जीवन चलने का नाम
मनुष्य का जीवन जब तक चलता रहता है, तभी तक उसमें जीवन्तता रहती है। इससे मनुष्य में कार्य करने का उत्साह एवं स्फूर्ति बनी रहती है। मानव जीवन की सफलता का मार्ग है, सही दिशा में निरन्तर आगे बढ़ते जाना। उसके लिए मनुष्य को जागृत होकर निरन्तर आगे बढ़ना होता है। अपने भाग्य का मालिक मनुष्य स्वयं है, वह इसे बना सकता है। जब वह उठ खड़ा होता है, तो उसका भाग्य भी उन्नत होता है।
जब यह जीवन किसी कारण से निराश होकर अथवा हताश होकर चलने से इन्कार कर देता है या बैठ जाता है, तब यह जीवन मृतप्रायः हो जाता है। जब एक मनुष्य निष्क्रिय, आलसी और एक प्रकार से सोया हुआ होता है, तब उसकी सफलता को ग्रहण लग जाता है। यदि मनुष्य केवल बैठा रहता है, तो उसका भाग्य भी निष्क्रिय हो जाता है। मनुष्य के सो जाने पर उसका भाग्य भी सो जाता है।
'ऐतरेय ब्राह्मण' में कहा गया है- 'चरैवेति चरैवेति।' अर्थात् मनुष्य को सदा चलते रहना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि सारी प्रकृति गतिशील है। वह अपने निश्चित समय पर बदलती है। सूर्य सभी के लिए प्रेरणा और ऊर्जा का स्त्रोत है। वह कभी निष्क्रिय नहीं बैठता, न ही वह आराम करता है और न ही सोता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अपने कार्य बिना किसी के कहे कुशलतापूर्वक करता है।
नदी प्रवहमान रहती है, तो उसका जल शुद्ध और पीने योग्य होता है। यदि वह रुक जाए, तो उसका जल कीचड़युक्त हो जाता है। उसमें से दुर्गन्ध भी आने लगती है। इसी प्रकार वायु निरन्तर बहती रहती है, इसीलिए वह जीवों की प्राणशक्ति है। यदि वायु दूषित हो जाए, तो रोगों का कारण बन जाती है। इसी प्रकार सभी ग्रह-नक्षत्र अपने नियम से चलते रहते हैं, उनमें कहीं कोई रुकावट नहीं होती।
मनुष्य एक बच्चे के रूप में जन्म लेता है। फिर अपने विकास के क्रम को पूर्ण करता हुआ अन्त में मृत्यु के आगोश में समा जाता है। मृत्यु जीवन का अन्त नहीं होती, अपितु नवजीवन का आरम्भ होती है। जीवन का यह क्रम अनवरत चलता रहता है। इसी प्रकार एक बीज क्रमानुसार वृक्ष बन जाता है। तब वह जीवों को छाया और फल देता है। इस क्रम में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता।
अनुकूल या प्रतिकूल हर स्थिति और परिस्थिति में आगे ही आगे बढ़ते रहने का नाम जीवन है। जीवन में निराश और हताश होकर मनुष्य अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता। जो बीत गया सो बीत गया, उसकी चिन्ता छोड़कर शेष बचे हुए जीवन के विषय में ही मनुष्य को विचार करना चाहिए। श्रेष्ठ पुरुष दौड़ लगाते हैं और रेस में आगे भागते हुए जीत जाते हैं। जो मनुष्य भागता है, उसी को ही लक्ष्य मिलने की सम्भावना होती है।
जंगल का राजा शेर भी जब तक अपने भोजन के लिए स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता, तब तक उसे भोजन प्राप्त नहीं होता। अपने आप तो कोई पशु उसके मुँह में आहार बनने के लिए नहीं चला जाता। इसी प्रकार भोजन की थाली चाहे मनुष्य के सामने क्यों न पड़ी रहे, जब तक वह स्वयं ग्रास तोड़कर मुँह में नहीं डालता, तब तक वह उस स्वादिष्ट भोजन का आनन्द नहीं ले सकता।
मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करना है। उसे सदाचार और अनुग्रह करना चाहिए। शुभकर्म करना सन्तोषप्रद होता है। भाग्य को केवल आलसी और कामचोर लोग कोसा करते हैं। पुरुषार्थी व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करते हैं। पुरुषार्थी आलस्यरहित रहना ठीक समझता है। जो जो ईश्वर पर विश्वास रखकर कर्म और पुरुषार्थ करते हैं, उन्हें सफलता मिल जाती है। संसार का बनना-बिगड़ना सब ईश्वर के ही आधीन है।
इस चर्चा का सार यही है कि मनुष्य को अपने जीवन में अनवरत चलते रहना होता है। अपने जीवन का निर्माण वह कर्म करके करता है। उसे किसी भी शर्त पर थक-हारकर या निराश होकर नहीं बैठना है, ऐसा करके वह रोगों का घर बन जाता है। वह जितना परिश्रम करता है, उतना ही सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता चला जाता है। अतः अपने स्वर्णिम भविष्य के लिए चलते जाना है।
चन्द्र प्रभा सूद