आत्महत्या हल नहीं
आजकल आत्महत्याएँ कुछ अधिक होने लगी हैं। समाचार पत्रों, टी वी, सोशल मीडिया पर इनकी चर्चा प्रायः होती रहती है। सभी वर्गों और आयु के लोग इस घृणित कृत्य को कर रहे हैं। किसान, व्यापारी वर्ग, नौकरी पेशा लोग, विद्यार्थी, नेता,अभिनेता, बच्चे, युवा, वृद्ध आदि सभी आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं। उन सब लोगों को शायद अपनी समस्या या परेशानी से बचने का यही एक सरल-से मार्ग दिखाई दे रहा होता है।
आत्महत्या करना समस्या से भागना कहलाता है। इतने शुभकर्मों के पश्चात प्राप्त इस मानव जीवन का ऐसा दुखद अन्त वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है। पूर्वजन्मों में किए गए प्रारब्ध कर्मों के अनुसार ही जीवन देकर, ईश्वर जीव को इस संसार में भेजता है। आत्महत्या करना मानो ईश्वर के विधान को चुनौती देना कहलाता है। आत्महत्या करने को किसी भी प्रकार से उचित नहीं ठहराया जा सकता।
आखिर मनुष्य आत्महत्या क्योंकर करता है? इस आत्महत्या के पीछे उसका मनोविज्ञान क्या होता है? इन प्रश्नों के उत्तर में यही कह सकते हैं कि मनुष्य किसी भी कारण से जब अपने दुखों और परेशानियों को सहन नहीं कर सकता, तब वह टूटने लगता है। उसे लगता है कि उन दुखों से छूट जाने का एक ही मार्ग है। वह है केवल आत्महत्या कर लेना। इस तरह वह अपने असहनीय भीषण कष्टों से सदा के लिए मुक्त हो जाएगा।
'ईशोपनिषद्' के निम्न मन्त्र में ऋषि ने बताया है कि आत्महत्या करने वाले कहाँ जाते हैं-
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।
तांस्ते प्रेत्यभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।
अर्थात् सर्वत्र व्याप्त ईश्वर को देखने की दृष्टि जिन लोगों के पास नही होती, जो अकर्मण्यता से ग्रस्त है, ऐसे ही लोग हैं जो आत्महत्या करते है। वे मरणोपरान्त ऐसे लोकों को प्राप्त करते हैं, जो अन्धकार से आच्छादित है ।
मनीषी कहते हैं कि मृत्यु के पश्चात मनुष्य को नया जन्म मिलता है। पर मृत्यु से पहले जीवन का आत्महत्या करके विनाश करने वाले लोग ऐसे लोकों में भटकते है, जो अन्धकार से युक्त होते हैं। जब तक प्रारब्ध के अनुसार उनके जीवन की निश्चित अवधि समाप्त नहीं हो जाती, तब तक उन्हें नया जन्म नहीं मिल पाता। वहाँ पर भटकते हुए उन लोगों को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है।
जिन दुखों के कारण मनुष्य जीवन की बाजी हार जाता है, वे कष्ट अगले जन्म में भी उसका पीछा नहीं छोड़ते। वे तो उसे भोगने ही पड़ते हैं, तभी उसे उनसे मुक्ति मिल सकती है। जो भी कर्म मनुष्य ने अपने पूर्वजन्मों में किए होते हैं, उनसे उसे तभी छुटकारा मिलता है, जब वह उन्हें भोग लेता है। यही ईश्वरीय विधान भी है। कर्म का यह सिद्धान्त बहुत ही जटिल है, जो हम मनुष्यों की समझ में नहीं आता।
आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध करने के लिए मनुष्य स्वतन्त्र है। परन्तु ऐसा दुष्कृत्य करके मनुष्य अपने प्रियजनों का अनजाने में अहित कर बैठता है। वह स्वयं तो अपने कष्टों से तथाकथित रूप से मुक्त हो जाता है, पर पीछे वालों को नरक की भट्टी में झौंक जाता है। अपने प्रियजन के बिछोह के साथ-साथ उन्हें समाज के तानों और उलाहनों का सामना करना पड़ता है। न्याय व्यवस्था के सवालों का भी उत्तर देना पड़ता है।
मनुष्य यदि ईश्वर पर पूरा भरोसा रखे, तो वास्तव में उसके कठिन समय में वह उसकी सहायता कर रहा होता है। जिस प्रकार सांसारिक माता-पिता अपने बच्चे को दुखी नहीं देख सकते, उसी प्रकार वह परमपिता परमात्मा भी नहीं चाहता कि उसके बच्चे कभी दुखी रहें। यह हम मनुष्यों की गलतियाँ होती हैं, जिनके कारण उन अशुभ कर्मों का दण्ड हमें समयानुसार अवश्य ही भुगतना पड़ता है।
मनुष्य को अपने कष्टकारी समय में सहारा प्राप्त करने के लिए सज्जनों की संगति में जाना चाहिए। उसे मानसिक शान्ति पाने के लिए अपने घर में बैठकर सद् ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। यदि अपने मन में परेशानियों से हारकर कभी आत्महत्या का विचार आ भी जाए, तो उस पर पुनः विचार करना चाहिए। परिवारी जनों से विचार-विमर्श करना चाहिए। कोई न कोई सकारात्मक हल अवश्य ही निकल आता है।
चन्द्र प्रभा सूद