जमा-घटा होते कर्म
शास्त्रों में तीन प्रकार के कर्मों का उल्लेख किया गया है- संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म और क्रियमाण कर्म।
संचित कर्म - जन्म-जन्मान्तरों में जो भी कर्म मनुष्य करता है, उन सबका योग संचित कर्म कहलाते हैं। इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि जिस प्रकार बैंक में पैसे जमा करते हैं, तो चक्रवृद्धि ब्याज जब उसमें जुड़ता है, तो वह संचित धन प्रतिवर्ष बढ़ता रहता है। उसी प्रकार संचित कर्म भी वृद्धि को प्राप्त होते हैं।
प्रारब्ध कर्म- संचित कर्म का ही एक भाग है। ये संचित कर्म ही मनुष्य का प्रारब्ध होते हैं। इन्हीं कर्मों के अनुसार मनुष्य को नया शरीर मिलता है। इसीलिए मनीषी कहते हैं-
पहले बना प्रारब्ध पाछे बना शरीर।
पूर्वजन्मों का बहुत बड़ा संग्रह बने सभी संचित कर्म एक ही जन्म में नहीं भोगे जा सकते। इसलिए वर्तमान जीवन में भोगे गए प्रारब्ध कर्म संचित कर्म में से घटा दिए जाते हैं। इस प्रकार केवल प्रारब्ध कर्म ही मनुष्य इस जीवन में भोगता है जो संचित कर्मों का एक भाग मात्र होता है।
क्रियमाण कर्म- मनुष्य इस जीवन में प्रतिदिन जो कर्म करता है, वे क्रियामान कर्म कहलाते हैं। उनसे ही संचित कर्मों का निर्माण होता है। इस प्रकार जमा-घटा का यह खेल चलता रहता है।
मनुष्य अपने विवेक को नकारते हुए लक्ष्यहीन होकर जब कर्म करता है, तो उसके संचित कर्मों में वृद्धि हो जाती है। एक उदाहरण लेते है कि यदि किसी के अपमान करने पर मनुष्य क्रोधित होता है तो उसके संचित कर्म बढ़ते हैं। कोई अपमान करे और मनुष्य उस पर क्रोध न करे, तो निश्चित ही उसके संचित कर्म कम होते हैं।
यदि मनुष्य अपनी चेतना को जागृत करके प्रतिक्रिया न करें, तो अपने संचित कर्मों को नष्ट कर सकता है। इसके लिए सबसे पहली शर्त है अन्तर्मन की शान्ति। मनुष्य को केवल क्रोध का शमन ही नहीं करना है, क्रोध उत्पन्न ही न हो इसके लिए प्रयास करना होता है। इस प्रकार धीरे-धीरे संचित कर्म नष्ट होते हुए एक दिन शून्य हो जाते हैं।
जब वे समाप्त हो जाते हैं, तब मनुष्य को फिर जीवन मरण के चक्र में पड़ने की आवश्यकता नहीं रहती। ये प्रश्न हमारे समक्ष मुँह बाए खड़े रहते हैं, जिनका उत्तर विद्वानों ने समय-समय पर दिया है। ये प्रश्न हैं- जीव जन्म क्यों लेता है? वह पुनः पुनः शरीर धारण क्यों करता है? उसे मुक्ति कब और कैसे मिलती है?
यह चक्र तब तक चलता रहता है और मनुष्य क्रियमाण कर्मों के द्वारा अपने कर्मों का संचय करता रहता है। अपने संचित कर्मों को भोगने के लिए जीव का बारम्बार जन्म होता है। जब तक उसके कर्मो का हिसाब पूर्ण नहीं हो जाता तब तक जीव को जन्म-मरण के चक्र में आवागमन करना पड़ता है।
महर्षि पातञ्जलि ने योगशास्त्र के तीसरे अध्याय मे कर्म के विषय को स्पष्ट करते हुए आश्चर्यचकित कर देने वाली सत्य बात कही है-
'यदि मनुष्य अपने कर्मों को जान लेता है, तो वह उसे अपनी मृत्यु का समय भी ज्ञात हो सकता है।'
वर्तमान जन्म में किए जा रहे कुछ कर्मों का फल मनुष्य इसी जन्म मे भोग लेता है। जिनका फल वह नहीं भोग पाता, वे उसके सचित कर्मो में जाकर जुड़ जाते हैं। उनका भुगतान उसे आगामी जन्मों में करना पड़ता है। उस समय बड़ा ही कष्ट होता है। कर्म करते समय मनुष्य जरा भी विचार नहीं करता, परन्तु उनको भोगते समय वह ईश्वर से शिकवा-शिकायत करता है।
वह मालिक तो समय-समय पर चेतावनी देता रहता है, पर इन्सान उसे अनसुना कर देता है। फिर उसी परम न्यायकारी पर पक्षपात करने का आरोप लगाता रहता है। अपने इहलोक और परलोक को सुधारने के लिए समय रहते मनुष्य को अपने क्रियमाण कर्मों की ओर ध्यान देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद