी जब वह अपने स्वार्थ को सर्वोपरि मानने लगता है, तब चाहकर भी वह अन्याय का विरोध नहीं कर सकता। इसीलिए अपने इस दोष के कारण वह समाज में सदा अपयश का भागीदार बनता है।
महाभारत के इस उदाहरण के द्वारा इस तथ्य को समझने का प्रयास करते हैं। भीष्म पितामह ने अपने राज्य और परिवार की उन्नति व प्रसन्नता के लिए अनेक कार्य किए। इसी कारण आजन्म ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर उसका पालन भी किया। परन्तु फिर भी उस पाप अथवा अत्याचार न रोकने के दण्ड स्वरूप उन्हें अन्तिम समय में बाणों की शैय्या मिली। उसका कारण यही है कि जब द्रौपदी के साथ कौरव दुर्व्यवहार कर रहे थे, तब उन्हें क्रोध करना चाहिए था, जो मोहवश वे नहीं कर सके।
ये दोनों उदाहरण इसलिए लिए हैं कि रामायण और महाभारत इन दोनों महाग्रन्थों के इन पात्रों से सभी भारतीय भली-भाँति परिचित हैं। यहाँ यह चर्चा करना आवश्यक है कि यदि जटायु रावण का रास्ता रोककर उसे न ललकारता तो शायद भगवती सीता कहाँ गईं इस विषय में जानकारी न मिल पाती। इसी तरह यदि भीष्य पितामह ने अन्याय का विरोध दृढ़तापूर्वक किया होता और कौरवों को वहीं दण्ड दिया होता, तो शायद न महाभारत का युद्ध होता और न ही इतना विनाश होता।
छुटपन में पढ़ा था और बड़ों के मुख से भी सुना था कि यदि किसी जीव की जान बचाने के कभी झूठ का सहारा लेना पड़ जाए, तो वह भी पाप नहीं कहा जाता।
यदि क्रोध न किया जाए तो बच्चों का लालन-पालन नहीं किया जा सकता और न ही उन्हें अनुशासित कर सकते हैं। सहनशीलता आदि सभी गुण मनुष्य को महान बनाने के लिए अत्यावश्यक हैं।
इस तरह कुछ अपवाद स्वरूप कार्य को मनुष्य को यदा कदा न चाहते हुए भी दूसरों की भलाई के लिए करने पड़ जाते हैं। इन्हें फारग्रान्टिड नहीं लेना चाहिए। यत्न यही करना चाहिए कि जाने-अनजाने कोई गलत कार्य अपने हाथों से न हो सके। इसके लिए सावधानी बरतना बहुत ही आवश्यक है।
चन्द्र प्रभा सूद