बच्चे कच्ची मिट्टी के समान
बच्चे कच्ची मिट्टी के समान होते हैं। जिस प्रकार कच्ची मिट्टी से कुम्हार मनचाहा आकर देता हुआ विभिन्न पात्र बना लेता है, उसी प्रकार एक छोटे बच्चे को माता-पिता जिस भी साँचे में चाहें ढाल सकते हैं। जैसा भी आकार देना चाहते हैं, वैसा दे सकते हैं। जिस तरह एक चावल से ही सारे चावल पक जाने का ज्ञान हो जाता है। उसी प्रकार से घर के बच्चे को देखकर पता चल जाता है कि इस परिवार में रहने वाले लोगों के संस्कार कैसे हैं?
बचपन में यह कथा सुनी थी। उस समय शायद इसकी गहराई समझ नहीं आई होगी, पर अब ज्ञात होता है कि इस कथा का क्या रहस्य है?
एक गाँव में तीन सहेलियाँ थीं। एक दिन वे तीनों कुएँ पर पानी भरने गयीं। उसी समय एक महिला का बेटा वहाँ से गुजरा। वह बड़े गर्व से बोली कि यह मेरा बेटा कान्वेंट स्कूल में पढ़ता है। पढ़ाई में यह बहुत योग्य है। माँ को कुँए से पानी भरते हुए देखकर वह होशियार बेटा वहाँ से चला निकल गया।
थोड़ी देर के बाद दूसरी महिला का पुत्र भी वहाँ से गुजरा। उसकी माँ बोली देखो यह मेरा बेटा है जो पब्लिक स्कूल में पढ़ता है। वह भी अपनी माता को वहाँ पर पानी भरता हुआ छोड़कर चला गया।
अन्त में तीसरी महिला का पुत्र भी वहाँ से गुजरा। उसने अपनी माँ को पानी भरते देखा और उसके पास आ गया। पानी से भरा हुआ मटका उसने उठाकर अपने कन्धे पर रख लिया और वहीँ पास रखी पानी की भरी हुई बाल्टी दूसरे हाथ में पकड़ ली। पानी से भरे दोनों बर्तन उठाने के बाद उसने आपनी माता से घर चलने के लिए कहा।
उसकी माँ ने गर्व से प्रसन्न होते हुए कहा कि मेरा बेटा एक सरकारी स्कूल में पढ़ता है। उस माँ के चेहरे की प्रसन्नता देखकर अन्य दोनों माताओं की नजरें शर्म से झुक गईं।
पहली और दूसरी दोनों महिलाओं के पुत्रों के मन में यह भावना ही नहीं आई कि उनकी माँ दो-दो बर्तन उठाकर घर तक कैसे लेकर जाएगी? उन्हें अपनी माता के कष्ट का जरा भी ध्यान नहीं आया, केवल उन्होंने ने अपने बारे में ही सोचा।
इस कथा का सार मात्र इतना ही है कि माता-पिता अपने बच्चों को लाड़ लड़ाते हुए उद्दण्ड, नकचढ़ा और सिरफिरा तो बना सकते हैं, किन्तु लाखों रुपए खर्च करके भी उन्हें संस्कारवान नहीं बना सकते।
बचपन में जैसे संस्कार बच्चों को डाले जाते हैं, वे उसी के अनुसार ही बन जाते हैं। कई घरों में देखा है कि छोटे बच्चे से कहते हैं माता के बल पकड़ लो या पिता को चाँटा मार दो। तुतलाती बोली में गाली बोलकर बताना। जब बच्चा बालपन में यह हरकतें घर वालों की मर्जी से करता है, तो घर के लोग उसकी बालसुलभ चंचलता पर प्रसन्न होते हैं।
उस समय बच्चे के मन में यह बात घर कर जाती है कि वह निश्चित ही कोई अच्छा और बड़ा काम कर रहा है, जिससे घर के सब लोग खुश हो रहे हैं। फिर जब बड़ा होकर वह यही सब करता है, तो उसे मारा-पीटा जाता है या उस पर क्रोध किया जाता है। तब बच्चे को यह समझ में नहीं आता कि बचपन से जो कार्य करता आ रहा है, वे अचानक गलत कैसे हो गए? उसे किसलिए सजा मिल रही है?
इसके अतिरिक्त घर के सदस्यों का परस्पर व्यवहार देखकर वह बहुत कुछ सीख जाता है। उस सबको बारीकी से परखते हुए वह भी वैसा ही व्यवहार करने लगता है। हद तो तब पर हो जाती है, जब घर के बड़े सदस्य उससे एक-दूसरे की जासूसी का काम लालच देकर करवाते हैं। इससे उसे दूसरों की भावनाओं से खेलना आ जाता है। रिश्वतखोरी और दूसरे को ब्लैकमेल करना वह मासूम बच्चा बखूबी जान जाता है।
वैसे तो बाहरी परिवेश यानी आस-पड़ौस, विद्यालय के साथियों का प्रभाव बच्चे पर अवश्य पड़ता है, पर यदि घर के संस्कार मजबूत हों तो बाहरी संस्कार उस बच्चे पर हावी नहीं हो सकते। इसलिए बच्चे में छुटपन से ही सुसंस्कारों को रोपित कीजिए, जिससे बड़े होने पर यह पौधा सड़ने या मुरझाने न पाए।
चन्द्र प्रभा सूद