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वाणी और कानों का अनुशासन ईश्वर ने मनुष्य को कान दो दिए हैं, पर मुँह एक ही दिया है। इससे यही अर्थ लगाया जा सकता है कि प्रभु का यह स्पष्ट सन्देश है कि सुनो अधिक और बोलो कम। सभी जानते हैं कि कानों का काम है सुनना और मुँह का काम है बोलना। अब विचार इस विषय पर करना है कि मनुष्य को क्या सुनना चाह
सहारे की खोजअपना जीवन जीने के लिए आखिर किसी दूसरे के सहारे की कल्पना करना व्यर्थ है। किसी को बैसाखी बनाकर कब तक चला जा सकता है? दूसरों का मुँह ताकने वाले को एक दिन धोखा खाकर, लड़खड़ाकर गिर जाना पड़ता है। उस समय उसके लिए सम्हलना बहुत कठिन हो जाता है। बचपन की बात अलग कही जा सकती है। उस समय मनुष
पढ़ने से जी चुराते बच्चेप्रायः माता-पिता परेशान रहते हैं कि बच्चे पढ़ने में मन नहीं लगाते। वे अपनी पुस्तकों को देखना भी नहीं चाहते। विद्यालय से मिले हुए गृहकार्य को जल्दबाजी में करके वे अपना पिंड छुड़ाते हैं। उन्हें किसी वस्तु की कमी माता-पिता नहीं रहने देते, फिर भी वे उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते।
क्रोध और प्रसन्नता दो अवस्थाएँमनुष्य जब क्रोध में हो तब उस समय उसे कोई अहं फैसला नहीं लेना चाहिए। कहते हैं कि क्रोध अन्धा होता है, वह मनुष्य के विवेक का हरण का लेता है। तब वह कुछ भी सोचने-समझने के काबिल नहीं रहता। वह अपने-पराए का भेद करने में असमर्थ हो जाता है। उस क्रोध की अधिकता के समय लि
धनवान बनने की कामनामनुष्य की सबसे पहली और बलवती कामना होती है धनवान बनने की। यह धन है कि बहुत कठिनाइयों और प्रयत्नों से पकड़ में आता है। हाथ में आते ही फिर यह फिसलने लगता है। इसका कारण है कि जब इन्सान जी तोड़ श्रम करके धन एकत्र का लेता है तो फिर वह संसार की समस्त सुविधाएँ भोगना चाहता है। यानी
समय को पहचानिएमनुष्य वही समझदार कहलाता है, जो अपने कार्यों को समय पर पूर्ण करने का अभ्यास करता है। अपने कामों को कल पर टालकर निश्चिन्त होकर नहीं बैठ जाता। जिस भी कार्य या योजना को कल पर टाल दिया जाता है, उसके पूर्ण होने की सम्भावना बहुत कम हो जाती है क्योंकि कल तो कभी आता ही नहीं है। समय है कि किसी
धन साधन है, साध्य नहींहम नित्य प्रातः उठकर दिन की शुरूआत करते समय सोचते हैं कि जीवन में पैसा ही सब कुछ है। इसका कारण भौतिकवादिता है। मनुष्य को हमेशा याद रखना चाहिए कि धन केवल साधन है, साध्य नहीं। दूसरों की होड़ करते समय मनुष्य अपनी क्षमताओं को अनदेखा कर देता है। फिर बाद में परेशान होता रहता है।
पहले स्वयं को बदलोमनुष्य का बस चले तो वह सारी दुनिया को बदल डाले। उसे दुनिया के व्यवहार पसन्द नहीं आते। इस दुनिया के लोग उसकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते। वह जो चाहता है, लोग उसे करने नहीं देते। वह सबसे ही परेशान रहता है। ये कुछ कारण हैं, जो मनुष्य की उलझन का कारण बन जाते हैं। इन सबके कारण वह दुनिया
निस्वार्थ भाव से परोपकारमनुष्य निस्वार्थ भाव से जो भी परोपकार के कार्य करता है वे कभी व्यर्थ नहीं जाते। वे कार्य उसके शुभकर्मों में जुड़ जाते हैं और उसके पुण्यों को बढ़ाते हैं। समयानुसार फलदार वृक्ष की तरह वे उसे मीठा फल देते हैं। ऐसे मनुष्य की प्रसिद्धि कहाँ तक फैलेगी, यह सब ईश्वर ही जानता है। न तो
प्रोत्साहन की कमीप्रोत्साहन एक ऐसा भाव है, जो प्रत्यक्षतः दिखाई नहीं देता, परन्तु यदि किसी को मिल जाए, तो उसका जीवन बदल जाता है। यदि कोई मनुष्य आलसी है, कामचोर है या कभी सफल नहीं होता, ऐसे व्यक्ति को प्रोत्साहन मिल जाए, तो वह भी चमत्कार कर सकता है। इसके विपरीत किसी कर्मठ व्यक्ति को यदि निरन्तर हतोत्
सावधानी आवश्यकइस संसार मे बहुत-सी विचित्र बातों या वस्तुओं से नित्य प्रति हमारा वास्ता पड़ता रहता है। इसी प्रकार अनेक आश्चर्यजनक घटनाएँ भी हमारे आसपास प्रतिदिन घटित होती रहती हैं। कुछ के विषय में हमें जानकारी मिल जाती है और कुछ के बारे में पता ही नहीं चल पाता। मनुष्य का स्वभाव है कि वह इन विचित्र प
माँगने की जरूरत नहींपरमात्मा सारी शक्तियाँ उसी व्यक्ति को देता हैं, जो सच्चे मन से उसकी पूजा-अर्चना करता है। यदि हम मन की गहराई से उसे याद करें तो मनुष्य को कुछ भी माँगने की जरूरत नहीं पड़ती। वह मालिक तो स्वयं ही सब कुछ दे देता है। परमात्मा से कुछ माँगो नहीं और उससे दूरी भी मत बनाओ। बल्कि उसे सदा अपन
मन की बात मन मेंमनुष्य के साथ बहुधा ऐसा होता है कि वह बहुत कुछ कहना चाहता है, पर उसकी बात उसके मन में ही रह जाती है। समय बीत जाने के बाद वह सोचता है कि उसे ऐसे कहना चाहिए था या वैसे कह देना चाहिए था। पर अब तो कुछ भी नहीं हो सकता। तब तक वह कहने का अवसर खो चुका होता है। अपने मन की बात को दूसरों के समक
मनुष्य के शत्रु अथवा मित्रमनुष्य इस संसार में शत्रु अथवा मित्र लेकर पैदा नहीं होता बल्कि यहाँ रहते हुए उनका चयन करता है। अपनी सहृदयता से, अपने सद् व्यवहार से वह किसी भी पराए को जीवन भर के लिए अपना बना सकता है। कठोर से कठोर व्यक्ति को मोम की तरह पिघला सकता है। इसके विपरीत नाक के बल के सामान
कौन-सा गुरु दण्डनीयगुरु बनाने से पहले उसकी सघन परीक्षा कर लेनी चाहिए। मनुष्य जब बाजार में एक मिट्टी का मटका भी खरीदने जाता है, तो अच्छी तरह ठोक बजाकर देख लेता है। जब पूरी तसल्ली कर लेता है, तभी उस मटके को खरीदता है। फिर गुरु तो मनुष्य के जीवन भर का साथी होता है। यदि मनुष्य को ज्ञानी, तत्त्वदर्शी, ध
बिनमाँगे परामर्श नहीं मनुष्य को बिनमाँगे किसी को परामर्श नहीं देना चाहिए अथवा कभी भी अनावश्यक रूप से किसी के कार्य में दखलअंदाजी नहीं करनी चाहिए। जन साधारण की आम भाषा में इसे किसी के फटे में टाँग अड़ाना कहते हैं। यदि मनुष्य ऐसा करता है तो उसे अपनी अवमानना के लिए तैयार हो जाना चाहिए। मनीषी कहते हैं
चार लोग क्या कहेंगे?उन चार लोगों का बहुत शिद्दत से इन्तजार है, जो हम सबके जीवन को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। मनुष्य को हर समय उनसे डर-डरकर जीना पड़ता है। उनकी नाराजगी की परवाह करनी पड़ती है। यह बात आज तक समझ में नहीं आ पाई कि मनुष्य अपने सारे जीवन में उनकी ओर आस लगाकर क्यों देखता है? ये चार लोग हौव्
मनुष्य का प्रारब्धजन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त ऐसी अनेक घटनाएँ मनुष्य के जीवन में घटती हैं, जिनका कारण उसका प्रारब्ध होता है। प्रारब्ध का अर्थ है- परिपक्व कर्म। हमारे पूर्वकृत कर्मों में जो जब जिस समय परिपक्व हो जाते हैं, उन्हें प्रारब्ध की संज्ञा मिल जाती है। यह सिलसिला कालक्रम के अनुरूप चलता रहता
शुभकर्मों का संग्रहमनुष्य को ऐसे कार्य करने चाहिए, जिनको करने से उसे सुख-समृद्धि मिले। उनके लिए उसे कभी प्रायश्चित न करना पड़े। प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य को कौन से कार्य करने चाहिए और कौन से नहीं? इसके उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि देश, धर्म, परिवार और समाज के नियमानुसार किए जाने वाले सभी करणीय क
जीवन साथी की जासूसी बहुत से पति-पत्नी आपसी सम्बन्धों से इतने निराश हो जाते हैं कि एक-दूसरे की जासूसी जैसा घृणित कार्य करने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि अपने जीवन साथी की जासूसी करवाकर वे अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। इसका खामियाजा उन्हें भविष्य में भुगतना पड़ता है। एक-दूसरे पर कीचड़ उछालकर वे द
हिन्दी दिवस पर विशेषहिन्दी दिवस पर केवल भाषण देने या गोष्ठियाँ कर लेने से भाषा में कोई सुधार नहीं होने वाला। हिन्दी भाषा का दुर्भाग्य है कि उसके नाम पर केवल राजनीतिक रोटियाँ ही सेकी जाती है। वह अपने देश मे ही बेगानी हो रही है। हिन्दी पखवाड़ा मना लेने से उसका उद्धार नहीं होने वाला। उसके लिए सबको मिलकर
धन की सार्थकता दान में दान के महत्त्व को हमारे मनीषी भली-भाँति समझते थे। इसीलिए उन्होंने हमें बताया की हर शुभकार्य को करते समय दान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त किसी भी दुःख-तकलीफ से उभरने के पश्चात् भी दान देना चाहिए। अपने मन की शान्ति के लिए भी हर मनुष्य को अपनी शुद्ध कमाई में से कुछ धन अलग निकाकर रख
संयम से जीतमनुष्य के शरीर में श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और घ्राण ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं। उसकी श्रवण इन्द्रिय (कान) शब्द का ग्रहण करती है, उसकी त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होता है, उसके चक्षु (आँखें) सौन्दर्य का पान करते हैं, उसकी रसना (जिह्वा) रस का आस्वादन करती है और उसका घ्राण (नासिका) गन
सब कुछ मेराप्रत्येक इन्सान के मन में यही विचार हावी रहता है कि इस संसार के हर पदार्थ पर उसकी मोहर लग जाए। दूसरे शब्दों में वह यही चाहता है कि दुनिया की हर वस्तु बस उसकी हो जाए। कोई दूसरा उसकी तरफ आँख उठाकर देखे तक नहीं। उसके सिवा हर दूसरा व्यक्ति उन सभी सुविधाओं से वंचित रहे और उससे ईर्ष्या करे।
मृगतृष्णा एक छलावामृगतृष्णा तो बस एक छलावा मात्र है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह मनुष्य की विडम्बना है कि वह सारा जीवन मानो मृगतृष्णा के पीछे भागता रहता है। फिर भी उसके हाथ में कुछ नहीं आता। वह हर समय कदम-कदम पर प्रारब्ध के हाथों छला जाता है। वह प्रयत्न करता है, तेज कदमों से भागता है, उसे
विवेक का दामन थामें मानव जीवन में बहुधा कुछ ऐसे क्षण आते रहते हैं,, जब वह चारों तरफ से समस्याओं से घिर जाता है। वहाँ से निकलने का उसे कोई मार्ग नहीं सुझाई देता। उस समय जब उसका विवेक कोई निर्णय नहीं ले पाता। तब सब कुछ नियति के हाथों में सौंपकर उसे अपने उत्तरदायित्व व प्राथमिकताओं पर ध्यान केन्द्रित क
मन की शान्तिबड़े शहरों में प्रायः बिजली रहती है। यदि थोड़ी देर के लिए न भी रहे तो महसूस नहीं होता। इसका कारण है कि घरों में सबने प्रायः इन्वर्टर लगाए हुए हैं। छोटे शहरों और दूर-दराज के इलाक़ों में बिजली की समस्या बहुत विकट है। बिजली कब जाती है और कब आती है, इसका कुछ भी ठिकाना नहीं होता। इसी प्र
मूर्ख लाइलाज'मूर्ख मित्र से शत्रु अच्छा' यह उक्ति कहकर मनीषी मनुष्य को आगाह करते हैं कि मूर्ख व्यक्ति से कभी मित्रता नहीं करनी चाहिए। उसे समझदार बनाने का कितना भी प्रयास कर लिया जाय, कितना ही माथा फोड़ा जाए, उस पर कोई असर नहीं होता। वह मूर्ख का मूर्ख ही बना रहता है। अपना ही दिमाग खराब हो जाएगा, परन्त
टूटता ताराहमारे मन में यह अवधारणा घर कर गई है कि जब टूटता हुआ तारा दिखाई दे, तो उस समय कोई विश माँग लो अथवा कामना करो तो वह पूरी हो जाती है। कहते हैं कि यह टूटता हुआ तारा है, जो सब लोगों की मनोकामना पूर्ण करता है। इसका कारण शायद यही है कि उसे टूटने और अपने भाई-बन्धुओं से बिछुड़ने का दर्द शायद ज्ञात ह
नारी का सम्मानस्त्रियाँ समाज का एक विशिष्ट अंग हैं। वे घर-परिवार की धुरी हैं। उनका सम्मान हर स्थिति में होना चाहिए। किसी को भी यह अधिकार नहीं कि वह उनका तिरस्कार करे अथवा उन्हें अपशब्द कहे। स्त्री और पुरुष गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। उनमें से एक भी यदि बिगड़ जाए, तो गाड़ी ठीक तरह से नहीं चल सकती
जीवन की संजीवनीमुस्कराहट एक संजीवनी बूटी है, जो सामने वाले को जीवन दान देने का कार्य करती है। उसके लिए कोई मूल्य नहीं चुकाना पड़ता। यह तो मनुष्य की प्रसन्नता और सम्पन्नता की पहचान है। उसकी मुस्कराहट कई चेहरों को मुरझाने से बचा सकती है और उन्हें खुशियाँ दे सकती है। प्रातःकाल पूर्व दिशा से मुस्
सेवक की सजा मालिक को नहींमनुष्य को उसके किए गए दोषपूर्ण कार्य की सजा अवश्य मिलती है। ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि दोष कोई और व्यक्ति करे, परन्तु उसकी सजा किसी अन्य को मिल जाए। इस प्रकार का चलन यदि हो जाए, तब सर्वत्र अराजकता का माहौल बन जाएगा। गलत काम करने वाला यदि बच जाए और उसके स्थान पर किसी निर्दोष क
जन्म से मृत्यु की यात्रामनुष्य का जन्म जब इस संसार में होता है, तब वह खाली हाथ मुठ्ठी बाँधे हुए आता है और जब यहाँ से विदा लेने लगता है तब भी मुठ्ठी खोले खाली हाथ ही चला जाता है। इसका अर्थ यही है कि मनुष्य इस दुनिया में न कुछ लेकर आता है और न ही कुछ लेकर जाता है। तब यह मारकाट, हेराफेरी, रिश्वतखोरी,
अधम सदा दुसह्यअधम या दुर्जन व्यक्ति अपनी नीचता को त्याग नहीं पाता। इसलिए उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। उसे कितना भी समझा लो, पर किसी दुर्जन को सज्जन बनाना सम्भव नहीं होता। अधम व्यक्ति अपनी ओछी हरकतों से बाज नहीं आता। जैसे संस्कार देने पर भी लहसुन को सुगन्धित नहीं बनाया जा सकता। उसकी दुर्गन्ध बनी रह
आप सभी बन्धुजनों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ। यह नूतन वर्ष सभी के लिए उत्साह और उल्लास लेकर आए।नववर्ष पर एक के कविता-स्वागत नववर्षस्वागत है नववर्षतुम एक बार फिर से मुस्कुराते हुए आ रहे होअपनी मनमोहिनी छटा बिखेरते हुए।तुम्हारे आने काउल्लास धरती परचहुँ ओर दिखाई देता हैहर मन नई आस लिए बाट जोहता है।
आत्महत्या हल नहींआजकल आत्महत्याएँ कुछ अधिक होने लगी हैं। समाचार पत्रों, टी वी, सोशल मीडिया पर इनकी चर्चा प्रायः होती रहती है। सभी वर्गों और आयु के लोग इस घृणित कृत्य को कर रहे हैं। किसान, व्यापारी वर्ग, नौकरी पेशा लोग, विद्यार्थी, नेता,अभिनेता, बच्चे, युवा, वृद्ध आदि सभी आत्महत्या का रास्ता अपना रहे
देह की नश्वरतामानव देह की नश्वरता के विषय में कोई सन्देह नहीं है। यह शरीर जीव को अपने पूर्वकृत कर्मो के अनुसार कुछ निश्चित समयावधि के लिए मिला है। जब भी यह समय सीमा समाप्त हो जाती है तो उसे इस भौतिक शरीर को त्यागना पड़ता है। इसके लिए उसकी राय का कोई मूल्य नहीं होता। वह चाहे अथवा न चाहे, कितना रोना-धो
जन्म-मरण के मध्य जीवनमनुष्य की कुछ कामनाएँ जीवन में पूर्ण हो जाती हैं, तो कुछ आवश्यकताएँ अधूरी रह जाती हैं। इसी पूर्ण और अपूर्ण के मध्य मनुष्य की सारी जिन्दगी झूलती रहती है। जिस प्रकार बच्चे सी-सा नामक झूले पर झूलते रहते हैं और उसका आनन्द लेते हैं। कभी एक साइड ऊपर चली जाती है, तो कभी दूसरी। इसी प्रक
अन्न का अनादर नहींअपनी थाली में मनुष्य को उतना ही भोजन परोसना चाहिए, जितना वह आराम से खा सकता है। यदि आवश्यकता से अधिक अन्न थाली में डाल लिया जाए, तो मनुष्य उसे खाने में असमर्थ हो जाता है। अतः वह बच जाता है और फिर उस बचे हुए भोजन को कूड़ेदान में फैंक दिया जाता है। इस तरह यह अनमोल अन्न बरबाद होता रह
चुगलखोरी की लतचुगलखोरी एक विशेष कला है, जिसमें व्यक्ति निपुणता हासिल न ही करे तो अच्छा है। इस शब्द का प्रयोग सभी गाली के रूप में करते हैं। चमचा, बॉस का कुत्ता आदि कहकर लोग उनके सामने अथवा पीछे उनका उपहास उड़ाते हैं। इन चिकने घड़ों को इन विशेषणों से कोई भी अन्तर नहीं पड़ता। वे उल्टा खुश होते हैं। चुगलखो
जमा-घटा होते कर्मशास्त्रों में तीन प्रकार के कर्मों का उल्लेख किया गया है- संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म और क्रियमाण कर्म। संचित कर्म - जन्म-जन्मान्तरों में जो भी कर्म मनुष्य करता है, उन सबका योग संचित कर्म कहलाते हैं। इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि जिस प्रकार बैंक में पैसे जमा करते हैं, तो च
मनुष्य की शुद्धिअपने तन और मन को शुद्ध करना ही शुद्धि कहलाता है। शरीर को शुद्ध करना बहुत सरल कार्य है। शरीर पर साबुन मला और जल लेकर स्नान कर लेने से मनुष्य का शरीर शुद्ध हो जाता है। परन्तु हमारा जो यह मन है, वह है कि शुद्ध और पवित्र होने का नाम ही नहीं लेता। इसे साबुन और जल से कदापि शुद्ध नहीं किया
मनुष्य को उपहारआश्चर्य की बात है कि बहुत-से ऐसे गुण हैं, जो ईश्वर की ओर से हमें उपहार स्वरूप अर्थात् नि:शुल्क मिलते हैं जिनके विषय में हम जानकर भी अनजान बने रहना चाहते हैं। इस संसार में रहने वाले हम मनुष्य ऐसे कृतघ्न हैं, जो सदा उनकी अवहेलना करते हैं, उन्हें अपने जीवन में उतारना ही नहीं चाहते। यदि उ
स्वस्थ रहने के लिए व्यायामजीवन में स्वस्थ रहने के लिए व्यायाम करना बहुत आवश्यक होता है। मानव शरीर प्रकृति की एक सुन्दर और परिपूर्ण रचना है।यह शरीर जितना चलता-फिरता रहता है, उतना ही स्वस्थ, मजबूत, और लचीला बना रहता है। इसीलिए आजकल जिम जाने का फैशन बढ़ता जा रहा है। वहाँ जाकर लोग वर्कआउट करते हैं। बहुत-
चोरों से सावधान'अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करो।' या 'जेबकतरों से सावधान।' घूमने-फिरने के स्थान, फिल्म हाल, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट आदि किसी भी स्थान पर चले जाओ वहाँ ये वाक्य लिखे रहते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि मनुष्य चाहे घर पर है अथवा घर से बाहर है, उसे चोर-डाकुओं से सावधान रहने की आवश्यकता होती
मेरा कुछ नहीमनुष्य को मेरा और तेरा आदि कुछ नहीं करना चाहिए। मनुष्य का इस संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह शरीर जिसे हर समय सजाता रहता है, वह भी तो उसका अपना नहीं है। जिस धन को कमाने के लिए अपना ऐशो आराम छोड़कर वह सारा समय पागल हुआ रहता है, वह भी उसके साथ अगले जन्म में नहीं जाता बल्कि इसी संसार मे रह
शिकायत पुराण हम इन्सानों को सदा ही हर दूसरे व्यक्ति से शिकायत रहती है। हर मनुष्य को लगता है कि उसके बराबर इस संसार में कोई और बुद्धिमान नहीं है ही नहीं। वह अपने सामने किसी को कुछ समझता ही नहीं। इसीलिए हर किसी में कमियाँ ढूंढ-ढूंढकर, उनका उपहास करके आत्मसन्तोष का अनुभव करता है। यदि उसमें दूसरों
समस्या के मूल में देखेंसमस्याएँ मनुष्य के नित्य प्रति के जीवन का एक अभिन्न अंग है। यदि जीवन में कोई समस्या न हो, तो वह नीरस हो जाता है। परन्तु समस्याएँ आने पर वह परेशान होने लगता है। उससे बाहर निकलने का उपाय सोचकर वह हलकान होता रहता है। कभी तो उसका हल निकल आता है, पर कभी उसके लिए माथापच्ची करनी पड़ती
दुष्ट से व्यवहारमाना यही जाता है कि बुरे व्यक्ति अथवा दुष्ट के साथ सहृदयता बरतनी चाहिए। उसे यथासम्भव सुधारने का प्रयास करना चाहिए। उसे सन्मार्ग दिखाया जाए तो वह शायद अपने बुराई के रास्ते को छोड़ सकता है और निस्सन्देह एक अच्छा इन्सान बनने का प्रयत्न सकता है। आज प्रायः लोग इस तर्क को न मानक
पिता के प्रसन्न होने पर देवता प्रसन्नपिता की महानता को वही मनुष्य समझ सकता है, जो सन्तान का पालन-पोषण करते हुए पिता की गई साधना को अनुभव करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सन्तान का पोषण करते समय पिता अपना सुख-चैन होम कर देता है। उसकी दुनिया। अपने बच्चों के इर्द-गिर्द घूमती है। उनकी सारी आवश्यकताओं क
दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलें मनुष्य के भाग्य में जो भी लिखा होता है वही उसे मिलता है। न उससे अधिक और न ही उससे कम। यह भाग्य हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मो के अनुसार बनता है। यदि पूर्व जन्मों में हमारे शुभकर्मों की अधिकता होती है, तो इस जन्म में सुख-सुविधा के सभी साधन उपलब्ध होते हैं। इसके विपरीत दुष्कर
जीवन की अवस्थाएँतीन अवस्थाएँ ऐसी हैं जो जन्म और मृत्यु के मध्य अनवरत चलती रहती हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। यानी जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति यह क्रम इस प्रकार चलता रहता है। जागता हुआ व्यक्ति जब शय्या पर सोता है, तो पहले स्वप्न अवस्था में चला जाता है। फिर उसकी नींद गहरी हो जाती है, तब वह सुषुप्ति
विद्वत्ता की कसौटीप्रत्येक मनुष्य की हार्दिक इच्छा होती है कि वह बुद्धिमान कहलाए। विद्वान उसकी बुद्धि का लौहा मानें। किसी सभा में यदि वह जाए तो उस विद्वत सभा में उसकी ही चर्चा हो। सभी उससे अपना सम्बन्ध बनाने के लिए इच्छुक रहें। अब हम विचार करते हैं कि विद्वत्ता की कसौटी क्या है? मनुष्य को
सरलता से जीवन यापनजन्म लिया है तो मनुष्य को जीवन यापन भी करना ही पड़ता है। उसके लिए उसे अनेक तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। सबसे पहले तो पढ़-लिखकर योग्य बनना पड़ता है। तब जाकर मनुष्य अच्छी नौकरी या व्यवसाय कर सकता है। जो बच्चे पढ़ने की आयु में मौज-मस्ती करते हैं, उन्हें उतनी अच्छी नौकरी नहीं मिल पाती। इनके
विनम्रता कमजोरी नहींमनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए विभिन्न प्रकार के आडम्बर करता रहता है। उसमें आन्तरिक विनम्रता सहज होती है और उसके संस्कारजन्य होती है। विनम्रता का यह गुण अहंकार से रहित होता है। दूसरों का आदर करना, शिष्टाचार का पालन करना, मधुर भाषण करना, लज्जा, संकोच, आज्ञाकारिता
संसर्ग का महत्त्वमनुष्य के जीवन में संसर्ग या संगति का बहुत महत्त्व होता है। जैसी संगति में मनुष्य रहता है, वह वैसा ही बन जाता है। उत्तम जनों की संगति में रहने वाले मनुष्य जीवन में उत्तम गुणों वाले बनते हैं। मध्यम श्रेणी के लोगों में रहने वाले लोगों में उत्तम तथा अधम दोनों ही लोगों के विचार रहते हैं
हिन्दी साहित्य से खिलवाड़हिन्दी साहित्य का दायित्व यदि प्रूफ रीडर सम्हालेंगे तो साहित्य का क्या होगा? यह प्रश्न बार-बार मन को मथ रहा है, उद्वेलित कर रहा है। यहाँ मैं किसी का नाम नहीं लिख रही। एक सुप्रसिद्ध रचनाकार का यह कथन है कि उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी पुस्तकों का संशोधन कार्य प
जिन्दगी की बैलेंसशीटहम सभी अपने व्यापर-व्यवसाय में अथवा जमा पूँजी यानि धन-संपत्ति का ब्यौरा रखते हैं। हर वर्ष की समाप्ति पर उसकी बैलेंसशीट तैयार करवाते हैं। उसका उद्देश्य यही होता है कि पूरा वर्ष हमने क्या कमाया और क्या खर्च किया। फिर उसी बची हुई राशि को हम आगामी वर्ष के लिए अपनी ओपनिंग स्टॉक बनाकर
अपनी उन्नति अपनी उन्नति चाहने वाले मनुष्यों को सदा लक्ष्मी, कीर्ति, विद्या और बुद्धि के विषय में चर्चा करते रहना चाहिए। निम्न श्लोक में कवि ने इनके विषय में बताया है कि ये किसका अनुसरण करती हैं- सत्यानुसारिणी लक्ष्मीः कीर्तिस्त्यागानुसारिणी। अभ्याससारिणी विद्या
प्रेम दुधारी तलवारप्रेम कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी से छीनकर प्राप्त किया जा सके। यह प्रेम न तो किसी को भेंट में दिया जा सकता है और न ही किसी को भिक्षा में दिया जा सकता है। जिसे माँगकर या जबरदस्ती छीनकर हासिल किया जाए, उसे प्रेम नहीं कहते। स्मरण रखने वाली बात है कि यह प्रेम किसी की भी जागीर नही
कठिन कार्य करनाअसम्भव-सा प्रतीत होने वाला कोई भी कार्य, सामर्थ्यवान के लिए बाएँ हाथ के खेल जैसा होता है। शक्तिशाली व्यक्ति किसी भी साहसिक कार्य को चुटकी बजाते ही सम्पन्न कर देता है। यह उसकी व्यवहार गत कुशलता का प्रमाण होता है। शक्ति का उपयोग वह परोपकार के लिए करता है, तब वह पूजनीय बन जाता है। उसके स
पिता आकाश से ऊँचामाँ की महिमा के विषय में शास्त्रों में, कवियों, मनीषियों और लेखकों के द्वारा आज तक बहुत लिखा जा चुका है। परन्तु पिता की महानता का वर्णन करने में इन सबने ही कृपणता का प्रदर्शन किया है। सन्तान के पालन-पोषण में यद्यपि पिता की भूमिका भी अहं होती है। शास्त्रों ने कहा है कि पिता आ
पति-पत्नी में विश्वासघर-परिवार का आधार पति और पत्नी दोनों ही होते हैं। इनके सम्बन्धों में परस्पर विश्वास और पारदर्शिता का होना बहुत ही आवश्यक होता है। जब तक ये दोनों एक-दूसरे के प्रति समर्पित भाव से रहते हैं, तब तक इनकी गृहस्थी की गाड़ी बहुत ही सुन्दर ढंग से चलती रहती है। यदि इनमें से एक भी मनमानी कर
माता-पिता हितचिन्तकइस असार संसार में असम्भव काम दो ही हैं - पहला है अपनी माता की ममता का मूल्य आँकना और दूसरा है पिता की क्षमता का अनुमान लगा सकना। आज की युवा पीढ़ी यह समझती है कि वह बड़ी हो रही हैं तो उसे समझदार कहलाने का लाइसेंस मिल गया है। परन्तु यह सोच तो किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराई जा
बहू-बेटी का दायित्वआज की युवा पीढ़ी में बहुत-सी ऐसी लड़कियाँ अपनेआस-पड़ौस में मिल जाती हैं, जो स्वार्थवश केवल अपने ही विषय में सोचती हैं। उनका विचार हैं कि उन्हें अच्छी नौकरी क्या मिल गई, वे सारी दुनिया पर अहसान कर रही हैं। जबकि उनकी यह सोच या भावना बिल्कुल गलत है। वे कमाती हैं, तो अपने लिए। घर के अन्य
लोकप्रियता की कामना लोकप्रियता की कामना हर व्यक्ति अपने जीवनकाल में करता है। लोकप्रिय होना व्यक्ति विशेष की महानता का प्रतीक होता है। हर व्यक्ति की यह हार्दिक इच्छा होती है कि समाज में उसका अपना एक स्थान हो। लोग उसे इज्जत भरी नजरों से देखें। जब भी उन्हें कोई समस्या हो, तब अपनी परेशानी की अवस्था मे
जीवन का शुक्लपक्ष और कृष्णपक्षप्रत्येक मनुष्य के जीवन में शुक्लपक्ष यानी उजला अंश और कृष्णपक्ष यानी काला अंश दोनों ही होते हैं। इन दोनों को मिलाकर ही किसी मनुष्य का सम्पूर्ण अस्तित्व बनता है। यदि मनुष्य के विषय में समग्र जानकारी प्राप्त करनी हो, तो उसके दोनों पक्षों पर विचार करना अनिवार्य होता है। अ
सभ्य समाज का कलंकसभ्य समाज के लिए यह बहुत बड़ा कलंक है कि यदि उसके आयुप्राप्त बुजुर्गों के लिए घर में स्थान न हो। वह घर-परिवार एक श्मशान की तरह है जहाँ उनके वृद्ध माता-पिता की सुरक्षा अथवा देखभाल नहीँ की जा सकती। माता-पिता अपना सारा जीवन बच्चों के लालन-पालन में व्यतीत कर देते हैं। उनकी ख़ुशी में
पिता-पुत्री का प्यारपुत्री या बेटी अपने पिता की बहुत लाडली होती है। पापा और बेटी का रिश्ता दुनिया का सबसे खूबसूरत रिश्ता होता है। हर पापा के लिए बेटी उसकी जिन्दगी होती है। हर बेटी के लिए उसका पापा उसके लिए दुनिया की सबसे बड़ी हिम्मत और मान होता है। जब तक उसके पापा जीवित रहते हैं, तब तक सब कुछ उसका अप
प्रेम गली अति संकरी प्रेम का मार्ग दुधारी तलवार पर चलने का नाम है। जहाँ चूक हुई वहीँ सब समाप्त हो जाता है। प्रेम एक ऐसी उच्च अवस्था होती है, जिसमें स्वयं को ही मिटा देना होता है। जब तक स्वयं को मिटा देने की भावना मनुष्य में न आ जाए, तब तक वह प्रेम की पराकाष्ठा को छू भी नहीं सकता। इसीलिए कहा है- प्
जीवन का अनुभवमनुष्य ज्यों ज्यों आयु में वृद्ध होता जाता है, त्यों त्यों उसके अनुभव में वृद्धि होती रहती है। उस समय वह अपनी आने वाली पीढ़ी को दिशा-निर्देश देने का कार्य कर सकता है। उसके अनुभवों से जो लोग लाभ उठा लेते हैं, वे दुनिया में सफल हो जाते हैं। जो लोग उनके अनुभवों से कुछ सीखने के स्थान पर उनका
मातृभूमि स्वर्गतुल्यहम भारतीयों के संस्कार में है कि अपनी जन्मभूमि को जन्मदात्री माता से कम नहीं मानते। इसकी मिट्टी से तिलक लगाकर रणबाँकुरे बिना परवाह किए अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं। इसके पीछे भावना मातृभूमि की सुरक्षा करने की होती है। क्या मजाल है कि शत्रु इसकी ओर आँख उठाकर भी देख ले।
आत्मनिरीक्षण आवश्यकमनुष्य को अपने जीवन में आत्मनिरीक्षण नित्य करते रहना चाहिए। प्रतिदिन उसे सोने से पूर्व दिनभर के कार्य कलाप पर दृष्टि डालनी चाहिए। तभी उसे ज्ञात हो पाता है कि इस दिन उसने कौन-से अच्छे कार्य किए और कौन-से अकरणीय कार्य किए। कितने लोगों का उसने दिल दुखाया और कितने लोगों की उसने सहायत
सत्यवादी का वचन ब्रह्मवाक्यकिसी की आँख में आँख डालकर बात करना बड़े जीवट का काम है। ऐसा वही मनुष्य कर सकता है, जो किसी से भी न डरता हो। यह तभी सम्भव हो सकता है, जब मनुष्य का मनोबल उच्च हो और उसके पास आत्मिक बल हो। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आत्मिक बल उसी व्यक्ति के पास हो सकता है, जिसके साथ सच्चाई और ईम
जीवन एक हवन कुण्डसंसार एक विशाल हवन कुण्ड के समान है। जिसमें यह हवन 24×7 यानी निरन्तर होता ही रहता है। इसमें सब कुछ होम हो जाना होता है। सभी लोग अपने घरों में किसी न किसी अवसर पर यज्ञ या हवन करवाते रहते हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि हवन करने के लिए बहुत-सी सामग्री और शुद्ध घी की आवश्यकता होती है।
जगत में पूर्णसंसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसे हम पूर्ण कह सकें क्योंकि उसमेँ अच्छाई और बुराई दोनों का ही समावेश होता है। इसीलिए कभी वह गलतियाँ या अपराध कर बैठता है, तो कभी महान कार्य करके अमर हो जाता है। यानी कि उसमें हमेशा स्थायित्व की कमी रहती है। यदि वह पूर्ण हो जाए, तो भगवान ही बन जाएगा
ईश्वर को क्या भेंट देंईश्वर की पूजा करके, उसे भेंट में क्या दिया जाए? यह सबसे बड़ी समस्या है, जिस पर विचार करना आवश्यक है। इसका कारण है कि जो भी धन-दौलत और वैभव हमारे पास विद्यमान है, वह सब तो ईश्वर का ही दिया हुआ। वह मालिक हम सभी मनुष्यों को झोलियाँ भर-भरकर देता है। अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि
व्यक्ति की पहचानमनुष्य को स्वयं बताने की आवश्यकता नहीं होती कि वह बहुत अच्छा इन्सान है। आओ और उसकी उसकी अच्छाई देख लो। उसकी अच्छाई या उसके सद् गुण कभी-न-कभी दूसरों के सामने प्रकट हो ही जाती है। समय अवश्य लगता है पर एक दिन वह अपना प्रभाव दिखा ही देती है। इसके लिए मनुष्य को धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करन
आश्चर्य की बातसंसार में अनेक आश्चर्यजनक प्रतिदिन घटनाएँ घटती रहती हैं। जिन्हें देखकर और सुनकर लोग उन्हें अनदेखा और अनसुना कर देते हैं। उस समय मनुष्य यही सोचता है कि उसके साथ तो अमुक घटना नहीं घटी। वह इसलिए निश्चिन्त होकर रह जाता है। इसी कड़ी में एक जीवन सत्य की आज चर्चा करते हैं। अपने आसपास नित्य प्र
मूड के गुलाम हममानव मन उसे बड़े ही नाच नचाता है। यह सदा आगे-ही-आगे भागता रहता है। इसकी गति बहुत तीव्र होती है। मनुष्य देखता ही रह जाता है और यह पलक झपकते ही पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाकर वापिस लौट आता है। इससे पार पाना बहुत ही कठिन होता है। यह चाहे तो मनुष्य को सफलता की ऊँचाइयों पर पहुँचा सकता है और
मोक्ष का अधिकारीविषय वासनाओं में जकड़ा मनुष्य सदा दुख ही प्राप्त करता है। विषय भोग सीमित समय के लिए उसे सुख दे सकते हैं, हमेशा के लिए नहीं। उनसे मनुष्य का मन कभी नहीं भरता। इसलिए मनुष्य बार-बार इन विषयों का आस्वादन करना चाहता है। जितना इन भोगों में फँसाता जाता है, वह उतना ही उस ईश्वर से दूर होता जाता
एकान्तवासएकान्तवास यदि स्वैच्छिक हो तो मनुष्य के लिए सुखदायी होता है। इसके विपरीत यदि मजबूरी में अपनाया गया हो तो वह बहुत कष्टदायक होता है। प्राचीनकाल में ऐसी परिपाटी थी कि जब घर-परिवार के दायित्वों को मनुष्य पूर्ण कर लेता था, यानी अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर योग्य बना देता था और बच्चों का कै
मन का खालीपनबहुधा ऐसा होता है कि मनुष्य का मन बिना किसी कारण के परेशान हो जाता है। उस समय मनुष्य को लगता है कि वह संसार का सबसे अधिक दुखी प्राणी है। इसे दूसरे शब्दों में कहें, तो मनुष्य के मन में एक तरह का खालीपन समा जाता है। एक ही जैसा बोरियत वाला काम करते हुए मनुष्य उकता जाता है या ऊब जाता है। उस
प्रियजन को विदा करनाअपने किसी प्रियजन को जब इस असार संसार से विदा करना पड़ता है तब मन उस अकथनीय पीड़ा से विदीर्ण होने लगता है। यह दुख सहन करना बहुत ही कठिन होता है। जैसे किसी भी कारण से शाखा से टूटा हुआ फूल वापिस उसी टहनी पर नहीं लगाया जा सकता, उसी प्रकार इस दुनिया से विदा हुए मनुष्य को पुनः लौटाकर उस
छोटी-छोटी बचतभारतीय संस्कृति केवल इस जन्म को नहीं अपितु जन्म-जन्मान्तरों के सम्बन्ध को मानती है। इसलिए लेन-देन के व्यवहार में यहाँ सदा पारदर्शिता वरती जाती है। मनीषी ऐसा मानते हैं कि इस जन्म का लिया हुआ यदि चुकता न किया जाए अथवा आपसी के लिए व्यवहार में बेईमानी की जाए तो अगले जन्म में उसका कई गुणा अध
इन्सानियत पर अविश्वासइन्सानियत से दिन-प्रतिदिन मनुष्य का विश्वास उठता जा रहा है। संसार में प्रायः लोग अपना हित साधने में ही व्यस्त रहते हैं। इसलिए आज वे सवेदना शून्य होते जा रहे हैं। उनकी यह प्रवृत्ति निस्सन्देह चिन्ता का विषय बनती जा रही है। माना जाता है कि जिस व्यक्ति में संवेदना नहीं है वह मृतप
दुनिया का मेलाईश्वर की बनाई हुई यह सृष्टि बहुत खूबसूरत है। यहाँ चारों ओर चहल-पहल दिखाई देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ न समाप्त होने वाला कोई मेला लगा हुआ है। लोग इधर-उधर रंग-बिरंगे वस्त्र पहनकर अपनी मस्ती में चले जा रहे हैं। कहीं झूले सजे हुए हैं, कहीं बच्चे पशुओं की सवारी का आनन्द ले रहे हैं।
दूसरों को हँसानाकिसी व्यक्ति के हँसते-मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर यह अनुमान लगाना कदापि उचित नहीं है कि उसे अपने जीवन में कोई गम नहीं है। अपितु यह सोचना अधिक समीचीन होता है कि उसमें सहन करने की शक्ति दूसरों से कुछ अधिक है। पता नहीं अपनी कितनी मजबूरियों और परेशानियों को अपने सीने में छुपाकर
स्वार्थ से ऊपर उठोअपना पेट तो सभी जीव-जन्तु भर लेते हैं। तारीफ उसी में है कि मनुष्य अपने पेट को भरने के साथ-साथ दूसरों के विषय में भी सोचे। यदि मनुष्य केवल अपने ही विषय में सोचेगा तो उसमें और अन्य पशुओं में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके पड़ौस में कोई भी व्यक्ति भूखा न स
माँ के रूप में ईश्वर की उपासनापरमपिता परमात्मा की उपासना हर व्यक्ति अपनी तरह से करता है। मेरा यह मानना है कि ईश्वर के किसी रूप की उपासना यदि माँ के रूप में की जाए, तो अधिक उपयुक्त होगा। माँ से बढ़कर और कौन है जो सन्तान के विषय में उससे अधिक भली-भाँति समझता है। इसलिए यदि मनुष्य परमेश्वर से अपनी निकटता
त्रिगुणात्मक सृष्टियह सृष्टि त्रिगुणात्मक है, जो तीन गुणों अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण पर आधरित है। इस सम्पूर्ण सृष्टि में कोई भी तत्व ऐसा नहीं है, जो इन त्रिगुण तत्वों से परे हो। ये तीनों गुण इस संसार के समस्त प्राणियों में विद्यमान रहते हैं। मनुष्य शरीरधारी जीवात्मा को छोड़कर किसी और प्रकार के
प्रैशर से खो रहा बचपनछोटे-छोटे बच्चों पर भी आज प्रैशर बहुत बढ़ता जा रहा है। उनका बचपन तो मानो खो सा गया है। जिस आयु में उन्हें घर-परिवार के लाड-प्यार की आवश्यकता होती है, जो समय उनके मान-मुनव्वल करने का होता है, उस आयु में उन्हें स्कूल में धकेल दिया जाता है। अपने आसपास देखते हैं कि इसलिए कुकु
मुखौटानुमा जिन्दगीमनुष्य ने अपने व्यक्तित्व को कछुए की तरह अपने खोल में समेट लिया है। यानी मनुष्य जैसा भीतर हैं, वैसा बाहर से दिखाई नहीं देता। वह अपने व्यक्तित्व को के पर्दों में छुपा लेना चाहता है, जो बहुत गलत बात हैं। सब कुछ जानते-बुझते हुए खुद को आवरण में ढक लेना उचित नहीं कहा जा सकता। दूसरे शब्द
ईश्वर का स्मरणअपने दुखों, कष्टों और परेशानियों से मुक्ति पाने के लिए ही मनुष्य को भगवान याद आते हैं। अपनी पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए हर इन्सान ईश्वर को याद करने लगता है। यदि सुख में प्रभु को याद किया जाए तो मनुष्य के पास दुख नहीं आता। यानी उसमें दुखों से लड़ने, उनसे मुक्ति पाने की सामर्थ्य मिल जाती
सुखी रहने का रहस्यसुखी रहना या खुश रहना हर मनुष्य चाहता है। कोई भी इन्सान दुखों और परेशानियों में घिरकर अपना जीवन बर्बाद नहीं करना चाहता। खुश रहने का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि दुखों के बोझ की गठरी को जितनी जल्दी हो सके उतारकर फेंक दे। जितना अधिक समय तक मनुष्य उस बोझ को उठाए रखेगा उतना ही ज्यादा दु:खी
खिलौना लेकर सोते बच्चेआधुनिकीकरण के कारण आज के एकल परिवारों में प्रायः बच्चों को कोई न कोई खिलौना या स्टफ टॉय यानी टेडी बियर या कोई गुड़िया आदि लेकर सोने की आदत हो जाती है। माता-पिता अपने बच्चों के लिए घर में एक सुन्दर-सा डिजाइनर बेडरूम बनवा देते हैं। उसमें उनकी आवश्यकता का सारा सामान रखवा देते हैं,
मन का संयममन को ध्यान के द्वारा एकाग्र किया जा सकता है। यद्यपि यह कार्य इतना सरल है नहीं, जितना कहने-सुनने में लगता है। एक ही बिन्दु, एक वस्तु या एक स्थान पर मन की वृत्ति को लगाया जा सकता है। ध्यान को धारणा के द्वारा पूर्ण किया जा सकता है। इससे मन की सजगता को शून्यता की ओर लेकर जाने में सफलता प्राप्
भाग्य का बैंक अकाऊंटबैंक में यदि हम अपना पैसा जमा करवाते हैं, तभी आवश्यकता पड़ने पर वहाँ से निकाल सकते हैँ। उस पैसे से हम अपनी जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। इसी प्रकार अपने पुण्य कर्मो की पूँजी को यदि भाग्य के खाते में जमा कराएँगे तभी अगले जन्म में उसे कैश करवा सकेंगे। बैंक में जमा करवाए ह
सन्तुष्ट मनमन का सन्तुष्ट होना बहुत आवश्यक होता है अन्यथा यह बहुत ही परेशान करता है, नाच नचाता है। सबसे बड़ी समस्या यही है कि यह बहुत कठिनता से सन्तुष्ट होता है। सारा समय यह स्वयं इधर-उधर भटकता रहता है और मनुष्य को भी चैन से बैठने नहीं देता। यह उसे बस किसी न किसी कारण से उद्वेलित करता रहता है। मन यदि
सफलता की कामनाजीवन की रेस में सफलता प्राप्ति के लिए हर मनुष्य अपने हाथ-पैर मारता है। उसके बाद भी यदि ऐसा लगे कि पास आती हुई सफलता रूठकर कहीं दूर चली जा रही है और हाथ नहीं आ रही तब उसे अपने प्रयासों में परिवर्तन लाने की आवश्यकता होती है। भाग्य पर अन्धविश्वास न करके अपने उद्देश्यों को मजबूत
अपना अपना दृष्टिकोणहर मनुष्य का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है। इसी प्रकार सुन्दरता के भी सबके पैमाने अलग-अलग हैं। यह आवश्यक नहीं कि एज व्यक्ति की नजर में जो सुन्दर है, वह दूसरे को भी उतना ही आकर्षित कर सके। केवल गौरा रंग सुन्दरता का कारण है, ऐसा नहीं है। काले रंग का व्यक्ति सुन्दर नहीं हो सकता, ऐसा
प्रकृति में संतुलनप्रकृति में संतुलन ईश्वर स्वयं बनाकर रखता है। उसे किसी के परामर्श अथवा सहायता की आवश्यकता नहीं होती। उसकी इस सुन्दर रचना में यानि सृष्टि में कहीं कोई कमी नहीं है। परमात्मा ने ब्रह्माण्ड में जीवों को भेजते समय एक लाइफ साईकिल का निर्धारण किया है। जीव उत्त्पन्न होगा, फिर बड़ा
सन्तुलन का अभावमनुष्य के जीवन में सन्तुलन का होना बहुत आवश्यक होता है। यदि उसमें सन्तुलन का अभाव होगा, तब उसका जीवन बिखरने लगता है। कदम-कदम पर उसे सामञ्जस्य बिठाने की आवश्यकता होती है। चाहे घर या परिवार हो, चाहे कार्यक्षेत्र हो अथवा कोई सभा-सोसाइटी हो, हर स्थान पर उसे सन्तुलन रखना पड़ता है। जो व्यक्त
वृद्ध मनुष्य कौन?आयु में वृद्ध होने से कोई भी मनुष्य बड़ा नहीं कहलाता। उसका अपना व्यवहार जो वह दूसरों के प्रति करता है, उसे छोटा या बड़ा बनाते हैं। बड़ा वही कहलाता है जो अपनी विद्वत्ता और अपने अनुभवजन्य ज्ञान का उपयोग देश, धर्म और समाज की भलाई के लिए करे। बड़प्पन उसी मनुष्य का माना जाता है जो अ
सुख के हजार कारणप्रसन्न रहना चाहे तो मनुष्य किसी भी तरह खुश होने का कारण खोज लेता है। वह दिन-प्रतिदिन की छोटी-छोटी घटनाओं से ही स्वयं को खुश रख सकता है। प्रातः दिन आरम्भ होता है और उसका अन्त रात्रि से होता है। इस बीच वह अनेकानेक कार्य कलाप करता है। उन्हीं कार्यों को करते हुए आनन्द के पलों को मनुष्यअ
ईश्वर को एस. एम.एस.संसार के आकर्षण इतने अधिक हैं कि उस ईश्वर की उपासना करने में मन रमता ही नहीं है। प्रायः सभी लोगों की यही समस्या है। इन्सान केवल ऐशो-आराम में मस्त रहना चाहता है। उसका ध्यान मालिक की ओर जाता ही नहीं जिसने इस संसार में उसे भेजा है। ईश्वर की उपासना करना सबसे कठिन कार्य है। यह म
शयन की विधिशास्त्रों ने मनुष्य जीवन को सुचारू रूप से चलने के लिए, उसे अनुशासित करने का प्रयास किया है। इसीलिए आहार-विहार, सोने-जागने आदि के लिए कुछ नया बनाए हैं। उनके अनुसार यदि जीवन जीने की आदत बन ली जाए, तो मनुष्य बहुत-सी बीमारियों से बच सकता है। आज हम शयन यानी सोने के बारे में चर्चा करेंगे। इस वि
आनन्द की अनुभूतिआनन्द कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे हम देख-परख सकें या ठोक-बजाकर बाजार से खरीदकर ला सकें। यह एक अनुभूति है, एक अहसास है, जिसे हम गूँगे के द्वारा खाए गए गुड़ की तरह केवल अनुभव कर सकते हैं। परन्तु उसका वर्णन अपनी जबान से कर पाना किसी के लिए कर पाना सम्भव नहीं होता। आनन्द की अनुभूति हमा
जीवन की उलझनेंधागे चाहे ऊन के हों या रेशम के अथवा फिर कोई और, सब उलझ जाते हैं। इसी प्रकार मनुष्य भी अपने जीवन में किसी न किसी उलझन में उलझा रहता है। धागों की भाँति वह उन्हें भी सुलझाने में लगा रहता है। एक सीमा तक उन्हें सुलझा भी लेता है, फिर कुछ समय पश्चात उसे कोई अन्य उलझन घेर लेती है। यह मनुष्य जी
सेर को सवा सेरमनीषियों का कथन है कि हम जो कुछ भी दूसरो को देते हैं, वही सब लौटकर हमारे पास ही वापिस आ जाता है। वह चाहे मान-सन्मान हो अथवा धोखा। दूसरे शब्दों में यदि हम बबूल का पेड़ बोएँगे तो उससे कभी आम का स्वादिष्ट फल नहीं प्राप्त कर सकते। बबूल के वृक्ष से तो आम के फल की कल्पना करना मूर्खता के अतिरि
तनाव से मुक्तितनाव मनुष्य के जीवन को बहुत प्रभावित करता है। यह उसके तन और मन को अपने कब्जे में कर लेता है। जब यह बहुत अधिक बढ़ जाता है, तो मनुष्य अवसाद में आ जाता है। तब मनुष्य आत्महत्या जैसे आत्मघाती कदम उठा लेता है। यह सच है कि नई पीढ़ी पर इसका जोरदार हमला हो चुका है। इसका कारण उनके कार्यक्षेत्र मे
चेहरा मनुष्य का आईनाहमारे अन्तस में जो कुछ होता है उसी की प्रतिच्छाया हमारे चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देती है और हमारे हाव-भाव फिर उसे और मूरत रूप दे देते हैं। कहते हैं- face is the index of mind. विद्वान यदि ऐसा कहते हैं तो इसमें सार अवश्य ही होगा। हमारे मन के भाव चेहरे पर आते हैं, इसका अनुभव हम
सुख-दुख का खेलसुख और दुख मनुष्य की दो भुजाओं की भाँति हैं, जिनमें से एक आगे बढ़ती है, तो दूसरी पीछे रहती है। यानी कभी दुख आगे बढ़कर मनुष्य को सताता है, रुलाता है और डराता है। कभी सुख आगे आकर मनुष्य को आशा देता है और हँसाता है। इस तरह दुख और सुख का यह खेल अनवरत ही चलता रहता है। मनुष्य चाहकर भी सुख और द
बच्चों जैसी निश्छल हँसी बच्चों जैसी निश्छल हँसी हर किसी का मन मोह लेती है। जहाँ उसमें कुटिलता का भाव आया, वहीँ वह मात्र औपचारिकता रह जाती है। कुटिल हँसी हँसने वाले लोग न विश्वसनीय होते हैं और न ही किसी के हितचिन्तक। सयानों का कहना है कि दिन में एक बार जोर से खिलखिलाकर अवश्य ही हँसना चाहिए
दृष्टिकोण की भिन्नताप्रत्येक मनुष्य का अपना एक दृष्टिकोण या हर वस्तु को देखने का एक नजरिया होता है। प्रायः देखा यह जाता है कि समान वातावरण, परिस्थिति और अनुशासन में रहते हुए भी हर व्यक्ति के विचार तथा कार्य करने की प्रणाली में अन्तर बना रहता है। यह अन्तर उस व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण को प्रदर्शित कर
निन्यानवे का फेर निन्यानवे का फेर बहुत परेशान करता है। इसके फेर से न तो कोई आज तक बच पाया है और भविष्य में भी शायद ही कोई इससे बच सकेगा। आखिर यह निन्यानवे का फेर है क्या? क्यों यह सबके दुःख का कारण बनता है? इससे बच पाना मनुष्य के लिए असम्भव क्यों है? ये कुछ प्रश्न हैं जिनकी हम विवेचना
मोक्ष प्राप्ति का प्रयासजब तक मनुष्य स्वयं प्रयास नहीं करता, वह अपनी मनचाही सफलता कदापि नहीं प्राप्त कर सकता। फिर चाहे मनुष्य की इहलौकिक कामना पूर्ति की चाहत हो या फिर पारलौकिक कामना की बात हो। वास्तव में जीवन की सच्चाई भी यही है कि जब तक इन्सान अपने हाथ-पैर नहीं चलाता, तब तक उसे बैठे-बिठाए कुछ भी न
मनुष्यों का वर्गीकरणपरमपिता परमात्मा की इस सुन्दर सृष्टि में विभिन्न प्रकार के लोग हैं। ईश्वर के प्रति उनके कैसे भाव हैं, इसे आधार बनाकर यदि उनका वर्गीकरण किया जाए तो उन लोगों को हम तीन श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं। यानि इस संसार में तीन तरह के लोग होते हैं। प्रथम श्रेणी में वे लोग आत
घर सराय नहींघर शब्द सुनते ही मन में एक कल्पना जन्म लेती है कि यह वह सुन्दर स्थान है, जहाँ पर माता-पिता तथा उनके बच्चे प्रसन्नता से रहते हैं। वहाँ होने वाली चहल-पहल से घर गुंजायमान रहता है। बच्चे माता-पिता से अपनी फरमाइशें रखते हैं और वे उन्हें जी जान से पूरा करते हैं। बच्चों का उनके साथ रूठने-मनाने
तीन प्रकार के मनुष्यउपचार पद्धतियों की तरह मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं। इस विषय पर कुछ दिन पूर्व पढ़ा था कि किसी महानुभाव ने इस दुनिया में तीन तरह के लोगों का उल्लेख किया था। उनका मानना है कि पहले आयुर्वैदिक प्रकार के लोग होते हैं जो बोलचाल में बढ़िया होते हैं लेकिन इमरजेंसी में काम नहीं आते। दूसरे
संस्कार सबसे बड़ी दौलतसंस्कार से बढ़कर कोई भी और दौलत इस संसार में नहीं हो सकती। जिन लोगों में संस्कार एवं सदाचरण की कमी होती हैं, वे लोग ही दूसरे को अपने घर पर बुलाकर अपमानित करने का यत्न करते हैं। हमारी भारतीय संस्कृति हमें यही शिक्षा देती है कि अतिथि को देवता मानते हुए उसका सदा सम्मान करो।
कर्मफल का खेलसंसार कर्मों की मण्डी है। इस संसार को हम कर्म प्रधान कह सकते हैं। यानी मनुष्य जैसे कर्म करता है, तदनुरूप ही वह फल पाता है। इसीलिए हमारे सभी ग्रन्थ कर्मों की शुचिता पर बल देते हैं। चाहे रामचरित मानस हो या गीता हो, दोनों में ही कर्म को प्रधान बताया गया है। यह सत्य है कि कर्म करने के लिए ह
किराए का शरीर हमें यह शरीर कुछ सीमित समय के लिए मानो ईश्वर की और से किराए पर दिया गया है। इसका यह अर्थ हुआ कि यह शरीर हमेशा के लिए जीव को नहीं मिला है। यदि ऐसा होता तो सृष्टि के आदी से अब तक वही शरीर जीव को मिला रहता, पर ऐसा नहीं है। थोड़े-थोड़े समय पश्चात जीव को मिला हुआ शरीर बदल जाता है, जैसे किराए
मन की दूरीदिल मिलने की बात बड़ी होती है, समय या स्थान की दूरी मनुष्य के लिए कोई मायने नहीं रखती। अपना प्रियजन कहीं भी रहता हो, वह सदा मनुष्य के हृदय में निवास करता है, मानो वह आसपास ही होता है। इसके विपरीत जिस बन्धु-बान्धव से मनुष्य के मन जुड़ाव न हो और उससे सम्बन्ध न के बराबर हों, तो वह पड़ोस में रह
पूर्वजन्म कृत कर्मों का खेलसभी मनुष्य अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार लेन देन का भुगतान करते हैं। हर मनुष्य अपने जीवन में स्वर्ग को पाने की कामना करता है। आधुनिक वैज्ञानिक युग में गलत पासवर्ड डाल देने से एक छोटा-सा मोबाइल नहीं खुल सकता, तो फिर गलत कर्मो को करते रहने से स्वर्गं के दरवाजे कैसे खुल
पैर से छूना वर्जितभारतीय संस्कृति मानवीय मूल्यों की थाती है। वह पग-पग पर मनुष्य को अनुशासित करती है। हमारी संस्कृति जीवन मूल्यों को अपनाने पर बल देती है। यही कारण है कि विश्व की प्राचीनतम भरतीय संस्कृति अपने अमूल्य संस्कारों की बदौलत आज तक बची हुई है। यह कदम-कदम पर मनुष्य को ठोकर खाने से बचाने का प्
पति-पत्नी का रिश्ता युवक और युवती जब वयस्क हो जाते हैं, तब योग्य बनकर अपने पैरों पर खड़े होते हैं, उस समय वे घर-परिवार के दायित्वों को बखूबी सम्हालने के योग्य बन जाते हैं। उनके माता-पिता उन दोनों को विवाह के बन्धन में बाँधना चाहते हैं। तब वे अपने सुपुत्र अथवा सुपुत्री के लिए योग्य वर या वधु की खोज
बुरा करने वाले से व्यवहारअपने साथ बुरा करने वाले इन्सान से जब तक मनुष्य बदला नहीं ले लेता, उसके कलेजे में ठण्डक नहीं पड़ती। वह इस बात को पचा ही नहीं पता कि अमुक व्यक्ति ने उसका अहित क्यों और किसलिए किया? वह सोचता है कि उसने तो उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ा था। सब लोगों से अपनी सफाई देते हुए वह कहता फिरता ह
ईश्वर से मोबाइल पर चर्चामोबाइल संस्कृति आज की नई खोज है। हम सभी इसमें जी रहे हैं। इसलिए प्रायः लोगों के पास दो या तीन मोबाइल हैं। एक या दो साल के बच्चे जो अभी ठीक से बोल भी नहीं पाते, उन्हें भी आज मोबाइल चाहिए होता है। उनके हाथ से यदि जबरदस्ती या उनकी इच्छा के विरुद्ध मोबाइल ले लिया जाए तो वे आसमान
अपनों से बिछोहअपने प्रियजन से बिछोह या वियोग हृदय की गहराई तक विदीर्ण कर देता है। अपनों का साथ एक सुखद अहसास करवाता है। उनसे बिछुड़ जाने की कल्पना मात्र से जी हलकान होने लगता है। मनुष्य को अपना परिवार, अपने बन्धु-बान्धव अपनी जान से भी प्यारे होते हैं। वह उनसे कुछ दिन की दूरी बनाने से ही परेशान हो जात
अनाधिकार चेष्टाजीवन में जो कुछ भी मनुष्य को प्राप्त होता है, उस पर वह अपना हक समझने की भूल करने लगता है। उसे यह भी स्मरण नहीं रहता कि जो कुछ भी उसे मिल रहा है, वह उसका हकदार हैं भी या नहीं। हर वस्तु पर वह अनाधिकार हक जमाने की चेष्टा करता है। उसके कुछ दायित्व भी होते हैं, इस विषय की ओर वह कान भी नहीं
विश्व बन्धुत्व की भावनाभारतीय संस्कृति विश्व बन्धुत्व में विश्वास रखती है। इसका अर्थ यही है कि सारा विश्व अपना घर है। यही भारतीय संस्कृति की विशेषता है। संसार के सभी लोग हमारे अपने बन्धुजनों के समान हैं। किसी से कोई वैर नहीं और किसी से कोई द्वेष नहीं। भारत में जो भी प्रार्थना ऋषियों द्वारा की जाती
खुशियों और धन को सम्हालेंमनुष्य को अपनी खुशियों और धन को सदा सम्हालकर रखना चाहिए। खुशियों के पल बहुत काम समय के लिए जीवन में आते हैं। इन्हें सहेजकर रखना चाहिए, किसी भी मूल्य पर अपने हाथ से इन्हें गँवाना नहीं चाहिए। मनुष्य को अपने व्यवहार और अपनी सोच पर नियन्त्रण रखना चाहिए। यदि कोई उसकी सत्ता को न म
मृत्यु मनुष्य का मित्रमनुष्य के जन्म लेने से लेकर इस संसार से विदा लेने तक मृत्यु सदा उसके साथ रहती है। वह मनुष्य का साथ पल भर के लिए भी नहीं छोड़ती। वह एक मित्र की तरह सदा उसके साथ-साथ चलती है यानी मृत्यु का साया सदैव मनुष्य के साथ ही रहता है या उसके ऊपर मँडराता रहता है। यह सत्य है कि चाहकर भी इससे
परिवार सुरक्षा कवचकुछ दशक पूर्व हमारे भारत देश में जब संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलन में थी तब घर-परिवार के सब लोग मिल-जुलकर रहते थे। सबके सुख-दुःख साझा होते थे और आपसी सौहार्द और भाईचारे के चलते वे सरलता से कट जाया करते थे। इसी प्रकार शादी-ब्याह आदि सभी शुभकार्य और त्यौहार भी भरपूर मस्ती से, आनन्द
वृद्धावस्था की विडम्बनावृद्धावस्था के आने से पूर्व ही मनुष्य को अपने बुढ़ापे के विषय में सोचना आरम्भ कर देना चाहिए। मनुष्य को प्रयास यही करना चाहिए कि वृद्धावस्था में उसके पास सिर पर छत और इतना धन हो कि उसे किसी के आगे उसे हाथ न फैलाने पड़ें और न ही किसी से अपमानित होना पड़े। जिन लोगों को पेंशन मिलती
जीवन शतरंज का खेल जीवन शतरंज के खेल की तरह है। निश्चित मानिए कि यह खेल आप ईश्वर के साथ ही खेलते रहते हैं। मनुष्य की हर सही या गलत चाल के बाद ही वह मालिक अपनी अगली चाल चलता है। अब देखना यह होता है कि मनुष्य की चली गई चाल के बदले में चली उस प्रभु की चाल से उसे कितनी हानि होती है अथवा कितना लाभ होता
घर में झगड़े का कारणघर के सभी सदस्यों में कभी न कभी किसी बात को लेकर मनमुटाव हो जाता है। फिर यही झगड़े का कारण बन जाता है। वैसे तो प्रत्येक मनुष्य ऐसे घर की कल्पना करता है, जहाँ सभी परिवारी जन मिल-जुलकर परस्पर प्रेम से रहते हैं। बड़े छोटों के सिर पर अपना वरद हस्त रखते हैं और छोटे बड़ों की आज्ञा का पालन
गुणग्राही मनुष्य गुणग्राही होना मनुष्य का स्वभाव होता है। आपने अन्तस में सद् गुणों का समावेश करते हुए, वह गुणों का पारखी बन जाता है। उसे लोग हंस की तरह नीरक्षीर विवेकी मानने लगते हैं। विश्व के अन्य जीव-जन्तुओं से यही गुण उसकी एक अलग पहचान बनाते हैं। रामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था, "मक्खियाँ द
असहायों की सेवाकिसी दिन-दुखी का सहायक बनना बहुत ही पुण्य का कार्य होता है। स्वार्थवश तो लोग एक-दूर से जुड़ते हैं, परन्तु बिना किसी स्वार्थ के रोगियों, असहायों और अनाथों की सहायता करना, वास्तव में एक महान कार्य कहलाता है। यदि समाज के इस वञ्चित वर्ग को ठुकरा दिया जाएगा, तो फिर कौन इनकी सुध लेगा? कौन इन
समय का फेरसमय किसी के बाँधने से थम नहीं जाता। वह तो अपनी गति से निरन्तर प्रवहमान है। कहते हैं कि महाबली रावण ने अपने समय में काल को अपने सिरहाने बाँध रखा था। फिर भी काल ने उसका पक्ष नहीं लिया और न ही उसे बक्शा। समय किसी को क्षमा नहीं करता, चाहे वह व्यक्ति स्वयं को कितना भी शक्तिशाली समझने की क्यों न
चुगलखोर आँसूखुशी का समय हो अथवा दुख से परेशानी हो, ये आँसू बिना कहे मनुष्य की आँखों से अनायास ही बहने लगते हैं। हर मनुष्य के जीवन में कुछ उत्तेजित करने वाली चीजें या घटनाएँ होती है, जो उसे यदा कदा रुला देती हैं। मनुष्य को किस कारण से रोना आता है, इसके उत्तर बहुत अलग-अलग हो सकते हैं। रोने के उदगम के
रिश्तों की पूँजीरिश्ते मनुष्य की धन-सम्पत्ति की तरह बहुत ही मूल्यवान होते हैं। उन्हें यत्नपूर्वक सहेजकर रखना पड़ता है। धन को यदि बैंक में जमा करवा दो तो वह बढ़ता रहता है। उसी प्रकार रिश्तों की जमा पूँजी भी तभी बढ़ती है, जब मनुष्य उनकी कद्र करता है, उन सबके साथ वह समानता का व्यवहार करता है और उन्हें यथो
कार्य की सफलताअपना कोई भी नया कार्य आरम्भ करते समय मनुष्य को बहुत सावधान रहना चाहिए। पहले उसे भली भाँति विचार करके एक योजना बना लेनी चाहिए। उसके उपरान्त उसका क्रियान्वयन करना चाहिए। जब तक कार्य को व्यवहार में न लाया जाए, तब तक उसे अपने रहस्य को किसी के भी समक्ष प्रकट नहीं करना चाहिए। गुपचुप तरीके से
बच्चे कच्ची मिट्टी के समानबच्चे कच्ची मिट्टी के समान होते हैं। जिस प्रकार कच्ची मिट्टी से कुम्हार मनचाहा आकर देता हुआ विभिन्न पात्र बना लेता है, उसी प्रकार एक छोटे बच्चे को माता-पिता जिस भी साँचे में चाहें ढाल सकते हैं। जैसा भी आकार देना चाहते हैं, वैसा दे सकते हैं। जिस तरह एक चावल से ही सारे चावल
जन्म सफलपरिवर्तन शील है यह संसार असार। इस संसार को मरणधर्मा भी कहते हैं। इसका अर्थ है कि जिस जीव का जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित होती है। कोई भी यहाँ सदा के लिए नहीं आता। अपने कर्मानुसार प्राप्त जीवन को भोगकर उसे इस संसार से विदा लेनी पड़ती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि जीव का यहाँ पुनर्जन्म
न्याय-अन्याय का चक्रइतिहास की ओर दृष्टि डालें तो आज तक कोई भी युग ऐसा नहीं हुआ जिसमें न्याय-अन्याय न हुआ हो और आगे आने वाले समय में भी शायद इस अभिशाप से बचा जा सके। इसका कारण है परस्पर अहंकार का टकराव। रामायण काल में भगवान श्रीराम का अगले दिन होने वाला राज्यतिलक सहसा वनवास में बदल जाना कैकेय
पिता-पुत्र का सम्बन्धपिता और पुत्र का रिश्ता इस संसार में बहुत गहन होता है। पिता अपने संस्कारों की थाती अपने पुत्र को सौंपता है। पुत्र उन्हें आत्मसात कर लेता है। पुत्र की हर इच्छा को पूरा करना पिता का दायित्व होता है। वह अपने मुँह का निवाला निकालकर पुत्र को देने में नहीं हिचकिचाता। हर पिता अपने पुत्
मनुष्य का आभूषण सुसंस्कृत वाणी ही मनुष्य का वास्तविक आभूषण होती है। यदि बोलते समय ध्यान न रखा जाए अथवा अभद्र भाषा का प्रयोग किया जाए या गाली-गलौच किया जाए, तो उसे वाणी का संस्कार कदापि नहीं कहा जा सकता। वाणी की सरलता और शुद्धता उसके संस्कारों पर निर्भर करती है। भर्तृहरि जी ने बहुत ही सुन्दर
घरेलू हिंसाघरेलू हिंसा शब्द सुनते ही हमारे मस्तिष्क में यही विचार आता है कि पति अपनी पत्नी पर अत्याचार करता है अथवा फिर ससुराल वाले निरीह बहू को किसी भी कारण से प्रताड़ित करते हैं। घरेलू हिंसा महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा का एक जटिल और घिनौना स्वरूप है। घरेलू हिंसा की यह समस्या सार्वभौमिक है। इसस
पाप-पुण्य की दुविधापाप क्या है और पुण्य क्या है? मानव मन में इनके विषय में सदा से ही जिज्ञासा रही है। इस दुविधा का समाधान करते हुए विद्वान ऋषियों ने अपने ग्रन्थों के माध्यम से हमें अपने-अपने तरीके से समझाने का सफल प्रयास किया है। साररूप में हम इतना कह सकते हैं कि देश, धर्म, समाज और घर-परिवार क
भाग्य और पुरुषार्थमनुष्य का भाग्य और उसका पुरुषार्थ दोनों की उसके जीवन में अहं भूमिका होती है। दोनों को एक सिक्के के दो पहलू कहा जा सकता है। भाग्य के बिना पुरुषार्थ फलदायी नहीं होता। इसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना मनुष्य का भाग्य सो जाता है। जब मनुष्य का भाग्य प्रबल होता है, उस समय यदि वह पुरुषार्थ कर
ज्ञान, धन और विश्वास ज्ञान, धन और विश्वास इन तीनों का मनुष्य के जीवन में बहुत महत्त्व है। इनके बिना मनुष्य का कोई मूल्य नहीं होता। ये तीनों वास्तव में उसके प्रिय और सच्चे मित्र हैं, जो चौबीसों घण्टे उसके साथ ही रहते हैं। ज्ञान उसका मार्गदर्शन करता रहता है, धन उसकी दैनन्दिन आवश्यकताओं को पूर्ण करता ह
पाप-पुण्य की खेतीहमारा यह शरीर एक खेत के समान है, मन, वचन और कर्म तीनों किसान हैं। पाप और पुण्य रूपी दो प्रकार के बीज मनुष्य के पास हैं। अब यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह अपने खेत में क्या बोना चाहता है? वह अपने लिए कैसी फसल की कामना करता है? क्योंकि जैसी फसल मनुष्य बोएगा, उसे देर-सवेर वैस
सकारात्मक सोचअपने द्वारा निर्धारित लक्ष्य पर पहुँचने के मनुष्य यदि लिए कटिबद्ध हो गया हो तब उसे नकारात्मक लोगों की निराशाजनक बातों की ओर कदापि ध्यान नहीं देना चाहिए। उनके सामने उसे बहरा अथवा मूर्ख बन जाने का ढोंग करना चाहिए। तब फिर उन्हें अनदेखा करके उसे अपने लक्ष्य का संधान कर लेना चाहिए।
परम तत्त्व एकईश्वर परम तत्त्व है, उसे जानना व समझना इस मनुष्य जीवन का सार है। प्रमुख बात यह है कि वह ईश्वर एक ही है। इसके विषय में विश्व के सभी धर्मों ने अपने-अपने ग्रन्थों में लिखा है। अलग-अलग धर्म उस प्रभु को अलग-अलग नाम से पुकारते हैं। जिस प्रकार एक भौतिक मनुष्य पिता, बेटा, गुरु, बाबा, पति, मित्र
प्रैशर अथवा तनावप्रैशर अथवा दबाव या तनावआधुनिक भौतिक युग की देन है। आज सभी लोग भागमभाग की जिन्दगी जी रहे हैं। दूसरों की देखादेखी हर व्यक्ति अपनी सुख-सुविधा के साधन अधिक-से-अधिक जुटाना चाहता है। उसे उन सबके लिए बहुत सारे पैसों की आवश्यकता होती है। इस धन को कमाने के लिए दिन-रात एक करता हुआ वह कोल्हू क
आत्महत्या हल नहींआजकल आत्महत्याएँ कुछ अधिक होने लगी हैं। समाचार पत्रों, टी वी, सोशल मीडिया पर इनकी चर्चा प्रायः होती रहती है। सभी वर्गों और आयु के लोग इस घृणित कृत्य को कर रहे हैं। किसान, व्यापारी वर्ग, नौकरी पेशा लोग, विद्यार्थी, नेता,अभिनेता, बच्चे, युवा, वृद्ध आदि सभी आत्महत्या का रास्ता अपना रहे
परीक्षा में सफलता परमात्मा सज्जनों की बहुत कड़ी परीक्षा लेता है किन्तु उनका साथ कभी नहीं छोड़ता। विद्यालय या कालेज में जब भी विद्यार्थियों की परीक्षा ली जाती है, तो उसका अर्थ यही होता है कि विद्यार्थी उस परीक्षा में सफल होकर अगली परीक्षा के लिए तैयार हो रहा है। स्कूल की परीक्षाओं में सफल होने
जातियों में बटा मनुष्यबहुत दुर्भग्य की बात है कि मनुष्य समाज जातियों में बटा हुआ है। इन्सान-इन्सान में आज अन्तर किया जा रहा है। हम लोग इक्कीसवीं शताब्दी में जी रहे हैं। एक ओर संसार चन्द्रमा आदि ग्रहों पर अपने कदम रख रहा है, तो दूसरी ओर मनुष्य-मनुष्य से भेदभाव कर रहा है। इसे दिन-प्रतिदिन बढ़ावा दिया ज
मनुष्य गुणों का भण्डारहर व्यक्ति की इस संसार में अपनी एक पहचान होती है। उसी के अनुरूप उसका व्यवहार तथा चरित्र होता है। मनुष्य का जैसा चरित्र होता है उसके मित्र भी वैसे ही होते है। यानी मनुष्य अपने चरित्र के अनुसार ही अपने मित्रों का चयन कर लेता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि सज्जन को
सौतेली माँमेरे विचार में माँ तो माँ होती है, चाहे वह अपनी सगी हो या सौतेली। मुझे दोनों में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता। सौतेली माँ वह होती है, जो बच्चे की अपनी जन्मदात्री सगी माँ की मृत्यु के उपरान्त पिता की पुनः शादी करने पर घर में आती है। वह भी वही सब कार्य करती है, जो बच्चे की अपनी सगी माँ किया करत
पुनर्जन्मपुनर्जन्म का अर्थ पुनः या फिर से जन्म। हम कह सकते हैं कि इस संसार में जीव के जन्म के अनन्तर अपने कर्मों के अनुसार प्राप्त समयावधि के पश्चात मृत्यु होती है। फिर उस मृत्यु के बाद जीव एक बार पुनः जन्म लेता है। यही पुनर्जन्म कहलाता है। पुनर्जन्म की इन घटनाओं की जानकारी हमें प्रायः अपने आसपास यद
मन का व्यवहारमनुष्य का यह मन है, जो कभी बिना किसी कारण के खुश होकर चहकने लगता है, तो कभी अनायास ही व्यथित हो जाता है। इस प्रसन्नता और अवसाद का कारण, प्रयास करने पर भी उसे समझ नहीं आता। तब वह परेशान हो जाता है। उसे ज्ञात नहीं हो पाता कि उसे अचानक ही क्या हो गया है? उसका मन इस प्रकार का व्यवहार क्यों
वृद्धावस्था में सुखमय जीवनवृद्धावस्था में सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए हर व्यक्ति को बहुत ही सावधानी बरतनी चाहिए। यद्यपि इस अवस्था में हर मनुष्य शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो जाता है। शारीरिक अस्वस्थता के कारण वह किसी प्रकार का कठोर परिश्रम नहीं कर पाता। चलने-फिरने और काम-काज करने उसे में असुवि
धर्म का अर्थधर्म मनुष्य को घुट्टी में पिलाया जाता है। बच्चा जब बोलने लगता है, तब माता-पिता उसे अपने इष्ट देव की स्तुति स्मरण करवाने लगते हैं। जब बच्चा उसका शुद्ध उच्चारण करते हुए उसे कण्ठस्थ कर लेता है, तो वे फूले नहीं समाते। माना यही जाता है कि धर्म दिलों को जोड़ने के लिए एक पुल का कार्य करता है। वि
अपनों का साथ अपने घर-परिवार और बन्धु-बान्धवों को यत्नपूर्वक विश्वास में लेना चाहिए। यदि अपनों का साथ किसी को मिल जाए, तो समझिए उस इन्सान ने जिन्दगी की जंग जीत ली है। इस विश्वास को जीतने के लिए मनुष्य को अपने स्वार्थ को त्याग देना चाहिए। अपने साथ-साथ अपनों को भी आगे बढ़ने का मौका देना चाहिए और आवश्यकत
कृतप्रतिज्ञ मनुष्यमनुष्य अपने जीवन में यदि कुछ भी करने की ठान ले, तो वह कर गुजरता हैं। लोग उसे कितना हतोत्साहित या निराश क्यों न करें, वह अपनी ही धुन में मस्त रहता है। यदि मनुष्य की लगन सच्ची है, तो फिर उसे किसी की आलोचना या प्रशंसा से कोई अन्तर नहीं पड़ता। ऐसे व्यक्तियों को आम जन सिरफिरा कहते हैं, क
आशा की किरणजीवन में मनुष्य को हर प्रकार की स्थिति का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। स्थिति चाहे बुरी-से-बुरी हो या अच्छी-से-अच्छी हो, उसे अपना सन्तुलन बनाए रखना चाहिए। उसे उम्मीद का दामन नहीं छोडना चाहिए। आशा की एक किरण के सहारे मनुष्य कुछ भी कर गुजरता है। मुझे अकबर और बीरबल का एक कि
जीवन चलने का नाममनुष्य का जीवन जब तक चलता रहता है, तभी तक उसमें जीवन्तता रहती है। इससे मनुष्य में कार्य करने का उत्साह एवं स्फूर्ति बनी रहती है। मानव जीवन की सफलता का मार्ग है, सही दिशा में निरन्तर आगे बढ़ते जाना। उसके लिए मनुष्य को जागृत होकर निरन्तर आगे बढ़ना होता है। अपने भाग्य का मालिक मनुष्य स्
जीवन और मृत्यु की जंगहर मनुष्य जीवन और मृत्यु की जंग को सुविधापूर्वक जीत लेना चाहता है। वह इस जन्म-मरण के रहस्य को जानने और समझने के लिए हर समय उत्सुक रहता है। यह कुण्डली मारकर उसके जीवन में बैठा हुआ है। मनुष्य का सारा जीवन बीत जाता है, पर यह सार उसकी समझ में नहीं आ पाता। इन्सान क्या करे और क्या न क
भारतीय जीवन मूल्यइक्कीसवीं सदी में फैली कॅरोना नामक इस वैश्विक महामारी ने सम्पूर्ण विश्व को त्रस्त कर दिया है। इसके चलते कुछ खास बातों की ओर ध्यान देने पर बल दिया जा रहा है।भरतीय जीवन मूल्यों को, आज पूरा विश्व अपनाने के लिए बाध्य हो रहा है। हम भारतीय गुलाम मानसिकता के कारण अँग्रेज लोगों की नकल करने
ब्रह्माण्ड का विस्तारईश्वर को हम सर्वव्यापक मानते हैं। वह इस ब्रह्माण्ड के कण-कण में व्याप्त है। उस परमात्मा की सत्ता का हम अनुभव तो कर सकते हैं पर उसे इन भौतिक चक्षुओं से देख नहीं सकते। उसकी इस व्याप्ति का अर्थ हम कर सकते हैं - व्याप्त होने की अवस्था या भाव, विस्तार या फैलाव और सभी अवस्थाओ
पल की खबर नहींजीवन में अगले पल क्या होने वाला है, इस विषय में मनुष्य को कुछ पता नहीं होता। जीवन उसका है, पर वही अपने भविष्य से अनभिज्ञ रहता है। इसका कारण है कि जो भी भविष्य के गर्भ में छुपा रहता है, उसके विषय में कोई नहीं बता सकता। भविष्य वक्ता केवल कयास लगा सकते हैं। उनकी बताई बात यथार्थ की कसौटी प
प्राणशक्तिप्राणशक्ति जीव के शरीर में रहती है जिसके कारण उसका यह जीवन होता है और जब यह प्राण शरीर से बाहर निकल जाता है तो जीव की मृत्यु हो जाती है। तब उस निर्जीव शरीर का संस्कार कर दिया जाता है। कोई कितना भी प्रिय क्यों न हो उसे विदा करना पड़ता है। हम सभी मोटे तौर पर शरीर में विद्यमान प्राणवायु के विष
गुणी की परखगुणों की परख उसके पारखी यानी गुणवान को होती है। जिस प्रकार हीरे का मूल्य एक जौहरी जानता है, अन्य कोई साधारण मनुष्य उसको नही पहचान सकता। आम जन के लिए हीरे और पत्थर में कोई अन्तर नहीं होता। उसी प्रकार एक गुणवान व्यक्ति की पहचान कोई गुणी व्यक्ति ही करने में समर्थ हो सकता है। अन्य कोई अल्पज्ञ
जिन्दगी का गणितमनुष्य की जिन्दगी का सबसे बड़ा रहस्य यही है कि वह किसके लिए जी रहा है? यद्यपि वह स्वयं और अपने परिवार की खुशहाली के लिए अपनी सारी ताकत झौंक देता है तथापि सारी आयु इस सत्य से अन्जान रहता है कि उसके लिए कौन जी रहा है? उसकी असली ताकत कौन लोग हैं? जिन्दगी हर कदम पर मनुष्य की परीक्षा
बहुरूपिया मनहमारा मन एक बहुरूपिया है। बहुरूपिया उसे कहते हैं जो विभिन्न प्रकार के रूप धारण करने में सक्षम होता है। बहुरूपिया व्यक्ति तरह-तरह के रूप धारण करके लोगों का दिल बहलाता है। लोग उसकी अदाकारी को बहुत समय तक स्मरण करते हैं। उसी प्रकार तरह-तरह के स्वाँग रचाकर मनुष्य का यह मन भी उसे नाना प्रकार
श्राद्ध किसका?आज हम चर्चा करेंगे कि मनुष्य को आखिर श्राद्ध किसका करना चाहिए? यह एक गम्भीर चिन्तन का विषय है कि मरे हुए परिवारी जनों का अथवा जीवित रह रहे माता-पिता का? मुझे श्राद्ध का यही अर्थ समीचीन लगता है कि अपने जीवित माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, गुरु-आचार्य और अन्य वृद्धजनों तथा तत्व
समाज का कल्याणसमाज की भलाई के लिए मनुष्य को ऐसे कार्य करने चाहिए, जिससे समाज का कुछ भला हो सके। सामाजिक प्राणी मनुष्य इस समाज से बहुत कुछ लेता है। बदले में उसे समाज के लिए कार्य करने चाहिए। उसे कुछ पुण्य कार्य भी करने चाहिए। ये नेक कार्य उसे महान बनाते हैं। इन कार्यों को करने से मनुष्य को आत्मतुष्टि
चुनौतियों का सामनामनुष्य को अपने बाहूबल पर पूरा भरोसा होना चाहिए। यदि उसे स्वयं पर विश्वास होगा, तो वह किसी भी तूफान का सामना बिना डरे या बिना घबराए कर सकता है। वैसे तो ईश्वर मनुष्य को वही देता है, जो उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार उसके भाग्य में लिखा होता है। परन्तु फिर भी जो व्यक्ति स्वयं ही
पढ़ने से जी चुराते बच्चेप्रायः माता-पिता परेशान रहते हैं कि बच्चे पढ़ने में मन नहीं लगाते। वे अपनी पुस्तकों को देखना भी नहीं चाहते। विद्यालय से मिले हुए गृहकार्य को जल्दबाजी में करके वे अपना पिंड छुड़ाते हैं। उन्हें किसी वस्तु की कमी माता-पिता नहीं रहने देते, फिर भी वे उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते।
सन्तान से हारनाप्रत्येक मनुष्य में इतनी सामर्थ्य होती है कि वह सम्पूर्ण जगत को जीत सकता है। सारे संसार पर आसानी से अपनी धाक जमा सकने वाला मजबूत इन्सान भी अपनी औलाद से हार जाता है। उसके समक्ष वह बेबस हो जाता है। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि सर्वसमर्थ होते हुए भी आखिर मनुष्य अपनी सन्तान के स
स्वावलम्बनस्वावलम्बी होना मनुष्य का बहुत बड़ा गुण है। जो मनुष्य स्वयं पर विश्वास नहीं कर सकता, वह जीवन में सफल नहीं हो पाता। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मनुष्य सारे कार्य स्वयं करने की ठान ले। जो कार्य उसे करने चाहिए, उनके लिए किसी ओर का मुँह देखने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। यह सत्य है कि जो कार्
मर्यादा का पालनस्त्री हो या पुरुष मर्यादा का पालन करना सबके लिए आवश्यक होता है। घर-परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, बच्चों और सेवक आदि सबको अपनी-अपनी मर्यादा में रहना होता है। यदि मर्यादा का पालन न किया जाए तो बवाल उठ खड़ा होता है, तूफान आ जाता है। मर्यादा शब्द भगवान श्रीराम के साथ जुड़ा हुआ है।
विधि का विधान बहुत कठोर है। वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। विधि या होनी जो न कराए वही थोड़ा है, वह बहुत ही बलवान है। उसके प्रकोप से आज तक कोई भी नहीं बच सका। मनुष्य के कर्मों के अनुसार जो भी सुख-दुख, जय-पराजय, लाभ-हानि आदि उसे मिलते हैं, उनमें रत्ती भर की भी कटौती नहीं की जाती। मनुष्य को उनसे भोगक
स्त्री महान या पुरुषस्त्री और पुरुष दोनों का अपना अलग अस्तित्व है। दोनों ही समाज के अभिन्न अंग हैं। इन दोनों में से किसी एक के बिना इस समाज की परिकल्पना नहीं की जा सकती। पति-पत्नी के रूप में ये दोनों घर, परिवार और समाज में एक अहं किरदार निभाते हैं। इन्हें एक ही सिक्के के दो पहलू कहना उपयुक्त होगा, ज
क्रोध पर नियन्त्रणक्रोध का आवेग मनुष्य के विवेक का हरण करता है। यह मनुष्य के सोचने-समझने की शक्ति को प्रभावित करता है। यह मनुष्य का सबसे बहुत बड़ा शत्रु है। यह क्रोध रूपी राक्षस उसे कभी भी चैन से नहीं रहने देता। मनुष्य के अन्तस् में जब क्रोध रूपी राक्षस प्रवेश कर जाता है, तब वह उसे प्रभावित करता है।
च्चों से जासूसीअपने बच्चों की सहजता, सरलता और भोलेपन का दुरूपयोग घर के बड़ों को कदापि नहीं करना चाहिए। मेरे कथन पर टिप्पणी करते हुए आप लोग कह सकते हैं कि कोई भी अपने बच्चों का नाजायज उपयोग कैसे कर सकता है? इस विषय में मेरा यही मानना है कि हम बड़े अपनी सुविधा के लिए अनजाने में ही बच्चों को गल
पाँच प्राणमनुष्य के शरीर में जब तक प्राण रहते हैं, तब तक वह जीवन्त रहता है। इन प्राणों के शरीर से निकलते ही वह निष्प्राण हो जाता है। तब उसे लोग शव के नाम से पुकारते हैं। सभी बन्धु-बान्धव अपने उस प्रियजन को कुछ समय के लिए भी घर में नहीं रहने देते। श्मशान में ले जाकर उसका अन्तिम संस्कर कर देते हैं। मन
नामी स्कूलों का मोहसब माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे किसी नामी स्कूल में पढ़कर अपना जीवन संवार लें और बड़ा आदमी बन सकें। अपनी तरफ से वे हर सम्भव प्रयास भी करते हैं। स्कूल में दी जाने वाली मोटी फीस आदि का प्रबन्ध करते हैं। इस तथ्य को हम झुठला नहीं सकते कि पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाले सभी बच्चे होशियार
अपनों का साथस्वजन अल्पज्ञ हों या गुणी, उनका साथ सदा सुखदायक होता है। जब कभी कोई आवश्यकता पड़ती है, तब अपने लोग ही काम आते हैं, वे ही सहारा देते हैं, पराए नहीं। पूरा शहर बसे, पर साथ अपनों का ही मिलता है, पूरे शहर का नहीं। अतः स्वजनों का साथ मनुष्य को कभी भी और किसी भी परिस्थिति में नहीं छोड़ना चाहिए। उ
स्वस्थ रहने के लिए व्यायामजीवन में स्वस्थ रहने के लिए व्यायाम करना बहुत आवश्यक होता है। मानव शरीर प्रकृति की एक सुन्दर और परिपूर्ण रचना है।यह शरीर जितना चलता-फिरता रहता है, उतना ही स्वस्थ, मजबूत, और लचीला बना रहता है। इसीलिए आजकल जिम जाने का फैशन बढ़ता जा रहा है। वहाँ जाकर लोग वर्कआउट करते हैं। बहुत-
शक्ति प्रदर्शनशक्तिशाली मनुष्य को अपनी शक्ति का घमण्ड नहीं करना चाहिए, अपितु उससे असहायों की सुरक्षा करनी चाहिए। यह ऐसा महान कार्य है, जिससे लोग उसकी शक्ति को पहचानते हैं और प्रशंसा करते हैं। मनुष्य को अपनी शक्ति का प्रदर्शन यदा कदा कर लेना चाहिए, अन्यथा लोग उसकी शक्ति के महत्त्व को ही नहीं समझते। व
माँगनायाचना करना अथवा माँगना स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए बहुत ही कठिन कार्य है। माँगने की प्रवृत्ति सदा से ही अहितकारी कही गई है। इसीलिए हमारी संस्कृति में त्याग का विशेष महत्त्व दर्शाया गया है। याचना करने से मनुष्य का सब कुछ क्षीण होता है, परन्तु त्याग से सब प्राप्त होता है। ईश्वर मनुष्य को पात्रता क
लोभ अपराधों का मूललोभ या लालच सारे फसादों की जड़ है या कारण है। यह लालच मनुष्य को चैन से नहीं बैठने देता, उसे बस नाच नचाता रहता है। और और पाने की उसकी कामना उसे सदा आकुल बनाए रखती है। अपनी इन कामनाओं की तृप्ति के लिए मनुष्य कोल्हू का बैल बन जाता है। दिन-रात उन्हें पाने के लिए वह अनथक प्रयास करता रहता
वन्दनीय व्यक्ति वन्दनीय व्यक्ति समाज मे वही कहलाता है, जो स्व से ऊपर उठकर पर के विषय में सोचे। परोपकारी मनुष्य सबकी आँख का तारा होते हैं। उनके सारे कार्य कलाप देश और समाज के हितार्थ होते हैं। सबके साथ वे समानता का व्यवहार करते हैं। उनके लिए कोई मनुष्य छोटा-बड़ा, छूत-अछूत, काला-गोरा नहीं होता। वे धर्म
शुभाशुभ कर्मों का फलमनुष्यता यही सिखाती है कि जहाँ तक हो सके दूसरों के दुख बाँटने चाहिए। इससे सामने वाले का दुख कम तो नहीं होता, पर उसका मन हल्का अवश्य हो जाता है। मनुष्य के दुख का बोझ कम होने से उसे उस समय सुखद अनुभूति होती है। परन्तु यदि मनुष्य भूख से व्याकुल हो रहा हो, तो उस भूख को कोई भी व्यक्ति
पति-पत्नी में अहम्पति और पत्नी एक-दूसरे के पूरक होते हैं, प्रतिद्वन्द्वी कदापि नहीं होते। इसलिए उन दोनों को एक गाड़ी के दो पहिए कहा जाता है। इनमें से किसी एक के न होने की स्थिति में गृहस्थी की गाड़ी डगमगाने लगती है। वह गति नहीं पकड़ पाती। इन दोनों में जब सामञ्जस्य होता है, तब घर बहुत अच्छी तरह चलता है।
मौन की साधनामौन साधक की तपस्या का फल होता है। मौन एक बहुत बड़ा शस्त्र है यानी हथियार है। इसे हम ब्रह्मास्त्र भी कह सकते हैं। मौन की कोई भाषा नहीं होती, किन्तु अपने मन की सारी बात समझा देता है। परन्तु जब कभी इसका विस्फोट होता है तब इस ज्वालामुखी की आँच से चारों ओर भयंकर तबाही मच जाती है। उस समय उस आँच