सज्जन लोग
संसार में दो तरह के लोग होते हैं- सज्जन और दुर्जन। आज हम सज्जनों के विषय में चर्चा करेंगे। सज्जन हर स्थिति में एकसमान रहते हैं। ऐसा नहीं कि सुख-दुख, जय-पराजय, यश-अपयश, लाभ-हानि आदि द्वन्द्व उन पर प्रहार नहीं करते। इन सबके तीक्ष्ण दंशों को झेलते हुए भी वे विचलित नहीं होते। दूसरे शब्दों में कहें तो उन पर किसी द्वन्द्व का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे प्रात:कालीन सूर्य की भाँति जीवन में नवीनता की ओर अग्रसर रहते हैं। सदा दूसरों के दुखों और परेशानियों को दूर करने के लिए सन्नद रहते हैं।
न प्रहॄष्यति सन्माने नापमाने च कुप्यति।
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत:॥
अर्थात् जो सम्मान करने पर हर्षित न होते और अपमान करने पर क्रोध नहीं करते, क्रोधित होने पर कठोर वचन नहीँ बोलते, उनको ही सज्जनों में श्रेष्ठ कहा गया है।
इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि सम्मान मिलने पर वे आकाश में ऊँचे नहीं उड़ते, उनके पैर जमीन पर रहते हैं। अपमान मिलने की स्थिति में धरती पर लोटकर रोते नहीं हैं। किसी पर क्रोध प्रकट नहीं करते हैं। वे कभी किसी को कठोर वचन नहीं बोलते। उनका व्यवहार हर परिस्थिति में एकसमान और संतुलित बना रहता है।
सज्ज्न सदा देश, धर्म और समाज की भलाई के कार्यों में निःस्वार्थ भाव से जुटे रहते हैं। रंग, रूप, जाति आदि के विषय में न सोचते हुए अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर अग्रसर रहते हैं। उनके लिए केवल मात्र उनका घर ही उनका नहीं है अपितु वे प्राणिमात्र को अपना परिवार मानते हैं। उनके सुख में प्रसन्न होते हैं और उनके कष्ट में व्यथित होते हैं। दिन-रात, सर्दी-गर्मी की परवाह किए बिना वे लोकसेवा के कार्य में रत रहते हैं। वे इस बात की ओर ध्यान नहीं देते कि लोग उनकी नींद कर रहे हैं या प्रशंसा।
ऐसे महानुभावों के दर्शन मात्र से तीर्थों का फल मिल जाता है-
सतां हि दर्शनं पुण्यं तीर्थभूताश्च सज्जनाः।
कालेन फलते तीर्थम् सद्यः सज्जनसङ्गतिः॥
अर्थात सज्जनों के दर्शन से पुण्य होता है, सज्जन जीवित तीर्थ हैं, तीर्थ तो समय आने पर ही फल देते हैं, सज्जनों का साथ तो तुरंत फलदायी होता है।
उपर्युक्त श्लोक हमें समझा रहा है कि सज्जनों की संगति में रहने वाले मनुष्य के मन के सारे कालुष्य धीरे-धीरे समाप्त जाते हैं। मनुष्य में सदगुणों की अधिकता हो जाने से उसे किसी तथाकथित साधु, तान्त्रिक, मान्त्रिक आदि के पास जाने की आवश्यकता नहीं रह जाती। इस प्रकार उनकी संगति का फल मनुष्य को शीघ्र प्राप्त हो जाता है।
पातितोऽपि कराघातैरुत्पतत्येव कन्दुकः।
प्रायेण साधुवृत्तानामस्थायिन्यो विपत्तयः ॥
अर्थात हाथ से पटकी हुई गेंद भी भूमि पर गिरने के बाद ऊपर की ओर उठती है, सज्जनों का बुरा समय अधिकतर थोड़े समय के लिए ही होता है।
इस श्लोक के कहने का अर्थ यही है कि आमजनों की ही भाँति सज्जनों पर भी कष्ट आते रहते हैं। यह तो सृष्टि का क्रम है। वे भी इस सार्वभौमिक नियमों से बँधे हुए हैं। उनका बुरा समय प्रायः थोड़े समय के लिए आता है। ऐसे समय में भी वे कर्त्तव्य मार्ग का त्याग नहीं करते। इसलिए शुभकार्यों को करने वालों का कुसमय शीघ्र ही सुसमय हो जाता है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए कवि ने गेंद का उदाहरण दिया है। ऊपर उछलने के पश्चात वह शीघ्र ही नीचे आ जाती है।
हमें यत्नपूर्वक ऐसे हीरों को खोजकर उनकी संगति में रहना चाहिए। अपने जीवन को उनके बताए हुए सन्मार्ग पर चलाने से कभी अहित नहीं हो सकता।
चन्द्र प्रभा सूद