पिता आकाश से ऊँचा
माँ की महिमा के विषय में शास्त्रों में, कवियों, मनीषियों और लेखकों के द्वारा आज तक बहुत लिखा जा चुका है। परन्तु पिता की महानता का वर्णन करने में इन सबने ही कृपणता का प्रदर्शन किया है। सन्तान के पालन-पोषण में यद्यपि पिता की भूमिका भी अहं होती है।
शास्त्रों ने कहा है कि पिता आकाश से भी ऊँचा होता है। इसलिए 'पितृदेवो भव' अर्थात् पिता को देवता कहकर अभिहित किया जाता है, उसे सम्मान दिया जाता है। इन्सान को इस संसार में लाने का कार्य वह करता है। इसलिए उसे ईश्वर तुल्य माना जाता है। मनुष्य सारी आयु यदि उसकी सेवा-सुश्रुषा करता रहे, तब भी वह उसके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता।
'ब्रह्मवैवर्तपुराणम्' पिता की महानता को प्रतिपादित करते हुए कहता है-
सर्वेषामपि वन्द्यानां जनक: परमो गुरु:।
अर्थात् सभी वन्दनीय लोगों में पिता सर्वश्रेष्ठ है। कहने का तात्पर्य यही होता है कि इस संसार में महान मानकर हम जिनकी वन्दना करते हैँ, उन सबमें पिता का स्थान प्रथम होता है।
पिता केवल पैसा कमाने की मशीन मात्र नहीं होता है, अपितु बच्चे के लिए एक आदर्श होता है। हर लड़का बड़ा होकर अपने पापा की तरह बनना चाहता है। इस सत्य को कोई भी झुठला नहीं सकता कि इन्सान तब बड़ा हुआ, जब वह अपने पिता के कन्धे पर खड़ा हुआ।
छोटा बच्चा जब अपने पिता की अँगुली पकड़कर ठुमकते हुए चलता है, तो वे पल पिता के लिए अवर्णनीय सुख देने वाले होते हैं। उसकी तुतलाती हुई बोली सुनकर वह निहाल हो जाता है। पिता की गोद में जाकर हर बच्चा स्वयं को सुरक्षित अनुभव करता है। पिता की छत्रच्छाया में ही बच्चा फलता-फूलता है।
पिता की हार्दिक इच्छा होती है कि उसके बच्चे पढ़-लिखकर योग्य बनें और उच्च पद पर आसीन हों। जो माता-पिता बच्चे को शिक्षित नहीं करते उनके लिए किसी कवि ने कहा है-
माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पठित:।
न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये बको यथा।।
अर्थात् वह माता शत्रु है और वह पिता वैरी है जो अपने बच्चों को शिक्षा नहीं देते। वे बच्चे सभा में उसी प्रकार सुशोभित नहीं होते जैसे हंसों की सभा में बगुला।
इस श्लोक का तात्पर्य यही है कि विद्याध्ययन के बिना बच्चे विद्वानों की सभा में सजते नहीं हैं। उनकी वहाँ अवहेलना होती है। ऐसी अप्रिय और हास्यास्पद स्थिति से अपने बच्चों की रक्षा करना माता-पिता का दायित्व होता है।
उन्हें कभी हार का सामना न करना पड़े। वे अपने जीवन में सदा सफलता की ऊँचाइयों को छुएँ। कभी किसी कदम पर वे गिरने लगते हैं तो पिता आगे बढ़कर उन्हें थाम लेता है, उन्हें सहारा देता है।
पिता चाहता है कि उसके बच्चे अपने जीवन में सदा सुख-समृद्धि प्राप्त करें। उन्हें कभी अपने जीवनकाल में कोई कमी न सताए। अपनी सन्तान के माध्यम से ही हर पिता अपने अधूरे सपनों को साकार करने का यथासम्भव प्रयास करता है। उसका हर कार्य अपने बच्चों का बेहतर भविष्य बनाने के लिए होता है।
शुक्रनीति हमें समझाती है कि कभी कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे पिता को रत्तीभर भी कष्ट हो-
पितृसेवापरतिष्ठेत्कामवाङ्मानसै सदा।
तत्कर्म नित्यं कुर्यात् येन तुष्टो भवेत्पिता।।
तन्न कुर्याद्येन पिता मनागपि विषीदति।
अर्थात् पुत्र को सदा शरीर, वाणी और मन से पिता की सेवा में तत्पर रहना चाहिए। जिस कार्य से पिता प्रसन्न हो वही कार्य सदा करना चाहिए। वह कार्य कदापि नहीं करना चाहिए जिससे उसके मन को कष्ट हो।
इस श्लोक का अर्थ यही होता है कि मनुष्य को सदा पिता की इच्छा का सम्मान करना चाहिए। उसके विपरीत कभी नहीं जाना चाहिए। उसे सदा यही प्रयास करते रहना चाहिए कि उसके कारण किसी भी तरह से पिता के मन को सन्ताप न हो। वह उसके दुख का कारण न बने।
पिता यदि कठोरता का प्रदर्शन करता है तो सन्तान की भलाई के लिए करता है। यदि वह ऐसा न करे तो बच्चों को सही और गलत की पहचान नहीं करा सकता। उसका दबदबा घर-परिवार को अनुशासित रखता है। उसका लापरवाही वाला ढुलमुल रवैया अपने बच्चे के लिए अहितकारक होता है।
पिता अपने जीवन में जाने-अनजाने यदि कोई व्यसन करता है, तो उसे बच्चों के समक्ष उदाहरण स्थापित करने के लिए उनका त्याग कर देना चाहिए। अन्यथा वह अपने बच्चों की नजर में गिर जाता है। तब उन्हें कुमार्ग पर जाने से नहीं रोक सकता और इस तरह बच्चों का जीवन नरक बन जाता है।
हर बच्चा अपने पिता के लिए विशेष होता है। उसी प्रकार हर पिता अपने बच्चे के लिए मान होता है, आदर्श होता है। जिस प्रकार पिता बच्चे के लालन-पालन करने, उसे योग्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता, उसी प्रकार आयु प्राप्त होते वृद्ध पिता का दामन बच्चों को नहीं छोड़ना चाहिए। उसकी हर आवश्यकता का पूरा ध्यान रखना चाहिए। उसकी सेवा-सुश्रुषा करके अपने जीवन को सफल बनाना चाहिए। पिता का यथोचित मान-सम्मान करना हर सन्तान का कर्त्तव्य है।
पिता मनुष्य का सबसे बड़ा मीत है, सखा है, भाई है, बन्धु है, गुरु है। उससे बढ़कर इस संसार में मनुष्य का हितचिन्तक कोई और नहीं हो सकता। उसके किए गए उपकार को न तो कोई चुका सकता है और न ही वापिस लौटा सकता है। उसके मूल्य को कभी कम करके नहीं आँकना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद