सहारे की खोज
अपना जीवन जीने के लिए आखिर किसी दूसरे के सहारे की कल्पना करना व्यर्थ है। किसी को बैसाखी बनाकर कब तक चला जा सकता है? दूसरों का मुँह ताकने वाले को एक दिन धोखा खाकर, लड़खड़ाकर गिर जाना पड़ता है। उस समय उसके लिए सम्हलना बहुत कठिन हो जाता है।
बचपन की बात अलग कही जा सकती है। उस समय मनुष्य सदा माता-पिता की अँगुली थामकर चलता है। वह उनके बिना एक कदम भी नहीं चल पाता। उनकी नजरों से ही बच्चा इस दुनिया को देखने और समझने की कोशिश करता है।
बड़ा होने पर जब वह योग्य बनकर इस संसार सागर में तैरने के लायक हो जाता है, तब उसे मजबूत और स्वावलम्बी बन जाना चाहिए। उस समय मनुष्य को किसी के भी कन्धे को बैसाखी बनाने की कोई आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। उसे स्वावलम्बी बनकर, अपने ऊपर पूरी तरह से विश्वास रखना चाहिए।
यह सत्य है कि लता बहुत नाजुक और कमजोर होती है। उसे किसी सहारे की आवश्यकता होती है, तभी वह फलती फूलती है। इसीलिए उसे अपनी सुरक्षा के लिए किसी मजबूत वृक्ष का सहारा लेना पड़ता है।
मनुष्य को यह बात हमेशा ही याद रखनी चाहिए कि जो बेल बड़े वृक्ष का सहारा लेकर बहुत इतराती फिरती है और समझती है कि उसमें आकाश छूने की सामर्थ्य आ गई है, तो वह गलत सोचती है। वृक्ष के कटते ही वह धड़ाम से जमीन पर औंधे मुँह गिर जाती है। फिर उसे मुँह की खानी पड़ जाती है। तब कोई उसे सहारा देने नहीं आता। उसकी सहायता नहीं कर सकता।
परावलम्बी मनुष्य स्वयं को बहुत कमजोर समझता है। वह कभी भी अपने जीवन में सिर उठाकर नहीं चल पाता। उसे हमेशा यही लगता है कि वह अपने जीवन में अकेले या बिना सहारे के एक कदम भी नहीं चल सकता। इसलिए वह ऐसे व्यक्ति की तलाश करता रहता है, जो उसका सहारा बन सके और हाथ पकड़कर, थामकर आगे ले जाए। ऐसे मनुष्य को यदा कदा उसे अपमान का कड़वा घूँट पीना ही पड़ता है।
जिसे वह अपना सब कुछ मान लेता है, जिसका मुँह ताकता है, जिसके निर्देश के बिना वह एक कदम भी नहीं चलता, वही समय आने पर उसे उसकी औकात बता देता है। उस समय वह स्वयं को बहुत ही असहाय और बौना महसूस करता है। अपनी कल्पना के विपरीत मिले आघात को सहन नहीं कर पाता।
ऐसी दुखद स्थितियों से बचने के लिए मनुष्य में आत्मविश्वास का होना बहुत आवश्यक है। मनुष्य को यथासम्भव अपने विवेक पर भरोसा ही करना चाहिए। उसे यत्नपूर्वक अपना मानसिक और आत्मिक बल बढ़ाना चाहिए। तभी वह इन दुखदायी स्थितियों से बचने में सफल हो सकता है।
जब तक मनुष्य अपने में साहस नहीं जुटा पाता और दूसरों की ओर देखना नहीं छोड़ता, तब तक उसका हृदय चकनाचूर होता ही रहता है। उसका स्वाभिमान आहत होता रहता है। हर कोई उसे दो बात सुनाकर चल देता है। वह बेचारा बना हुआ असहाय-सा देखता रह जाता है।
किसी का सहारा लेने वाले व्यक्ति को सहारा देने वाला धीरे-धीरे अपना गुलाम ही समझने लगता है। वह चाहता है कि उसका सहारा लेने वाला उसे खुदा समझे। उसकी हर सही-गलत बात पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगाए। उसके हर कथन को ब्रह्मवाक्य माने। उसकी इच्छा से सोए, जागे और अपने सारे कार्य करे। यानी बिना मोल के वह अपनी गुलामी उसके नाम लिख दे।
यदि वह उसकी इच्छा के अनुसार न चलना चाहे, तो उससे सम्बन्ध विच्छेद करने की धमकी देता है। ऐसे में वह बेचारा घबराकर उसका साथ पाने के लिए उपाय करता रहता है।
उचित यही है कि मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास रखना चाहिए। अपने अंतस की शक्ति को पहचानकर किसी का सहारा लेने से बचना चाहिए ताकि उसे जीवन में असफलता का मुँह न देखना पड़े।
चन्द्र प्रभा सूद