सन्तान से हारना
प्रत्येक मनुष्य में इतनी सामर्थ्य होती है कि वह सम्पूर्ण जगत को जीत सकता है। सारे संसार पर आसानी से अपनी धाक जमा सकने वाला मजबूत इन्सान भी अपनी औलाद से हार जाता है। उसके समक्ष वह बेबस हो जाता है।
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि सर्वसमर्थ होते हुए भी आखिर मनुष्य अपनी सन्तान के समक्ष क्यों हथियार डाल देता है? इसका कारण क्या है?
सन्तान के प्रति होने वाला उसका अन्धा मोह ही इसका प्रमुख कारण होता है। उसकी ममता उसे झुकने के लिए विवश कर देती है और न चाहते भी हार मानकर वह अपने घुटने टेक देता है।
रामायण काल में पुत्रमोह में अन्धी हुई कैकेयी ने भरत को राज्य दिलाने के लिए चौदह वर्ष के लिए भगवान श्रीराम, भगवती सीता और लक्ष्मण को वन में भेज दिया। इस सबसे दुखी हुए राजा दशरथ की मृत्यु जैसा जघन्य अपराध किया।
महाभारत काल में पुत्रमोह में अन्धे हुए धृतराष्ट्र ने अपने मृत भाई पाण्डु के बच्चों का हक मार लिया। फलस्वरूप महाभारत जैसा भीषण युद्ध हुआ, जिसने तबाही मचा दी। अनेक महारथी व विद्वान इस युद्ध की भेंट चढ़ गए।
राजा अकबर ने अपने बेटे सलीम के हठ के कारण हार मान ली। कहीं माता और कहीं पिता ने लाचार होकर दूसरों का हक छीना। इस प्रकार के अनेक उदाहरण इतिहास में खोजने पर मिल जाएँगे।
आज भी समाचार पत्रों, टी वी और सोशल मीडिया पर ऐसे समाचार देखने और सुनने को मिलते रहते हैं, जहाँ उच्च पदासीन अफसरों, नेताओं और बड़े-बड़े व्यापारियों के बच्चे चोरी, डकैती, कार चोरी, स्मगलिंग, हेराफेरी, मर्डर, बलात्कार आदि गलत कार्य करते हुए पकड़े जाते हैं। उस स्थिति में भी उनके माता-पिता उन्हें बचाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाते हैं और पानी की तरह पैसा बहाते हैं। यद्यपि उन लोगों को अपने बच्चों को संस्कारित करके समाज में एक आदर्श स्थापित करना चाहिए, परन्तु होता इसके विपरीत होता है।
बचपन में एक घटना सुनी थी कि एक चोर था। जब वह पकड़ा गया तो उसे न्यायाधीश ने सजा सुनाई और जेल में भेज दिया। परेशानियों का सामना करते हुए एक दिन उसकी माँ उसे मिलने के लिए वहाँ जेल में गई। अपने बेटे को उस स्थिति में देखटर उस माँ का कलेजा काँप गया। उसकी आँखों में आँसू आ गए।
माँ-बेटे की बातचीत हो रही थी तो उस चोर ने माँ को अपने बहुत करीब आने के लिए कहा। माँ ने सोचा कि बेटा उदास हो रहा है और उसके गले लगाना चाहता है। वह बेटे के एकदम पास जाती है। उसी समय बेटे ने माँ का कान काट लिया। सिपाही ने उसे मारते हुए उस काण्ड के बारे में पूछा।
उसके उत्तर ने सबको हैरान कर दिया। उसने कहा बचपन में जब मैं कुछ चुराकर लाता था, तो मेरी माँ ने कभी मना नहीं किया। यदि पहली बार चोरी करने पर मुझे माँ ने दो तमाचे लगाकर चोरी वाला सामान लौटाने के लिए कहा होता, तो आज मेरी यह स्थिति न होती।
यह कथा यही समझा रही है कि अनावश्यक लाड़-प्यार करके माता-पिता अपने बच्चों को बिगाड़ देते हैं। उनकी जायज-नाजायज माँगे पूरी करके उन्हें हठी बना देते हैं। जब बच्चे उनके हाथ से निकल जाते हैं और समाज में उनके कारण शर्मिंदा होना पड़ता है, तो उन्हें कोसते हैं। तब कहते हैं ऐसी औलाद के होने से अच्छा था कि वे निस्सन्तान रह जाते।
बच्चों को सही-गलत का अन्तर बताना माता-पिता का कर्तव्य होता है। वे अपनी रोजी-रोटी कमाने में व्यस्त रहते हैं, अपने में मस्त रहते हैं, पार्टियाँ करते रहते हैं पर बच्चों को समय नहीं दे पाते। यदि बच्चों को समय रहते पास बिठाकर संस्कार दिए जाएँ, तो ऐसी अनहोनी घटनाओं से बचा जा सकता है। बच्चे बहुत भोले और कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं। उन्हें जैसा चाहे आकार दिया जा सकता है। सन्तान से हारने के स्थान पर उन्हें ऐसा योग्य बनाना चाहिए कि वे समाज के लिए खजाना बन जाएँ न की भार।
चन्द्र प्रभा सूद