कर्मफल का खेल
संसार कर्मों की मण्डी है। इस संसार को हम कर्म प्रधान कह सकते हैं। यानी मनुष्य जैसे कर्म करता है, तदनुरूप ही वह फल पाता है। इसीलिए हमारे सभी ग्रन्थ कर्मों की शुचिता पर बल देते हैं। चाहे रामचरित मानस हो या गीता हो, दोनों में ही कर्म को प्रधान बताया गया है। यह सत्य है कि कर्म करने के लिए हर मनुष्य स्वतन्त्र है, परन्तु उसका फल भोगने में नहीं। मनुष्य अपने कर्मो से ही अपने भाग्य को बनाता है और बिगाड़ता है।
'रामचरितमानस' में इस विषय पर तुलसीदास जी ने बहुत सुन्दर शब्दों में लिखा है-
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहि सो तस फल चाखा॥
सकल पदारथ हैं जग मांही।
कर्महीन नर पावत नाहीं॥
अर्थात् यह विश्व कर्म प्रधान है। जो जैसा करता है, उसे वापिस वैसा ही फल मिलता है। इस संसार में समस्त पदार्थ हैं, पर कर्महीन मनुष्य कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता।
तुलसीदास जी कहते हैं कि यह विश्व कर्म प्रधान है। मनुष्य जैसा बोता है, वैसा ही काटता है। यानी जैसे कर्म वह करता है, उसे उनका वैसा ही फल मिल जाता है। यहाँ कोई भी हेराफेरी नहीं होती।यह सीधा-सा गणित है। अच्छे कर्म करने पर सुख-समृद्धि मिलती है। इसके विपरीत बुरे कर्म करने पर दुख और परेशानियाँ ही मिलती हैं। ईश्वर के इस संसार में अन्तहीन पदार्थ हैं, पर कर्महीन को कुछ भी नहीं मिल पाता।
'वाल्मीकिरामायणम्' में आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने कहा है-
कर्मफल-यदाचरित कल्याणि
शुभं वा यदि वाsशुभम्।
तदेव लभते भद्रे!
कर्ता कर्मजमात्मन: ll
अर्थात् मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है। हे सज्जन व्यक्ति! कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
इस श्लोक का कथन है कि मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार ही इस जीवन में खट्टा-मीठा फल खाने के लिए मिलता है। अपने कर्मफल के भोग से मनुष्य को किसी तरह छुटकारा नहीं मिल सकता। केवल उन्हें भोगकर ही वह उनसे मुक्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य के पास कोई ओर चारा नहीं है। मनुष्य यदि सोचे कि यहाँ उसकी प्रॉक्सी चल जाए और कोई अन्य कड़वा फल कहा ले, तो यह कदापि सम्भव नहीं है।
कर्म सिर्फ शरीरिक क्रियाओं से ही सम्पन्न नहीं होता, बल्कि मन से, वचन से और कर्म से भी किए जाते हैं। जो आचार, व्यवहार मनुष्य अपने माता-पिता, बन्धु, मित्र, रिश्तेदार के साथ करता है, वह भी कर्म की श्रेणी में आता है। जब मनुष्य अच्छे कर्म करता है, तब उसका प्रतिफल भी अच्छा मिलता है और जब मनुष्य कुछ गलत करता है, तब परिणाम में कष्ट और परेशानियाँ मिलते है।
इसीलिए मनीषी मनुष्य को सदा समझाते हुए कहते हैं-
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
अर्थात् जो भी शुभ अथवा अशुभ कर्म मनुष्य करता है, उनके फल का भोग उसे करना ही पड़ता है।
यहाँ उसकी इच्छा या अनिच्छा का कोई मूल्य नहीं होता और न ही उससे कुछ पूछा जाता है। अपने हिस्से के भोग चाहे वह हँसकर भोगे या रोते और कल्पते हुए भोगे। यह उस व्यक्ति विशेष पर ही निर्भर करता है। इन्हें भोगने के सिवाय उसके पास और कोई चारा नहीं होता। दूसरे शब्दों में कहें तो बबूल का पेड़ बोकर कोई मनुष्य मीठे आम के फल खाने की कामना नहीं कर सकता।
यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह शुभ कर्म करना चाहता है या अशुभ। उसके फल के लिए फिर उसे तैयार रहना चाहिए। अपने किए गए कर्म के अनुसार उसे फल मिलना है, यह भी निश्चित है। इसलिए उसे समय की प्रतीक्षा करते रहना चाहिए। यथासमय उसे शुभ कर्मों का फल मिलता है, उसी प्रकार अशुभ कर्मों का भी फल मिलता है। मनुष्य शुभाशुभ कर्मों के फेर में सदा पड़ा रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद